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“ज़मीनी हकीकत से कोसों दूर है भारत को ओडीएफ बनाने का दावा”

फोटो साभार- Flickr

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भारत में महात्मा गाँधी के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूसरे व्यक्ति हैं, जिन्होंने जीवन में स्वच्छता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने “स्वच्छ भारत मिशन” को एक जन-आंदोलन में बदल दिया है, जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता है।

उन्हें इन प्रयासों के लिए बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की तरफ से एक अवॉर्ड भी मिला है और उसी हफ्ते मध्यप्रदेश के शिवपुरी में दो दलित बच्चों की पीट-पीटकर हत्या करने की भी खबर आई क्योंकि वे खुले में शौच कर रहे थे।

स्वच्छ भारत मिशन की दोतरफा तस्वीर

ये दोनों तस्वीरें या तस्वीरों के साथ फैलता शब्दों का युग्म हमारी अंधता की निशानदेही करता है, जो “स्वच्छ भारत मिशन” के तहत खुले में शौच मुक्त भारत के दावों की पोल तो खोलता ही है, साथ में यह भी बता देता है कि भारत में विशेष जातियों के खिलाफ अत्याचार के क्या हालात हैं? 

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- Twitter

खासकर तब, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गाँधी की 150वीं जन्मदिन पर 2 अक्टूबर को भारत को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया।। यह तस्वीर बयां करती है कि वंचित या दलित जातियों तक सरकार के प्रयास क्यों नहीं पहुंच पाते हैं? जबकि वह सरकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए पूरी तरह से उपयुक्त है। 

मीडिया रिपोर्ट्स में इस बात की चर्चा है कि मध्यप्रदेश के शिवपुरी में जिन बच्चों को मार-मारकर पीटा गया, उसके पिता ने पुलिस को बताया है कि उनके घर में शौचालय नहीं बनने दिया गया जबकि पंचायत में इसके लिए पैसा आया था। घर में शौचालय नहीं होने के कारण उनका परिवार बाहर शौच के लिए जाता है।

समस्या का राजनीतिक उत्सव आखिर कब तक?

यह तस्वीरे सच्चाई भी बता देती है कि जन्म के साथ जुड़ी हमारी अस्मिता का रचा हुआ सामाजिक व्यूह जहां एक तरफ घुटन देता है, तो वहीं दूसरी तरफ वह कठोर राजनीतिक यर्थाथ भी देता है। जिसपर राजनीतिक रोटियां सेंकना आसान है।

अभिशप्त जीवन के लिए ज़िम्मेदार हमारी सामाजिक सामंती व्यवस्था ने विधानसभा और संसद चलाकर खुद को बस राजनीतिक मुखौटे में पेश किया है, जिसने समस्या का समाधान भले ही नहीं किया है मगर समस्या के समाधान का राजनीतिक उत्सव ज़रूर बनाता रहा है और यह आगे कब तक जारी रहेगा यह एक यक्ष प्रश्न है।

पूर्वाग्रही मानसिकता से निकलना होगा

चंद घंटों बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शौच मुक्त भारत का सपना भारतीय जनता के सामने रखने वाले हैं। इस सपने के बारे में सोचता हूं तो मेरे ज़हन में बार-बार एक चीज़ आती है, वह है जातीय, वर्गीय और धार्मिक अवधारणा जैसे पूर्वाग्रही मानसिकता से निकले बगैर शौच मुक्त भारत के सपने को पूरा नहीं किया जा सकता है।

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सरकार के देने और जनता तक जन-सुविधा पहुंचने तक सरकारी महकमों में नौकरशाही, लेटलतीफी के साथ-साथ जनता के बीच में पूर्वाग्रही मानसिकताएं बड़ी दीवार हैं, जो जाति, धर्म, वर्ग, कमीशनखोरी, भष्ट्राचार और पता नहीं किन-किन बाधाओं से गुज़रती है।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि सरकार ने कुछ राज्यों को शौच मुक्त करने में सफलता पाई है परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि अभियान को सौ प्रतिशत सफल बनाने के लिए नौकरशाही ने आकड़ों में स्वयं को जितना सफल बताया है, ज़मीनी हालात उसके उलट हैं।

योजनाओं की सफलता और मोबाइल फोन की नीति

वास्तव में सरकारों को अपनी योजनाओं को सफल बनाने के लिए मोबाइल फोन के पहुंच वाली नीति अपनानी चाहिए। एक दशक पहले आया मोबाइल फोन कैसे आज कमोबेश हर घर या हर भारतीयों के जीवन का हिस्सा है, यह समझना चाहिए।

शौच मुक्त भारत के लिए भी सरकारों को मोबाइल कंपनियों के बाज़ार नीति का अनुसरण करना होगा जो जातीय, वर्गीय और धार्मिक हर समुदाय को सिर्फ अपना कस्टमर मानती है। एक बार अगर कस्टमर बाज़ार खड़ा हो गया, उसके बाद तो व्यक्ति किसी ना किसी मोबाइल सेवा से जुड़ा ही रहता है। 

मुझे याद आता है, केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान जब दूरसंचार मंत्री थे तब उन्होंने हर घर तक सरकारी दूरभाष पहुंचाने के लिए एक रुपया योजना की शुरुआत की थी, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली थी।

शौच मुक्त भारत के सपने को कामयाब बनाने के लिए इसको सबसे पहले जातीय, वर्गीय और धार्मिक सांचे से बाहर निकलकर सबों के लिए उपलब्ध कराने की नीति के बारे में सोचना ज़रूरी होगा, क्योंकि ज़मीनी हकीकत से कोसों दूर है भारत को ओडीएफ बनाने का दावा।

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