हमारे देश में पारदर्शिता की कमी लगभग शुरू से चली आ रही है, फिर चाहे वह आर्थिकता की बात हो, विकास की बात हो, बजट की बात हो या लोकतंत्र की बात हो। पारदर्शिता को ऐसी कब्र में दफन किया जा चुका है, जहां पर हवा भी नहीं जा सकती है।
लेकिन इस वक्तव्य को गलत साबित करके दिखाया है झारखंड सरकार ने। पिछले दिनों अखबारों में झारखंड सरकार द्वारा एक विज्ञप्ति जारी की गई थी, जिसमें ‘पत्रकारों को खरीदने’ में ऐसी पारदर्शिता दिखाई गई कि पारदर्शिता भी लजा गई।
सरकारी योजनाओं की तारीफ करने वाला विज्ञापन
मामला कुछ यूं था कि झारखंड सरकार द्वारा अखबारों में एक विज्ञप्ति दी गई, जिसमें लिखा था कि सरकार उन पत्रकारों को 15 हज़ार की राशि प्रदान करेगी, जो सरकार की योजनाओं पर लेख लिखेंगे एवं पत्रकारों से 16 सितंबर तक आवेदन मांगे गए।
अब जिन पत्रकारों ने आवेदन किया है, उनमें से 30 पत्रकारों का चयन होगा और वे अपनी या किसी अन्य पत्रिका में सरकार की योजनाओं पर लेख लिखेंगे फिर उसकी कटिंग झारखंड सरकार को भेजेंगे एवं जो पत्रकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कार्यरत हैं, वे अपना वीडियो कटिंग भेजेंगे, इसके बाद झारखंड सरकार प्रत्येक पत्रकार को 15 हज़ार रुपये देगी।
सिलसिला यहीं नहीं थमता है, बल्कि सरकार फिर उन 30 लेखों में से 25 लेख छांटकर उनकी एक किताब बनाएगी और उसे प्रकाशित करेगी। किताब में जिन 25 पत्रकारों के लेख छपे हैं, उन्हें 5-5 हज़ार रुपये और दिए जाएंगे।
यहां पर एक बात बताना ज़रूरी है कि मीडिया में यह खबर फैलने के बाद सूचना एवं जन-संपर्क विभाग रांची ने पहले जारी किए गए विज्ञापन में सुधार करते हुए पुन: प्रकाशित किया। इस विज्ञापन से वह हिस्सा हटा लिया गया, जिसमें खासतौर पर सरकारी योजनाओं की अच्छाइयों का ज़िक्र करने पर ज़ोर दिया गया था।
कितनी अच्छी बात है यह क्योंकि आम आदमी को नहीं पता कि गोदी मीडिया को कौन फंड करता है एवं किस माध्यम से करता है। लेकिन अब आम आदमी के समक्ष पारदर्शिता का झंडा फहराया जा चुका है और पत्रकारिता को सरेआम ‘चाटुकारिता’ के रूप में स्थापित किया जा रहा है।
क्या यह सब चुनाव के लिए किया जा रहा है?
पत्रकारिता को भारत में एक प्रक्रिया के तहत खत्म किया गया है लेकिन अब तक लोग इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ थे मगर झारखंड सरकार की हिम्मत देखिए कि पत्रकारों को खरीदने की प्रक्रिया को लोगों के सामने रखा है अर्थात पारदर्शी बनाया है। अच्छा भी है, आप जो कुछ भी करो खुलेआम करो, क्योंकि बिकने वाले पत्रकार तो हर दम बिकने को तत्पर रहते हैं। फिर प्रक्रिया चाहे पारदर्शी हो या अपारदर्शी।
हालांकि जो विद्यार्थी पत्रकारिता पैसे कमाने के लिए कर रहे हैं, उनके लिए एक ही राह पर हज़ारों दरवाज़े खुलने वाले हैं लेकिन जिन्होंने ‘पत्रकारिता’ करने के लिए पत्रकारिता की पढ़ाई को चुना है, दिक्कत उन्हें आएगी। भारत का मेनस्ट्रीम मीडिया उन्हें नौकरी देगा नहीं, किसी के हाथों बिकने के लिए वे तैयार नहीं हैं और ‘पत्रकारिता’ उन्हें करने नहीं दी जाएगी।
अब इससे भारत में बेरोज़गार पत्रकारों की संख्या में मामूली सा इज़ाफा होगा लेकिन आप मत घबराइए, क्योंकि आप तक तो बेरोज़गारी के आंकड़ें वैसे भी नहीं पहुंचने वाले।
खैर, झारखंड सरकार के संचालक और झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास को पता है कि आने वाले महीनों में चुनाव है और अब तो भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि आप मीडिया को हथिया लीजिए, चुनाव अपने आप आपका हो जाएगा। इसी लीक का अनुसरण करते हुए रघुवर दास ने ‘पत्रकारों’ की बोली लगाई है और पारदर्शी रूप से उन्हें खरीदा भी जाएगा।
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह ‘पेड न्यूज़’ की पारदर्शिता है लेकिन मेरे अनुसार यह ‘पेड’ तो है लेकिन ‘न्यूज़’ कतई नहीं है। अब यह आपको तय करना पड़ेगा कि यह न्यूज़ नहीं तो क्या है?
हालांकि हिंदी अखबारों को आप ना खरीदे तो बेहतर है, क्योंकि मैं पहले भी कह चुका हूं कि एक अखबार की कीमत साढ़े चार या पांच रुपये होती है, जिसके हिसाब से एक साल के 1700 रुपये होते हैं। इससे अच्छा है कि आप 15-20 रुपये खर्च करके उस पार्टी का मेनिफेस्टो खरीद लीजिए जिसका एजेंडा अखबारों में चलाया जा रहा है।
अब मान लीजिए कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ लटक रहा है, क्योंकि मुझे धुंधला-धुंधला सा याद है कि बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ‘मीडिया’ है।