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पीरियड्स के दौरान 62 फीसदी महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती हैं

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

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प्रकृति की रचना में महिला और पुरुष एक अहम हिस्सा हैं। महिलाओं और पुरुषों में बहुत सारी समानताएं होने के साथ-साथ कुछ भिन्नता भी हैं। ऐसी ही एक भिन्नता महिलाओं में माहवारी की है। प्राचीन समय से माहवारी की वजह से महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले घरों में कैद या समाज से दूर कहीं बीहड़ इलाकों में रहने के लिए मजबूर किया जाता रहा है।

ऐसा देखा गया है कि माहवारी के नाम पर महिलाओं का केवल शोषण ही हुआ है। एक तो लडकियों की शादी ऐसी उम्र में कर दी जाती है, जहां उसे अपने हित के फैसले लेने का भी अधिकार नहीं होता है।

आज भी औसत इलाकों में जब लड़कियों को माहवारी आती है, तब वे अपने घरों में छिपकर घूमती नज़र आती हैं। बहुत सी लड़कियां तो अपने घरों में माहवारी के बारे में किसी को कह भी नहीं पाती हैं। यहां तक कि इस बारे में कई महिलाएं भी महिलाओं से बात करने से कतराती हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यह समाज माहवारी को अभिशाप के तौर पर देखता है, जहां महिलाओं को ना तो पूजा करने की आज़ादी होती है और ना ही भोजन बनाने या किसी सामान को छूने की। कई जगहों पर देखा गया है कि माहवारी के दौरान घर का कोई भी सदस्य महिलाओं से नहीं मिलता है।

आज माहवारी को लेकर तमाम तरह की जागरूकताओं के बावजूद भी ग्रामीण इलाकों में ऐसी चीज़ें देखने को मिलती हैं। कई घरों में तो पीरियड्स के दौरान महिलाओं के हाथ से लोग खाना तक खाना पसंद नहीं करते हैं। कुछ ऐसे भी घर हैं जहां माहवारी के दौरान महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं किया जाता है। इस दौरान उनकी आवश्यकता की चीज़ों को उपलब्ध कराया जाता है।

माहवारी के संदर्भ में कुछ तथ्यों को जानना ज़रूरी है-

घर के पुरुष भी यही कहते हैं कि कपड़ा इस्तेमाल कर लो, क्योंकि पैड महंगा आती है। यह बात भी सही है कि पैड एक महंगी वस्तु है, जिस पर 12% कर लगाया जाता है। लड़कियां जहां हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, वहीं उनके लिए माहवारी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भारत में पीरियड्स के दौरान 5 में से 1 लड़की स्कूल नहीं जा पाती है।

ग्रामीण महिलाओं के लिए माहवारी और भी चुनौतीपूर्ण

सैनिटरी नैपकिन ना होने से 12 से 18 साल की लड़कियों को महीने में पांच दिन का नुकसान होता है, क्योंकि स्कूलों और कॉलेजों में आज भी माहवारी के प्रति जागरूकता नहीं है। आज भी इसे सिर्फ महिलाओं की समस्या मानी जाती है। इसमें समाज के लोगो की भागीदारी ज़रूरी नहीं समझी जाती।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Pixabay

शहरों में भले ही माहवारी को लेकर जागरूकता की बातें की जाती हैं मगर ग्रामीण इलाकों की स्थिति भयावह है, क्योंकि ग्रामीण महिलाएं या फिर आदिवासी इलाकों में रहनी वाली महिलाए माहवारी के दौरान कोसों दूर काम करने के लिए जाती हैं। मनरेगा में काम करने वाली महिलाओं से लेकर किसी कंपनी में काम करने वाली महिलाओं को माहवारी के दिनों में काफी मुसीबतों का सामान करना पड़ता है।

राह चलते माहवारी के दौरान यदि उनके कपड़ों पर दाग लग जाए फिर तो लोगों की हसी का पात्र बनना पड़ता है। स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों को भी कई दफा माहवारी के दौरान सार्वजनिक तौर पर ज़लील किया गया है।

तमिलनाडु की घटना बेदह शर्मनाक

वहीं, एक खबर आई थी कि तमिलनाडु की एक स्कूल की बच्ची जिसकी उम्र 12 साल थी, माहवारी के बारे में जानकारी ना होने की वजह से उसने आत्महत्या कर ली। जब उसे स्कूल में माहवारी आई तब जानकारी ना होने की वजह से यूनिफॉर्म और बेंच में दाग लग गया, जिस कारण टीचर ने पूरी क्लास के सामने उसे ज़लील कर दिया।

ऐसी ना जाने कितनी लड़कियां हैं, जो माहवारी के दौरान शर्म की वजह से अपने घरों से बाहर नहीं निकलती हैं और इसके पीछे ज़िम्मेदार भी हमारा समाज ही है।

असफल है 1 रुपये में मिलने वाला सैनिटरी पैड

वहीं, स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में सैनिटरी पैड को बढ़ावा देने के लिए स्कीम शुरू की गई, जिसके तहत 150 करोड़ रुपए रुपये का आवंटन हुआ। इसमें बीपीएल परिवारों की लड़कियों को 1 रुपये की दर से सैनिटरी पैड मुहैया करने की बात की गई मगर मैंने देखा है शायद ही किसी दुकान पर 1 रुपये वाली पैड उपलब्ध हो। गौरतलब है कि एपीएल परिवार की लड़कियों के लिए पैड की कीमत 6 रुपये तय की गई।

आपको बता दें कि यह योजना बिहार, असम और छत्तीसगढ़ में असरदार नहीं हैं। आंकड़े बताते हैं कि बाकी राज्यों में आधे से कम महिलाएं 1 रुपये वाले पैड का इस्तेमाल करती हैं। वहीं, तमिलनाडु, केरल और दिल्ली जैसे राज्यों में 10 में से 9 महिलाएं पर्सनल हाइजीन प्रोडक्ट का इस्तेमाल करती हैं।

पैड को कहीं भी फेंकना नुकसानदेह हो सकता है

सरकार द्वारा लगातार गाँवों, शहरों और पिछड़े इलाकों में नुक्कड़ नाटक आदि के ज़रिये माहवारी जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं मगर आज भी स्थितियां वैसी ही हैं। आज भी गाँव की महिलाएं कपड़े या पैड को सड़क या खेत में फेक देती हैं, जहां छोटे जानवर उन्हें अपने मुंह से उठाकर ऐसी जगह फेंक देते हैं, जहां लोगों का आवागमन होता है।

यहां तक कि कई महिलाएं तो सैनिटरी पैड को बगैर कपड़े या कागज़ में लपेटकर ही बाहर फेंक देती हैं, जिससे गंदगी और इंफेक्शन दोनों फैलने का खतरा रहता है।

महिलाओं में माहवारी के प्रति लोगों में पहले  से ज़्यादा जागरूकता ज़रूर आई है मगर चीज़ें सिर्फ जागरूकता तक ही सीमित रह गई हैं। व्यापक स्तर पर चर्चा नहीं होती है कि कैसे ज़रूरतमंद महिलाओं तक इसे पहुंचाया जाए। मेन्स्ट्रुअल कप जैसे वैकल्पिक साधनों पर तो बात ही नहीं होती है।

चुप्पी तो तोड़नी ही होगी

कई बार महिलाओं को माहवारी के कारण सामाजिक दर्द उठाने पड़ जाते हैं। माहवारी ना आने की वजह से भी लड़कियों की शादी तक में दिक्कत आती है। लोग शादी करने से पहले ही यह सवाल करते हैं कि लड़की को माहवारी आती है या नहीं? बहुत सी शादीशुदा ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है सिर्फ इसलिए कि महिला को माहवारी नहीं आई और वह बच्चे को जन्म नहीं दे पाई।

यहां तक कि उसके पति की दूसरी शादी कर दी जाती है या लड़की को घर से ही निकाल दिया जाता है। इस तरीके की कुरीतियों को भी दूर करने की ज़रूरत है। हमें समझना होगा कि इसके लिए महिलाएं नहीं, बल्कि यह समाज ज़िम्मेदार है।

वक्त रहते समाज को सोच बदलने की ज़रूरत है ताकि माहवारी के संदर्भ में बातें सिर्फ जागरूकता तक ही सीमित ना रह जाएं, बल्कि बजट में इसके लिए राशी की वृद्धि होने के साथ-साथ इससे जुड़े अभियानों को भी सफल बनाना होगा।

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