उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों की महिलाएं यहां के सामाजिक और आर्थिक जीवन की धुरी हैं। विषम भौगोलिक परिस्थितियों और कठिन जलवायु के साथ भी पहाड़ में जीवन यदि संभव हैं तो इसके लिए पहाड़ की महिलाओं के अदम्य जीवट को श्रेय जाता है। खेती से लेकर पशुपालन के ज़्यादातर काम औरतों के ज़िम्मे होते हैं, जिन्हें वे सीमित संसाधनों में भी बखूबी संभालती हैं।
पहाड़ों में स्वास्थ सेवाएं खस्ताहाल
पहाड़ों पर शिक्षा और स्वास्थ्य की हमेशा से अनदेखी हुई है। उत्तर प्रदेश में रहते हुए भी और स्वतंत्र राज्य का हिस्सा बनकर भी उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र इन दो मूलभूत सुविधाओं से लगभग वंचित ही रहे हैं। हालात ये हैं कि राज्य गठन के अट्ठारह साल बाद भी राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं खस्ताहाल हैं।
कई जगह बीमार व्यक्ति को सिर्फ मुख्य सड़क तक पहुंचाने के लिए ही कई किलोमीटर तक उसे कंधे पर ढोकर ले जाना पड़ता है। लगभग हर महीने हम बिना चिकित्सक या यातायात सुविधा के मरीज़ के दम तोड़ देने की खबरें पढ़ते हैं। जाने कितनी ही महिलाएं बिना समुचित इलाज के प्रसव करते हुए जान से जाती हैं, कितने ही नवजात इस दुनिया में जीवित कदम नहीं रख पाते हैं।
पिछले कुछ समय से पहाड़ों की महिलाओं के एक जानलेवा बीमारी से जूझने के बहुत सारे केस लगातार दर्ज़ हो रहे हैं। यह बीमारी है गर्भाशय का कैंसर। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (ICMR ) के अनुसार 2014 से 2016 के बीच पूरे देश में कैंसर से मृत्यु दर 9.3% थी जबकि उत्तराखंड में इसे 10.19% रिकॉर्ड किया गया जो कि एक गंभीर बात है।
गर्भाशय के कैंसर के बढ़ रहे हैं केस
कॉउंसिल के अनुसार 2014 में प्रदेश भर में कैंसर के 11,240० केस दर्ज हुए। 2014 में 1169 और 2016 में ये बढ़कर 12,371 हो गए। कैंसर के इन ज्ञात मामलों में सबसे ज़्यादा मामले फेफड़े के कैंसर के थे। इसके बाद महिलाओं में ब्रेस्ट और गर्भाशय के कैंसर के थे।
लगभग 28 % फेफड़े का कैंसर ज़्यादातर बीड़ी, सिगरेट या धुआं रहित तम्बाकू के सेवन से होता है जबकि ब्रेस्ट और गर्भाशय से सम्बंधित कैंसर की कई सारी वजहें हैं। ब्रेस्ट कैंसर के लिए तो अभी कोई तय वजह भी नहीं सामने आई है, ज़्यादातर इसे जेनेटिक से जोड़ दिया जाता है।
जहां तक सर्विक्स या गर्भाशय के कैंसर की बात है ये कई मामलों में साफ-सफाई या सही वक्त पर शारीरिक लक्षणों पर ध्यान ना दिए जाने का नतीजा है और बहुत तेज़ी से इसके मामले बढ़ भी रहे हैं।
मेरा गाँव जो कि पौड़ी गढ़वाल के सुदूर इलाके में है, वहां कुल मिलकर 8 परिवार अभी रह रहे हैं। इन परिवारों से 6 महिलाओं का गर्भाशय इसी बीमारी की वजह से ऑपरेशन द्वारा निकाल दिया गया है। आस पास के गाँवों में भी बड़ी तादात में महिलाएं इस बीमारी से ग्रसित हैं।
महिलाएं शर्मिंदगी की वजह से नहीं कह पाती
शुरुआती लक्षणों पर ध्यान ना दिए जाने की वजह से स्थिति इतनी खराब हो चुकी होती है कि गर्भाशय हटा देना ही आखिरी विकल्प बचता है। ऐसा नहीं है कि पहले ये बीमारी अस्तित्व में नहीं थी। चूंकि इस बीमारी के एक लक्षण में लगातार वैजाइनल ब्लीडिंग होना भी है इसलिए महिलाएं शर्मिंदगी की वजह से किसी से कह नहीं पाती थी और इसे “प्रदोष” कहकर छुपा लिया जाता था।
गर्भाशय के कैंसर की मुख्य वजहों में कम उम्र में प्रसव, जननांगों की ठीक से सफाई का ध्यान ना रखना,पीरियड के वक्त गंदे कपडे़ के इस्तेमाल से हुआ इन्फेक्शन, ज़्यादा बच्चे जिनके बीच बहुत कम गैप हो आदि शामिल हैं।
यदि सरकार वक्त से जागरूकता अभियान चलाए, बर्थ कण्ट्रोल से लेकर सेनेट्री पैड तक इस्तेमाल करने के लिए महिलाओं को सही ढंग से प्रेरित करे तो शायद हमारी पहाड़ी महिलाएं इस जानलेवा बीमारी से बची रह सकती हैं।
एक सार्थक कदम के तौर पर पहाड़ों में बहुत सस्ती दर पर आशाओं द्वारा सेनेट्री पैड उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसकी कीमत प्रति पैड सिर्फ एक रुपया है लेकिन उनके इस्तेमाल के लिए महिलाओं को प्रेरित नहीं किया जा रहा है।
पहाड़ के हालातों के बीच,पहाड़ की जीवन शक्ति का यूं ह्रास होते देखना बहुत परेशान कर देता है। उम्मीद है कि सरकार वक्त पर चेते और इस ओर ध्यान दे।