बिहार में बारिश ने तबाही मचा रखी है। शहर हो या गाँव सब जलमग्न होने के कगार पर हैं। सरकार क्या कर रही है, यह तो सरकार ही जाने लेकिन सोशल मीडिया पर यह मुद्दा अब गरम हो रहा है।
राष्ट्रीय मीडिया ने इस मुद्दे पर, पर्दा तो नहीं डाला है लेकिन सच्चाई यह भी है की वह सरकारी गति एवं अन्दाज़ में इस बाढ़ को कवर कर रही है।
बिहार का नाराज़ युवा
कल फेसबुक पर एक वीडियो देखा जिसमें एक बिहारी युवा इस बात से नाराज़ था कि जब केरल, उड़ीसा, मुंबई या किसी भी अन्य बड़े शहर में हो तो मीडिया एकदम प्राइम टाइम ख़बर बना देता है, लोग सहायता भेजते हैं, सरकार की नींदे हराम हो जाती हैं।
पर आज जब देश के दो बड़े राज्य बिहार एवं उत्तर प्रदेश पूर्णतः डूबने की कगार पर हैं, तब मीडिया एवं सरकार इस समस्या को कुछ ख़ास महत्व नहीं देती हुई नज़र आ रही हैं।
उस युवा ने पुनः याद भी दिलाया की बिहार कोई गरीब राज्य नहीं है। देश याद रखे कि बिहार प्रसाशनिक अधिकारियों, आईआईटी में जाने वाले छात्रों एवं अन्य अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक योगदान देने वाला राज्य है।
बिहारी समाज किस तरफ उन्मुख है?
कई बार अनुभव हुआ है कि जीवन की आध्यात्मिक सीख, विपस्ना या योग किसी कार्यक्रम में बैठ कर नहीं, बल्कि कठिनाईयों की चरम परिस्थितियों में मिलती है। आज जब बिहार कठिनाइयों से घिरा हुआ है, तब एक बिहारी होने के नाते कई प्रश्न मेरे ज़ेहन में आ रहे हैं।
सर्वाधिक ज्वलंत प्रश्न यही है कि तमाम बड़े एवं नामदार व्यक्तित्वों की धरती रहने वाला बिहार इतना बदनाम क्यों है? बड़े पदों पर रहने वाले बड़ा पैसा भी लेते हैं अर्थात इतने अमीर बिहारियों की जन्मभूमि बिहार इतनी निर्धन क्यों है? बिहार की धरती से आने वाले तमाम आईआईएम स्नातक बिहार को कितना व्यवसाय दे रहे हैं?
तमाम प्रशासनिक पदों पर आसीन वरिष्ठ पदाधिकारी गण, बिहार की कानून व्यवस्था को सुदृढ़ करने में क्या भूमिका निभा रहे हैं? बिहारी समाज किस तरफ उन्मुख है? स्वनिर्भरता की तरफ या सरकारी नौकरी की तरफ और क्यों?
युवाओं के सपने क्या हैं और वे किस प्रकार के भविष्य की तरफ इशारा कर रहे हैं? बिहारी अभिभावकों के अनुसार सम्पन्नता का फॉर्मूला क्या है? सरकार की नीतियां नागरिक आर्थिक सशक्तिकरण के मुद्दे पर किस तरफ इशारा कर रही हैं?
बिहार का बजट बहुत सरल
2018-19 के बिहार के बजट को अगर देखें तो एक सामान्य इंसान को भी यह स्पष्ट होगा की बिहार का बजट बहुत सरल है क्योंकि सरकार के पास बिक्री कर, भूमि कर एवं राज्य जीएसटी के बाद आय का कोई साधन नहीं है और शिक्षा, कृषि, ग्रामीण विकास एवं स्वास्थ्य के बाद खर्च करने का कोई बड़ा क्षेत्र नज़र नहीं आता है।
अर्थात सरकार की नीति स्पष्ट है कि बिहार में लोग क्षमता विकास के लिए पढ़ाई करें, स्वास्थ्य का खयाल रखें और समाज खेती को बढ़ावा दे। शिक्षा के क्षेत्र में बिहार ने पारम्परिक शिक्षा को बढ़ावा दिया है और तकनीकी शिक्षा धूमिल हुई है। शिक्षा प्रणाली एवं शैक्षणिक प्रक्रिया को मज़बूती प्रदान करने तथा नवाचार लाने हेतु, ज़रूरी आधारभूत संरचना की अनुपस्थिति, बजट के 18% आवंटन का सार्वजनिक उपहास करती नज़र आती है।
सरकार ने व्यावसायिक संस्थान शुरू कर दिए हैं, पर छात्र अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद क्या करेंगे यह उनके भाग्य पर निर्भर करता है। यह समस्या देश के सामने भी है, परंतु अंतर यह है कि केंद्रीय सरकार एवं अन्य राज्यों की सरकारों के द्वारा प्रयास स्पष्ट दिख रहे हैं लेकिन बिहार के विचार विमर्श में एमबीए के बाद भी बात सरकारी नौकरी पर आकर ही ख़त्म होती है।
फलस्वरूप आपको कई एमबीए किए हुए विद्यार्थी दिल्ली के मुखर्जी नगर में आईएएस की तैयारी करते हुए एवं एमबीए के दौरान सीखे हुए अधिकतर कौशल भूलते हुए नज़र आ सकते हैं।
दूसरी तरफ जिन युवाओं को शैक्षणिक एवं अन्य तंत्रों ने अप्रत्यक्ष रूप से शैक्षणिक प्रक्रिया से बाहर का रास्ता दिखाया, वे गाँवों एवं शहरों की राजनीति में अपने भविष्य को पुष्पित पल्लवित करने के ख्वाब देखते हैं। ऐसे लोगों की संख्या अत्याधिक है, जो बड़े नेताओं की चापलूसी के लिए उपयुक्त माहौल तैयार करती है।
बिहार का राजनीतिक परिदृश्य
बिहार के पिछले 40-50 वर्षों के राजनीतिक परिदृश्य को अगर देखें तो जयप्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन से निकले युवाओं के बाद ज़मीन से उठकर कोई युवा नेता राजनीतिक परिपेक्ष्य का केंद्र बिंदु बना हो ऐसा उदाहरण विरले ही मिलता है। बल्कि दूसरी तरफ गुंडागर्दी कर लोगों ने अप्रत्याशित राजनीतिक सफलता प्राप्त की है।
राजनीतिक परिवार के युवाओं को बड़े पदों पर नियुक्ति मिली है एवं प्रशांत किशोर जैसे पेशेवर राजनीतिक रणनीतिकार सीधे सत्तासीन पार्टी के उपाध्यक्ष पद पर नियुक्त किए जाते हैं। यही कहानी लगभग अन्य पार्टियों की भी है। ऐसे में यह एहसास लाज़मी है कि एक सामान्य बौद्धिक क्षमता वाले, नगण्य आर्थिक क्षमता वाले एवं ज़मीन से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ताओं का भविष्य क्या होगा?
परिणाम यह निकलता है कि एक लाचार शिक्षा व्यवस्था से शिक्षित होकर, आप उद्यमी ना बनकर, व्यवसायी ना बनकर, भ्रष्टाचार युक्त एवं असरहीन सरकारी सहायता के बल पर कृषि में अपना जीवन उत्थान ढूँढें, या फिर राजनीतिक नेताओं के पक्ष में नारे लगाते रहें।
इस परिस्थिति का एक पक्ष यह भी है कि बिहारी समाज शक्ति को प्राप्त करना तो चाहता है लेकिन शक्तिशाली पदों पर आसीन हो कर, ना की शक्ति का निर्माण कर। इसी वजह से बिहारी युवा अपनी शैक्षणिक दक्षता के बल पर राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर कब्ज़ा तो कर लेते हैं लेकिन उद्यमिता के क्षेत्र में, धनार्जन के क्षेत्र में बहुत पीछे छूट जाते है।
फिर एकदिन हमारी राजनीतिक शक्ति एवं प्रशासनिक शक्ति समाप्त होती है और हम अप्रासंगिक हो जाते हैं। उद्यमिता के आचरण का ना होना समाज के लिए एक अभिशाप से कम नहीं है क्योंकि इसकी अनुपस्थिति समाज में जीवंतता के लिए खतरा उत्पन्न करती है।
आज अधिकतर गैर-राजनीतिक धनाढ़्य जनता बिहार में अपने अचल एवं चल संपतियों को लेकर उतनी सुरक्षित महसूस नहीं करती कि वह उन्हें खुले मार्केट में निवेश कर पाए।
कानून व्यवस्था की विफलता
NCRB के अनुसार ज़मीन के झगड़े बिहार में होने वाली हत्याओं की सबसे बड़ी वजह हैं। ऊपरी तौर पर यह कानून व्यवस्था की विफलता लग सकती है लेकिन अगर हम इस चलन के पीछे की मानसिकता को समझें, तो यह प्रतीत होगा कि ऐसी कार्यवाही के पीछे किसी और के द्वारा अर्जित धन को हड़पकर समाज के अग्रिम पंक्ति में आने की सोच एक प्रमुख भूमिका में है।
इस पूरी स्थिति के अस्तित्व में बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की एक बहुत बड़ी भूमिका है। स्वास्थ्य व्यवस्था का पूर्ण संचालन बिहार सरकार का खुद करना वहां की CSR की अनुपस्थिति को भी रेखांकित करता है। यह सर्वविदित है कि आज भारत में, CSR निवेश के सबसे बडे क्षेत्र शिक्षा एवं स्वास्थ्य ही होते हैं।
बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था में नौकरी करने वाले लोगों की स्थिति शायद देश के किसी भी राज्य में ज़मीनी स्तर पर कार्य करने वाले कर्मचारियों से बद्तर है। सुदूर गाँवों में जाने हेतु यातायात की सुविधा नहीं है, स्वास्थ्य उपकेंद्रों पर कोई उपकरण नहीं हैं, कानून व्यवस्था की समस्या तो है ही, तदोपरांत 6 महीने तक सरकार उन्हें वेतन प्रदान नहीं कर पाती है और 6 महीने बाद जब उन्हें वेतन मिलना होता है, तब अधिकारी एवं क्लर्क उनसे 10% कमीशन भी चाहते हैं।
भारत के एक वित्तीय अखबार इक्नॉमिक टाइम्स ने कुछ दिन पहले एक खबर में यह स्पष्ट किया कि आधारभूत स्वास्थ्य ढांचे को सुदृढ़ करने हेतु केंद्र ने जो राशि राज्य सरकार को आवंटित की थी, बिहार सरकार उसका सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही खर्च कर पाई है।
सुदृढ़ आधारभूत संरचना की अनुपस्थिति में नागरिकों को सुविधा प्रदान करना असम्भव बात है। ऐसे में ज़ाहिर है कि एक नागरिक होने के कारण मुझे सरकार की नीतियों एवं कार्यशैली पर प्रश्न चिन्ह लगाने पड़ते हैं।
शक्तिशाली सेवाओं का हिस्सा है बिहार
बिहार शायद एकमात्र ऐसा राज्य है जिसके लगभग हर ज़िले का प्रतिनिधित्व अखिल भारतीय सेवाओं में हो रहा होगा। ऐसे में क्या यह मुनासिब नहीं की बिहार से नाता रखने वाले अधिकारी गण देश के संसाधन का उपयोग बिहार में धनार्जन के लिए करें।
पर किसी को भी निमंत्रित करने से पहले यह ज़रूरी है कि गंतव्य स्थान स्वागत के लिए तैयार हो, वहां शांति व्यवस्था हो, मानव संसाधन उपलब्ध, तैयार एवं इच्छुक हो। उस मानव संसाधन में धनार्जन की आकांक्षा हो, वह सपनों से लबरेज़ हो और सीखने को तैयार हो।
क्या हम ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं? क्या बिहार का युवा सरकारी नौकरी के आराम को छोड़कर, समस्याओं को अवसर में तब्दील करने का पुरुषार्थ कर पाएगा? क्या बिहारी समाज अपनी जनसंख्या का उपयोग खुद के आर्थिक विकास एवं सामाजिक समरसता हेतु कर पाएगा? क्या बिहार कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए, सरकार पर दबाव बनाते हुए, व्यक्तिगत स्तर पर खुद की आधारभूत व्यवस्था को सुदृढ़ कर पाएगा?
यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर की प्रकृति देश के प्रशासनिक संसाधन की राजधानी बिहार के भविष्य की रूप रेखा तैयार करेगी।