इन दिनों हमेशा खबरों में शुमार रहने वाला JNU छात्र समुदाय दो दिनों से अपना नया छात्र नेतृत्व चुनने में मशरूफ है। JNU की लाल दिवारों की चौहद्दियों की फिज़ाओं में ढपली-नारों-गीतों की महफिल शराबोर हैं।
इन सबके बीच मेरी चिंता इसके पहले की एक घटना को लेकर है। कुछ दिन पहले JNU प्रशासन ने प्रोफेसर इमेरिटा प्रतिष्ठित इतिहासकार से उनका सीवी मांगी है, ताकि उनका यह मानद दर्जा बनाए रखने की समीक्षा की जा सके।
सामाजिक विज्ञान का कोई स्टूडेंट या शोधार्थी अगर प्रोफेसर रोमिला थापर को नहीं जानता हो तो उसको इसलिए माफ किया जा सकता है कि वह अभी स्टूडेंट या शोधार्थी है और अभी लिखने-पढ़ने और सीखने की प्रक्रिया में है।
पर वह JNU जहां रोमिला थापर अपने जीवन की 49 साल की सेवाएं दे चुकी हैं, उस विदुषी महिला के बारे में अगर JNU प्रशासन ही नहीं जानता, तो उस कुलपति के लिए डूब मरने वाली बात है। वह दूसरे विश्वविद्यालय नहीं, अपने यहां सेवा दे चुकी उस शिक्षाविद के बारे में कुछ नहीं जानता है, जो देश-विदेश में सम्मानित हस्ती हैं।

कौन हैं रोमिला थापर?
- 87 साल की रोमिला थापर प्राचीन भारतीय इतिहास की चर्चित प्रोफेसर हैं।
- अपनी किताबों को लेकर और सरकार के विरोध में बोलने के कारण अक्सर विवादों में भी रही हैं।
- ‘अशोक और मौर्य साम्राज्य का पतन’, ‘प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास’, ‘समकालीन परिप्रेक्ष्य में प्रारंभिक भारतीय इतिहास’, ‘भारत का इतिहास-खंड 1’ उनकी प्रसिद्ध किताबे हैं, वैसे यह सूची और भी लंबी हैं।
- 1970 से 1991 तक जेएनयू में, 1961-62 में कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में, 1963 से 1970 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे चुकी हैं।
- ब्राउन यूनिवर्सिटी, ऑक्सफोर्ड, एडिनबरा, शिकागो, कलकत्ता और श्रीलंका यूनिवर्सिटीज़ ऑनरेरी डॉक्टरेट, ऑनरेरी डिलीट की मानद उपाधियों से रोमिला सम्मानित हो चुकी हैं।
- ह्यूमैनिटीज़ के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य करने के लिए 2008 में 10 लाख डॉलर पुरस्कार राशि का क्लूग पुरस्कार मिला, जो अकेडमिक फील्ड के लिए नोबेल के समकक्ष माना जाता है।
- 2003 में वह लाइब्रेरी ऑफ कॉंग्रेस की क्लूग चेयर के लिए चुनी गईं। रोमिला को दो बार 1992 और 2005 में पद्म भूषण पुरस्कार के लिए चुना गया था लेकिन उन्होंने यह पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया।
क्या होता है इमेरिटस प्रोफेसर्स?
इमेरिटस प्रोफेसर्स किसी भी विश्वाविद्यालय का अवेतनिक परंतु सम्मानित पद है, जो शैक्षणिक क्षेत्र में व्यक्ति की उपलब्धियों के आधार पर दिया जाता है। इमेरिटस के दर्जे की सिफारिश संबंधित केंद्र करता है और इसके लिए सीवी की ज़रूरत नहीं होती है। यह परंपरा है कि इमेरिटस का दर्जा आजीवन होता है और कभी इसकी समीक्षा नहीं की जाती है।
मामले में JNU प्रशासन तर्क दे रहा है, वह यह है,
कार्यकारी समिति ने 23 अगस्त 2018 की अपनी बैठक में प्रोफेसर इमिरेटस के दर्जे के लिए मानकों में बदलाव किया था। प्रोफेसर रोमिला थापर को इसी का हवाला देकर रजिस्ट्रार ने पत्र भेजा है।
क्या JNU प्रशासन इतना भी नहीं जानता है कि किसी भी विश्वविद्यालय की नीतियों में बदलाव जिस तिथि को हुए हैं, उस तिथि से लागू होते हैं ना कि पहले की तिथि से। क्या कभी सुना है कि सरकार ने डीज़ल-पेट्रोल या रेल भाड़े में बढ़ोतरी या कटौती की और यह दो या पांच साल पहले से लागू होगा और जनता को पहले का भी बकाया चुकाना होगा।
- सवाल यह नहीं है कि JNU प्रशासन रोमिला को एग्जीक्यूटिव काउंसिल की ओर से अपनी सीवी जमा करने को कहा गया।
- सवाल यह भी नहीं है कि 26 साल से इमेरिटस प्रोफेसर्स रही रोमिला ने बायोडाटा जमा करने से मना कर दिया।
- सवाल यह भी नहीं है कि दुनियाभर की यूनिवर्सिटीज़ में क्या परंपरा है और वहां समीक्षा होती है या नहीं।
- सवाल यह है कि आप जिस नई परंपरा की दुहाई देते हुए प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अपमानित करने की कोशिश कर रहे हैं, उसका हासिल क्या है?
आज JNU प्रशासन खिलजी सरीखे प्रशासन की तरह ही व्यवहार कर रहा है, जिनका ज्ञान की किसी प्रक्रिया से कोई लेना-देना नहीं है, फिर चाहे वह धारा कोई भी हो। आप बस आप सत्ता के मद में ज्ञान का वैसा ही अपमान कर रहे हो, जैसे विष्णुगुप्त चाणक्य के साथ भरी राजसभा महाराज नंद ने किया गया था।
फर्क इतना है कि आज इस तरह की कोशिशों पर लोग आपको आईना दिखा रहे हैं। आप केवल अपनी इच्छा मात्र से ना ही नालंदा को आग के हवाले कर सकते हो ना ही किसी चाणक्य का भरी राज्य सभा में अपमान।
शिक्षा सचिव आर सुब्रमण्यम ने ट्वीट में कहा है,
जेएनयू में प्रोफेसर इमेरिटस के दर्जे को लेकर उठे विवाद पर मैंने वाइस चांसलर से चर्चा की है। किसी प्रोफेसर इमेरिटस को हटाने की कोई योजना नहीं है, खासकर सम्मानित शिक्षाविदों को। सिर्फ अध्याधेश के आदेशों का पालन किया जा रहा है।
ज़ाहिर है इस पूरे मामले में JNU प्रशासन जिस तरह के तर्क पेश करके स्वयं को दूध का धुला बताने की कोशिश कर रहा है, वह है नहीं। उनकी कार्य-योजना कुछ और है, जो सही तरीके से फीट नहीं हो पा रही है।
JNU प्रशासन को यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्वगुरु बनने की घुड़दौड़ में अपनी ही शिक्षाविद्दों को अपनानित करके वह मंज़िल तक पहुंचना तो दूर घुड़दौड़ में शामिल ही नहीं हो पाएंगे।
शिक्षाविद्द किसी भी विचारधारा के हो, सरकार का प्रशंसक हो या आलोचक हो, उसका होना ही ज़रूरी है, क्योंकि वह ज्ञान की उस परंपरा का पोषक हैं, जिसपर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य टिका है।
________________________________________________________________________________सोर्स- रोमिला थापर की किताब Aśoka and the decline of the Mauryas