हर दौर की पत्रकारिता में अखबारों को लोगों की ज़ुबान में पहुंचाना आसना नहीं रहा है। हमारे देश में तो हर दो कोस पर ज़ुबान बदल जाती है। हिन्दी पत्रकारिता ने हिन्दी को अखबारों के ज़रिये लोगों तक पहुंचाया है। अपनी जुबान में बातें करना, अपनी ज़ुबान में पढ़ना, अपनी ज़ुबान की शहद में डूब जाने का जो मज़ा है, वह किसी और ज़ुबान में नहीं है।
पत्रकारों के लिए हिंदी को हर वर्ग के बीच ले जाने की चुनौती
हमारे पत्रकारों के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती रही है कि वे हिन्दी को कैसे हर वर्ग के बीच ले जाएं। ऐसी हिन्दी जिसे आम आदमी समझ सके। उसे इसमें साहित्य, संस्कृति का भी स्वाद मिले और सूचनाएं भी सरल भाषा में मिले। यह चुनौती हमेशा उनके सामने रही है।
यह हमारी भाषा का ही कमाल था कि आज़ादी के आंदोलन में हिन्दी पत्रकारिता के ज़रिए स्वाधीनता संग्राम को घर-घर तक पहुंचाया गया। यह वह दौर था जब बाज़ार ने पत्रकारिता को प्रभावित नहीं किया था। समाचार पत्र की दुनिया में पूंजीपतियों का प्रवेश बहुत बाद में हुआ। आज़ादी के दीवाने, साहित्यकार,कला प्रेमियों ने पत्रकारिता को मिशन के रूप में लिया।
उन दिनों अखबार निकालना जोखिम भरा काम था। वह भी अपनी भाषा में। शायद इसलिए पत्रकारिता को हिम्मत और हिमाकत की ज़ुबान हम मानते हैं। गॉंधी से लेकर, बाल गंगाधर तिलक, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, मदन मोहन मालवीय, सेठ गोविन्द दास, लाला जगत नारायण, डॉ सच्चिदानंद सिन्हा समेत सभी आज़ादी के मतवालों ने अपनी-अपनी ज़ुबान में अखबार निकाले और उसे आम लोगों तक पहुंचाया।
उर्दू के मशहूर शायर और उस दौर में बिहार से निकलने वाली “पंच” के सम्पादक शाद अजीमावादी ने लिखा,
मैं हीरा ही था तेरे दामन में ऐ खाके बिहार
तू मेरी कीमत दे ना सका
पर्दापोशाने वतन
तुझसे तो ये भी ना हुआ
एक चादर को तड़पती रही तुर्बत मेरी
हमारे पास ऐसी हज़ारों मिशाल हैं कि हम अपनी भाषा से कितनी मुहब्बत करते रहे हैं और हिन्दी हमारे लिए सिर्फ ज़ुबान ही नहीं, बल्कि संघर्ष और क्रांति की ज़ुबान रही है। आज़ादी के आंदोलन के समय हिन्दी पत्रकारिता का समाज पर गहरा असर था। खुद गॉंधी ने इसका जिक्र करते हुए एक जगह कहा कि समाचार-पत्रों के शब्दों ने लोगों के बीच गीता, बाइबिल और कुरान का स्थान ले लिया है। उसके लिखे हुए हर शब्द ब्रह वाक्य के समान हैं। उस दौर में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का राष्ट्रीय स्वर इतना मुखर था कि ब्रिटिश हुकूमत को सन् 1878 में वर्नाकुल प्रेस एक्ट बनाना पड़ा।
आज कई हद तक पत्रकारिता की हिंदी में दिखने लगा है काॅरपोरेट का दबदबा
आज़ादी के समय से अखबारों में हम जिस हिन्दी का इस्तेमाल करते थे, आज वह हिन्दी पहले से ज़्यादा सुगम और सरल हुई है पर अब इस ज़ुबान पर काॅरपोरेट का दबदबा है। इस भाषा को बाज़ार के नज़दीक लाने की कोशिशि हो रही है। हिन्दी में भी हिन्दुस्तानी भाषा ज़्यादा लोकप्रिय हो रही है। हिन्दुस्तानी से मतलब है हिन्दी और उर्दू, जिसे हम मिलीजुली ज़ुबान कहते हैं।
खालिस हिंदी का प्रयोग नहीं हुआ संभव
कई अखबारों की यह कोशिश थी कि इसकी भाषा खालिस हिन्दी हो पर यह प्रयोग सफल नहीं हुआ। जैसे हम हिन्दी से मेज या कमीज़ जैसे शब्द नहीं निकाल सकते। कुछ उर्दू शब्दों को इस तरह अपनाया जैसे ये शब्द हिन्दी के हों, मसलन- खिलाफत। खिलाफत का अखबारों में इस्तेमाल हमलोग विरोध के लिए करते हैं। विरोध के लिए उर्दू में मुखालफत का इस्तेमाल किया जाता है। खिलाफत शब्द खलिफा से आया है। दिलचस्प यह है कि हम हिन्दी वाले खिलाफत को खिलाफ के लिए इस्तेमाल करने लगे।
हिन्दी पर बाज़ार के असर ने इसे एक तरफ ज़्यादा लचीला बनाया तो दूसरी तरफ इसे बाज़ारू बना दिया, जैसे- ‘बबाल काटा’ जैसे शब्द हैं। ऐसे शब्द हमारी हिन्दी को भाषा के स्तर पर कमज़ोर करते हैं। अखबारों में हिन्दी भाषा के भीतर लैंगिक असानता, हिंसा और बाज़ारूपन दिखता है।
हिंगलिश जैसे प्रयोग की कोशिश, जिसमें अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल ने भी हिन्दी को कमज़ोर किया है। वर्तनी की अशुद्धियों के प्रति भी हम सचेत नहीं हैं। फिर भी हम कह सकते हैं कि हमारी हिन्दी करोड़ों लोगों की ज़ुबान है। हिन्दी में हमारा दिल धड़कता है। हिन्दी गंगा-जमुनी तहज़ीब का हिस्सा है।
हिन्दी गरीबों की ज़ुबान है, तो इसे सभी वर्गों ने सराहा भी है। हिन्दी हमारी रोज़ी-रोटी की ज़ुबान है। हिन्दी मुहब्बत की ज़ुबान है। हिन्दी मिसरी की डली है। पुखराजी सुनहरी रौशनाई में हिन्दी के खूबसूरत हर्फ हमारे दिनों के गवाह हैं।