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विकासवादी लघुकथा : मजदूरी – कुशराज

सिया काकी को एक हफ्ते से मजदूरी के लिए कोई काम नहीं मिल रहा है। गाँव के हर मुहल्ले में काम तलाशा फिर भी किसी के यहाँ कोई काम – धंधा न मिला। हताश होकर हाथ पर हाथ धरे  अपने छोटे से खपरैल घर में बैठी है। टेंशन में दो दिन से कुछ भी खाया – पिया नहीं है। शाम होने वाली है लेकिन अभी तक नहा भी नहीं पाया है क्योंकि घर के बगल वाला हैण्डपम्प कल से खराब पड़ा है। मुहल्लेवाली औरतों और लड़कियों को डेढ़ – दो किलोमीटर दूर से पानी भरने जाना पड़ रहा है। ग्रामप्रधान से हैण्डपम्प सुधरवाने की गुजारिश की गई तो उसने आश्वासन दिया कि नरसों तक अवश्य ठीक करा दूँगा।

इसी वक्त सिया की नन्दबाई रिया आ जाती हैं। भौजी का मुरझाया चेहरा देखकर आते ही पूँछती हैं –

” भौजी क्या हुआ? ऐसे मुँह लटकाए काय बैठी हो??? ”
” कछु न बिन्नू। भगवान ने बहुत बुरा किया है हमारे साथ। घर कंगाल कर दिया है। दाने – दाने के लिए मोहताज कर दिया है। अब तो और बुरी दशा है ढूँढें- ढूँढें मजदूरी नहीं मिल रही है…।”

” कोई न भौजी। धैर्य रखो। आपका भी फिर से अच्छा समय आएगा। और हमलोग तो हैं आप लोगों की मदद खातिर…”
” हाँ बिन्नू। ठीक कह रहीं आप। चलो अब आप हाथ – मुँह धोकर खाना खा लो।”
” भौजी! अभी भूँख नहीं है। रात को खा लेंगे…।”

देर रात को रिया के भाईसाहब रामचन्द्र भी आ जाते हैं। उन्हें शराब का नशा ऐसा चढ़ा था कि गली में झूम – झूमकर कहीं कीचड़ में गिर गए होंगे तभी तो सारे कपड़े और बदन कीचड़ से लतपथ है। उनके बाल तो बेथी – बेथी जितने लम्बे हो गए हैं और दाढ़ी तो रीछों जैसी लटक रही है। महीने में चार – पाँच बार ही नहाते हैं सिर्फ जुआ खेलने और शराब पीने में मस्त रहते हैं। किसी काम धन्धे और घर – परिवार से कोई लेना – देना नहीं है…

शराबी रामचंद्र को रात में ही सिया और रिया ने नहलाया और साफ – सुथरे कपड़े पहनाए। रात ग्यारह बजे तीनों ने भोजन किया। सिया की बेटी संध्या आठ बजे ही भोजन करके सो गई थी…

बड़ा बेटा जितेन्द्र बरूआसागर के राजकीय इण्टर कॉलेज में हाईस्कूल में पढ़ रहा है। छोटा बेटा शैलेन्द्र बरूआसागर के माते रेस्टोरेन्ट में वेटर का काम करता है। जो अभी सिर्फ दस साल का ही है। संध्या गाँव की ही सरकारी कन्या पाठशाला में कक्षा चार में पढ़ती है। जो बड़ी होनहार है…

दो साल बाद, रामचन्द्र की हालात और बिगड़ जाती है। वो वैसे ही गाँव के नम्बर एक के जुआड़ी और शराबी थे। दिनभर जुआ खेलते थे। जुए में ही अपनी पन्द्रह – बीस बीघा जमीन और बहुत बड़ा मकान गवाँ बैठे थे। अब सर्फ एक खपरैल कच्चा घर और मवेशियों के लिए बेड़ा बचा है। नाममात्र की जमीन बची है सिर्फ आधा बीघा। जिसमें मवेशियों हेतु चारा उग जाता है और थोड़ी बहुत साग – सब्जी भी। अब घर बिल्कुल कंगाल हो गया है। जितेन्द्र और संध्या का स्कूल छूट गया है। शैलेन्द्र वैसे ही स्कूल नहीं जाता था…

रामचन्द्र जुआ खेलते वक्त इतने मस्त – मौला हो जाते थे कि खाने – पीने पर बिल्कुल ध्यान ही नहीं देते थे। बिना खाए – पिए सवेरे से शाम तक और कभी – कभार देर रात तक खेलते रहते थे। कभी जीतते थे और अधिकतर बार हारते ही थे। जीतना रामचन्द्र के भाग्य में था ही नहीं। तभी तो सब कुछ गवाँ दिया इस जुए की लत में…

देशी, महुआ माता और अंग्रेजी शराब तीनों का पैग एक साथ लगा लेते थे। महुआ माता तो बिना पानी मिलाए ही ढँगोस जाते थे। दिनभर में चार – पाँच सौ के गुटखा थूंक देते थे और सिगरेट फूँक जाते थे। तभी तो आज कैंसर और टी० बी० के मरीज बनकर परलोक सिधार गए। जितना घर में धन – धान्य था। वो भी अपने इलाज में खर्च करा गए। घर को शत प्रतिशत बर्बाद कर गए…

अब सिया और जितेन्द्र नमकीन फैक्ट्री में मजदूरी करते हैं। शैलेन्द्र वहीं माते रेस्टोरेन्ट में वेटर का ही काम करता है। संध्या विवाह लायक हो गए है…

दो साल बाद, मजदूरी से प्राप्त धनराशि को संध्या की शादी हेतु पच्चीस हजार रुपए बुन्देलखण्ड सर्वजातीय विवाह सम्मेलन में पंजीकरण के रूप में जमा कर दिए गए और संध्या का विवाह संपन्न हो गया…

शादी के एक साल बाद, संध्या ने अपने पति के साथ मिलकर, समाज सुधार अभियान चलाया और समाज में जुआ, शराब, धूम्रपान पर रोक लगाने में कामयाब हुई और समाज के हर आदमी को शिक्षा का महत्त्व समझाया। वो खुद पढ़ाती और साथ ही दूसरों को पढ़ने – पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती। पाँच साल में ही इस संध्या ने समाज में संध्या यानी शाम की भाँति छाए अज्ञानता और अजागरुकता के अंधकार को मिटाकर शिक्षा और जागरूकता की रोशनी से भर दिया…

✒ परिवर्तनकारी कुशराज
झाँसी बुन्देलखण्ड
15/3/19_10:31अपराह्न…

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