“कश्मीर” एक शब्द कम और एक भावना ज़्यादा लगती है। एक ऐसी भावना जो आज भी सरहद के दोनों पार “पाक अधिकृत कश्मीर” और “भारत अधिकृत कश्मीर” के रूप में, भारत के 133.92 करोड़ और पाकिस्तान की लगभग 20 करोड़ लोगों से भावनात्मक जुड़ाव रखती है।
कभी-कभी यह लगता है कि राम मंदिर के इतर कोई मुद्दा आज भी देश में अति-संवेदनशील है तो शायद वह कश्मीर ही है। हो भी क्यों नहीं, यह कश्मीर का ही तो मुद्दा है, जिसने गत 27 वर्षों में लगभग 41,000 मासूम कश्मीरियों और अनगिनत सुरक्षाबलों के वीर और निडर सपूतों को मौत के मुंह में ढकेला है।
कभी-कभी तो मुझे यह लगता है कि देश के सभी प्रमुख समाचार चैनलों पर अगर रोज़ 10 खबरें भी दिखाई जाती हैं, तो उनमें से कुल पांच खबरें कश्मीर से होती हैं लेकिन ना जाने क्यों ये खबरें हमेशा हिंसा, दहशत और आतंक का ही पैगाम लाती हैं। मेरे जैसे कुछ इसका कारण जानते हैं, कुछ इसके कारण से बिल्कुल अछूते हैं और कुछ तो मात्र ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे उन्हें इस मुद्दे को लेकर कोई खोज-खबर ही नहीं है।
खैर, जैसे भूकंप का एक उपरिकेंद्र (एपिसेंटर) होता है, ठीक उसी तरह भारत और पाकिस्तान के बीच में भी एक राजनैतिक उपरिकेंद्र मौजूद है, जिसका नाम है ‘कश्मीर’। शायद यह एक ऐसा उपरिकेंद्र है, जिसके झटके नई दिल्ली और इस्लामाबाद में ही नहीं बल्कि वॉशिंगटन से लेकर बीजिंग तक दुनिया की हर प्रमुख राजधानियों में महसूस होते हैं। कश्मीर और कश्मीरियत आज के मौजूदा संदर्भ में एक जुमला मात्र के रूप में ही रह गया है।
आज के परिवेश में विश्व को कश्मीर सिर्फ मध्यस्त्ता के केंद्र के रूप में ही दिखता है, इस बात से पूर्णत: अवगत होने के बावजूद कि यह मुद्दा द्विपक्षीय तौर पर बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप से सुलझाया जा सकता है, क्योंकि दो एटमी ताकते इसी सिद्धांत में विश्वास रखती हैं।
खैर, “कश्मीर” को कश्मीरी के दृष्टिकोण से ना दिखाकर, दो परमाणु ताकतों के बीच गत 70 वर्षों से चले आ रहे भूमि विवाद के रूप में पेश किया जा रहा है।
कभी-कभी मैं स्वयं यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि आखिर क्यों दो आज़ाद मुल्कों में बटा हुआ कश्मीर आज भी पाबंदियों की अनेक जंज़ीरों में जकड़ा हुआ है। यह जंज़ीरें उस भूमि विवाद को तो दर्शाती हैं, जिसमें कभी सिंधु घाटी की सभ्यता मौजूद थी लेकिन ना जाने क्यों यह जंज़ीरे कश्मीरियत के मूलभाव को प्रस्तुत करने में विफल हो गई हैं।
इस भूमि विवाद की शुरुआत तो सन् 1947 में हुई थी लेकिन इसका निष्कर्ष ना तो आज नज़र आता है ना कल।