भारत की आज़ादी के लिए स्वतंत्रता संग्राम में शामिल लोगों की कतार बहुत लंबी है। इसमें कम उम्र के क्रांतिकारियों में सबसे पहला नाम भगत सिंह का आता हैं।
कनकलता बरुआ, उन वीरांगनाओं में से हैं, जिन्होंने मात्र 18 वर्ष की उम्र में त्याग व बलिदान से इस बात को साबित कर दिया कि देशभक्ति और देश के लिए शहादत देने की कोई उम्र नहीं होती।
20 सितंबर 1942 को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने की कोशिश में भीड़ पर जब गोलियां दागी गईं, तब कनकलता बरुआ भी शहीद हो गईं।
असम के कृष्णकांत बरुआ के घर में 22 दिसंबर 1924 को कनकलता का जन्म हुआ था। पांच वर्ष की उम्र में उनकी माँ, कर्णेश्र्वरी का निधन हो गया। पिता ने दूसरा विवाह किया मगर कुछ वर्षों बाद पिता कृष्णकांत और दूसरी माँ का भी देहांत हो गया।
ज्योति प्रसाद अग्रवाल के गीत से प्रेरणा मिली
अल्पायु में माँ-पिता के गुज़र जाने के बाद कनकलता की नानी ने उनका पालन-पोषण किया। कनकलता घर-गृहस्थी के कामों में भी हाथ बंटाती और पढ़ाई भी करती। असम के प्रसिद्ध कवि ज्योति प्रसाद अग्रवाल, जिनके असमिया भाषा में लिखे गीत घर-घर में लोकप्रिय थे, कनकलता इन गीतों से काफी प्रभावित और प्रेरित रहती थीं। इन गीतों ने कनललता के बाल मन में राष्ट्रभक्ति का बीज अंकुरित किया।
मई 1931 में असम के गमेरी गाँव में विद्यार्थियों के सहयोग से रैयत सभा आयोजित की गई, जिसकी अध्यक्षता ज्योति प्रसाद अग्रवाल कर रहे थे। कनकलता मात्र 7 साल की उम्र में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम के साथ उसमें शामिल हुईं।
बाद में इस सभा में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया, जिसकी आग असम के चारों तरफ फैल गई। मुबंई में जब 8 अगस्त 1942 को “अंग्रेज़ों भारत छोड़ो” प्रस्ताव परित हुआ, तब यह देश के कोने-कोने में फैल गया। असम के शीर्ष नेताओं को जेल में डाल दिया गया।
जब तिरंगा लेकर आगे बढ़ीं कनकलता
ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने तब नेतृत्व संभालते हुए एक गुप्त सभा की, जिसमें 29 सितंबर 1942 को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा फहराने का निर्णय लिया गया गया।
कनकलता की उम्र उस समय विवाह के योग्य हो चुकी थी। कनक ने विवाह की अपेक्षा भारत की आज़ादी को अधिक महत्वपूर्ण माना, क्योंकि उनको अपनी मंज़िल मिल चुकी थी। आत्म बलिदानी जत्था थाने के करीब पहुंची, जिसके पीछे जुलूस के नारे गुंज रहे थे। उस ज़ुलूस के सदस्यों में कचहरी पर झंडा फहराने की होड़ सी मची हुई थी। थाना प्रभारी ने कहा, “एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे।”
कनकलता जैसे ही तिरंगा लेकर आगे बढ़ीं, वैसे ही जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी गई। पहली गोली कनकलता की छाती पर लगी जिसे बोगी कछारी नाम के सिपाही ने चलाई थी। दूसरी गोली मुकंद कालोती को लगी, जिसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियां चलती रहीं।
परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए। उन युवकों के मन में स्वतंत्रता की अखंड ज्योति प्रज्वलित थी, जिसके कारण गोलियों की परवाह ना करते हुए वे आगे बढ़ते गए। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ीं, किंतु उनके हाथों का तिरंगा झुका नहीं।
उनकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गए। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को ना तो झुकने दिया और ना ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया।
शहीद मुकंद काकोती के शव को तेजपुर नगर पालिका के कर्मचारियों ने गुप्त रूप से दाह-संस्कार कर दिया। तमाम स्वतंत्रता सेनानी, कनकलता के शव को अपने कंधे पर उठाकर उनके घर तक ले गए। उनका अंतिम संस्कार बरंगबड़ी में ही किया गया।
कनकलता बरुआ का बलिदान और देश के लिए उनका संघर्ष इस रूप में याद किया जाना चाहिए कि देश के लिए देशभक्ति और अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए ना तो उम्र की कोई बाधा होती है और ना ही उस परिवेश में बंदिशें होती हैं, जिसमें आप पले-बढ़े है। देश के लिए समर्पित एक जज़्बा ही काफी है अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए।
नोट: इस लेख को लिखने के लिए नैशनल प्रोग्राम ऑफ फीचर (अंग्रेजी) से मदद ली गई है।