जब कोई छोटा सा रिहाइशी इलाका किसी कस्बे या शहर का रूप लेता है, तो क्षेत्रीय लोगों के ज़हन में क्षेत्र के विकास हेतु उम्मीदें फलने-फूलने लगती हैं। धनबाद क्षेत्र का बदनसीब माइनिंग इलाका जो गाँव से कस्बा और कस्बे से शहर की शक्ल तक ज़रूर पहुंचा लेकिन इसका सैकड़ों वर्षों का इतिहास सिर्फ और सिर्फ इसकी लाचारगी ही बयां करता है।
वह लाचारगी जो वर्षों से कुंडली जमाये अभिशाप की मौजूदगी में विकास ना हो पाने की पीड़ा बयां करती है। लाचारगी बेतरतीब माइनिंग से उपजे दूषित वातावरण से पनपती अनगिनत बीमारियों की, लाचारगी यकायक भू-धसान से पूरा का पूरा जीवित परिवार का भू-गर्भ में समा जाने की, लाचारगी ओपन कास्ट माइनिंग हेतु कामगारों द्वारा खुद को विस्फोट के हवाले हो जाने की।
भू-धसान ने पिता-पुत्र की ले ली जान
धनबाद क्षेत्र में स्थित इन खदानों के इर्द- गिर्द लोगों के दर्द को समझने के लिए दो उदाहरण हैं। 24 मई 2017 को झरिया के फुलारी बाग मोड़ पर पेशे से एक मैकेनिक बबलू खान चाय की अंतिम चुस्की लेते हुए अपने 10 वर्षीय पुत्र रहीम से सड़क के उस पार अपने गैरेज की ओर इशारे करते हुए आगे बढ़ने को कहता है और खुद चाय बेचने वाले से बातचीत करने में लग जाता है।
रहीम जैसे ही सड़क के बीचो बीच पहुंचता है, अचानक एक विस्फोटक आवाज़ होती है और देखते ही देखते विस्फोटक स्थान पर भू-धसान के कारण प्रकट हुए गड्ढे में रहीम समाता चला जाता है। स्थानीय लोग याद करते हुए बताते हैं कि किस तरह से सड़क के बीचो बीच विशाल गहरे गड्ढे की गिरफ्त जाते रहीम के ‘अब्बू अब्बू’ की आवाज़ पर बबलू अपने 10 वर्षीय पुत्र को बचाने के लिए छलांग लगा देता है लेकिन ज्यों-ज्यों उठे कदम ज़मीन की सतह तलाशते आगे बढ़ते हैं, त्यो-त्यों उसके पैरों के नीचे की धरती खिसकती चली जाती है।
पिता और पुत्र दोनों सैकड़ों फीट गहरी बन चुकी खाई में समा चुके थे, जहां से दोनों के शरीर को कभी बरामद नहीं किया जा सका। इस क्षेत्र में ज़मीन की सतह पर झरिया वासी निवास ज़रूर करते हैं लेकिन ज़मीन की सतह के नीचे का हिस्सा बिलकुल खोखला है। उसके नीचे जलते कोयलों का जीता-जागता अनचाहा तंदूर है जिसने बबलू खान और उनके पुत्र रहीम को मृत घोषित कर दिया गया।
सैकड़ों फिट गहराई में उन सुर्ख शोला बन चुके कोयले के बीच लाश तलाशने की ज़ुर्रत किसी में थी भी नहीं। इस क्षेत्र में यह कोई एक घटना नहीं है, इतिहास गवाह है कि भू-धसान में पूरा का पूरा ज़िंदा इंसान गायब हो जाना आम बात है।
तो JCF का यह दर्दनाक मुद्दा सिक्के का एक पहलू है, जबकि इसी क्षेत्र में ओपेन कास्ट माइनिंग के कारण 250 वर्ग कि.मी. में फैले JCF क्षेत्र वासियों का रहना या ओपेन कास्ट माइनिंग में कार्यरत लोगों का दर्द सिक्के का दूसरा पहलू है।
ब्लास्टिंग की चपेट में आने से श्रमिक धर्मदास महतो की मौत
12 सितम्बर 2019 को कतरास क्षेत्र में BCCL की वेस्ट मोदीडीह स्थित ओपन कास्ट माइनिंग हेतु ब्लास्टिंग की चपेट में आने से श्रमिक धर्मदास महतो की मृत्यु हो गई। विस्फोट इतना भयंकर था कि मज़दूर धर्मदास महतो का शरीर 100 फिट दूर जा गिरा और उसके शव के चिथड़े उड़ गए।
वहीं, आधा दर्जन से ज़्यादा मज़दूर गंभीर रूप से घायल हो गए। प्रत्यक्षदर्शी मज़दूरों के अनुसार खदान में कोयला तोड़ने के लिए बोर होल कर बारूद डालने के दाैरान अचानक विस्फोट हो गया।
तंदूर की तरह जल रहा है धनबाद ज़िले का झरिया क्षेत्र
झारखंड के बड़े शहरों में से एक झरिया, धनबाद ज़िले में स्थित है। भारत के सबसे बड़े कोयले के भंडार में से एक, झरिया कोयला क्षेत्र 100 वर्षों से अंदर ही तंदूर की तरह निर्विवाद रूप से सुलग रहा है। शहर और आस-पास के रिहाइशी इलाके एक सक्रिय ज्वालामुखी के शीर्ष मुख के इर्द-गिर्द बैठकर मानो अपने अनिश्चित भविष्य की प्रतीक्षा कर रहे हों। झरिया क्षेत्र में स्थित बोका पहाड़ी के लोगों से जब पूछ गया तो वे कहने लगे,
यहां का कुछ स्थान इतना गर्म है कि जूते पहन कर चलना भी असंभव है। यहां लगभग सभी लोग बीमार हैं। अधिकारियों ने ग्रामीणों से अपने घरों को छोड़ने और जाने के लिए कहा है लेकिन ज़्यादातर लोग आजीविका के नुकसान से डरते हैं, इसलिए मजबूरन रहना जारी रखते हैं।
वातावरण पर माइनिंग का दुष्प्रभाव
शोधकर्ता वरिंदर सैनी के अनुसार, ओपन कास्ट माइनिंग के कारण वातावरण पर माइनिंग के दुष्प्रभाव हेतु लंबे खनन इतिहास में अब यहां ओपन कास्ट माइनिंग की अधिक गहन गतिविधियों ने इन क्षेत्रों में चिंताजनक परिवर्तन लाए हैं, जिनमें हवा, पानी और मिट्टी में भीषण बदलाव ने पारिस्थितिक तंत्र को हिलाकर रख दिया है।
उनका कहना है कि इसी कारण कृषि योग्य भूमि में इस कदर नुकसान हुआ है कि सब्ज़ियों तक में आये अजीबो गरीब बदलाव ने यहां के लोगों को पूरी तरह से सब्ज़ी और अनाज-पानी हेतु दूसरी जगहों के उत्पादन पर पूर्णतः निर्भर कर दिया है।
वह कहते हैं, “ओपन कास्ट माइनिंग हेतु कोयले की लेयरों में की जा रही ब्लास्टिंड की वजह से वायु में कोयले के कण मौजूद हो गए हैं। इससे आस-पास बहती नदियों का पानी भी दूषित है। यही कारण है कि सांस की समस्याएं जैसे अस्थमा और ब्रोंकाइटिस आदि बीमारियों की गिरफ्त से यहां के लोग चाह कर भी निकल नहीं पा रहे हैं।”
वरिंदर सैनी कहते हैं, “एसिड रेन अब आम बात है, जिसके कारण इंफ्रास्ट्रक्चर, फसलों और वनस्पतियों को नुकसान पहुंच रहा है। यह बायोडायवर्सिटी के लिए खतरा क्यों नहीं? जल प्रदूषण की बात की जाये तो नदियों, झीलों और तालाबों में कोयले की खान से संबंधित अपशिष्ट भारी धातुकणों की मौजूदगी ने जल प्रदूषण की गिरफ्त में जा चुकी इंसानी जान पर शोध हेतु अनचाहा प्लेटफॉर्म दे दिया है।”
क्या कर रही है रघुवर सरकार?
लोग राष्ट्रपति स्वर्गीय ऐपीजे अब्दुल कलाम को याद करते हुए कहते हैं कि उनकी दया दृष्टि ने सुर्ख तंदूर हो रहे बोका पहाड़ी से प्रभावित लोगों को स्थानांतरण कर फ्लैट की सुविधा मुहैया कराई। कुछ लोगों को नया आशियाना मिला भी लेकिन कलाम साहब के कार्यकाल के बाद इस दिशा में और काम आगे बढ़ा ही नहीं। तो सवाल उठता है कि बाकी बचे लोगों का अब होगा क्या?
लोगों ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्थक पहल करते हुए भूमिगत आग से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों के स्थानांतरण हेतु तेज़ी लाने के लिए झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवरदास से आग्रह किया है। वहीं उस दौरान कोयला सचिव अनिल स्वरुप ने फरवरी 2015 दौरे के बाद बताया कि सरकार भूमिगत आग एवं भू-धसान पर बहुत गंभीर है। उन्होंने कहा कि यह बहुत बड़ा काम है लेकिन अच्छी खबर यह है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
बावजूद इसके केंद्र में मोदी सरकार पार्ट-2 का हनीमून पीरियड भी खत्म हो गया। वहीं, राज्य में रघुवर सरकार अपना कार्यकाल लगभग समाप्त कर चुकी है और नई सरकार भी जल्द दस्तक देगी लेकिन धनबाद क्षेत्र के इन पीड़ित माइनिंग वासियों की उम्मीदें आज भी पूर्व सरकारों के आश्वासनों के गोते लगा रही हैं और असहाय सा झरिया भी टकटकी लगाए निहार रहा है।
जानलेवा मज़दूरी के भरोसे क्षेत्र के लोग
सौ साल से भी अधिक समय से झरिया कोयला क्षेत्र भूमिगत जल रहा है। सच तो यह है कि लगभग 250 वर्ग कि.मी. में फैले इस क्षेत्र में रहने वाले लोग उस खतरनाक बम पर बैठे हैं, जो टिक-टिक करता कभी भी पूरे क्षेत्र को अंगार में तब्दील कर देगा।
इस क्षेत्र में अब क्षेत्रवासियों का अपना कुछ भी नहीं है। ना पीने का पानी और ना ही खाने के लिए अनाज, यदि है तो सिर्फ मज़दूरी जो कब किस तरह किसी के भी प्राण ले ले, कोई कह नहीं सकता।
इस क्षेत्र की हवाओं में इस कदर ज़हर घुल चुका है कि सांस लेने वाला हर कोई हर दिन घुट-घुटकर मर रहा है। तो सवाल वही है कि 5 लाख की आबादी वाला यह कोयलांचल क्षेत्र देशभर को अपने कोयले से उत्पन्न बिजली द्वारा उस चिराग की तरह रौशन कर रहा है, जिसके नीचे सिर्फ और सिर्फ अंधेरा है और इस अंधेरे की सुध लेने वाला राज्य से केंद्र तक कोई है क्यों नहीं?