सुशासन बाबू की सरकार दावा करती है कि वे बिहार में शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के प्रयास कर रहे हैं। यहां शिक्षा से जुड़े कई मुद्दे और समस्याएं हैं लेकिन इनमें से सबसे बड़ी समस्या है ड्रॉप-आउट की।
सरकार कोशिशें तो बहुत कर रही है कि बच्चों में विद्यालय छोड़ने की प्रवृति कम हो लेकिन जो आंकड़ें सामने हैं वह काफी चौंकाने वाले हैं।
क्या कहते हैं आंकड़े?
एमएचआरडी 2014-15 के आंकड़ें बताते हैं कि देश के प्राथमिक विद्यालयों में सामान्य जाति के बच्चों के विद्यालय छोड़ने की तादाद 4.13% रही, जबकि अनुसूचित जाति के 4.46% बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया। वहीं अनुसूचित जनजाति के करीब 7 फीसदी बच्चों ने विद्यालय जाना छोड़ दिया है।
उच्च माध्यमिक विद्यालय में बच्चों के स्कूल छोड़ने की तादाद भी तकरीबन यही रही। सामान्य जाति के 4%, अनुसूचित जाति के 6% और अनुसूचित जनजाति के 9 फीसदी बच्चों ने विद्यालय जाना छोड़ दिया है।
इससे इतर उच्च विद्यालय को ड्रॉप करने वाले बच्चों की संख्या भी काफी चिंताजनक है क्योंकि सामान्य वर्ग के 17% बच्चों ने ड्रॉप किया, अनुसूचित जाति के 20% बच्चों ने, तो वहीं अनुसूचित जनजाति में यह तादाद काफी ज़्यादा है। तकरीबन 25 फीसदी बच्चों ने विद्यालय जाना छोड़ दिया है।
इसके पीछे की वजह को समझते हुए शिक्षा मामलों के जानकार बताते हैं कि सरकार उस तरह से किताब को डिज़ाइन नहीं कर पाई है जो बच्चों का रूझान किताबों के प्रति बढ़ा सके। यही कारण है कि सरकार के आंकड़ों के मुताबिक ड्रॉप करने वालों में 40% बच्चे पढ़ाई में दिलचस्पी ना होने की वजह से प्राथमिक विद्यालय जाना छोड़ देते हैं।
सरकार की तमाम कोशिशें नकारा
हाल के आंकड़ों पर गौर करें तो अब नामांकन में भी बच्चों की कमी आने लगी है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक साल 2011-12 में अनुसूचित जाति के कुल 2 लाख 87 हज़ार बच्चों ने नामांकन किया जो कि साल 2012-13 में घटकर 2 लाख 73 हज़ार हो गया और यह लगातार घटता ही रहा।
साल 2013-14 में 2 लाख 63 हज़ार, 2014-15 में दो लाख 60 हज़ार और 2015-16 में 2 लाख 57 हज़ार अनुसूचित जाति के बच्चों ने नामांकन किया और यही हाल अनुसूचित जनजाति के बच्चों का भी रहा है। आलम यह है कि साल 2011-12 में अनुसूचित जनजाति के कुल एक लाख 53 हज़ार बच्चों ने प्राथमिक विद्यालय में नामांकन कराया, जो कि साल 2015-16 आते-आते 1 लाख 37 हज़ार हो गया। यानी कि सरकार की तमाम कोशिशें नकारा साबित हो रही हैं।
निशुल्क शिक्षा प्रणाली
निशुल्क शिक्षा प्रणाली के नियमों द्वारा नए सत्र के शुरू होते ही 30 दिनों के भीतर बच्चों को सरकार के द्वारा किताबें मुहैया हो जानी चाहिए लेकिन आंकड़ों की माने तो इस पैमाने को बिहार पूरा नहीं कर पाया है। हालांकि लेट लतीफी की वजह से सरकार अब बिहार के सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के बैंक खाते में ही पुस्तक की धन राशि मुहैया करा रही है।
यहां बात यह है कि इस बात की क्या गारंटी है कि समय पर बच्चों के खाते में पैसा भेज दिया जाएगा और बच्चे किताब खरीद लेंगे। ऐसे ही एक छात्र की माँ आरती देवी बताती हैं,
सितंबर का महीना शुरू हो गया है लेकिन सारे बच्चे किताब नहीं खरीदे हैं। कुछ खरीदे हैं कुछ नहीं खरीदे हैं जबकि अप्रैल से ही सत्र प्रारंभ हो जाता है।
इन सारे तथ्यों से साफ ज़ाहिर होता है कि बिहार के बच्चे किस तरह की शिक्षा पद्धति के सहारे पढ़ने को मजबूर हैं। अगर प्रारंभिक विद्यालयों को सरकार अब तक चुस्त-दुरुस्त नहीं कर पाई है और बुनियादी सुविधाएं मुहैया नहीं करवा पाई है तो इसके पीछे सिर्फ राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है।
बरसों से पद हैं खाली
शिक्षा समाज का वह आईना है जिसमें देखकर समाज खुद को बदलता है। किसी विद्यालय में यदि एक वर्ष के लिए भी शिक्षक या प्रधानाध्यापक के पद रिक्त रह जाते हैं तो यह एक बचपन की पीढ़ी को खत्म कर देता है। फिर बिहार में तो बरसों-बरस से कई पद थोक में खाली पड़े रहते हैं और इसकी कोई सुध तक लेने वाला नहीं होता है।
चुनाव के वक्त ही सरकार इन खाली पदों को भरने की जुगत में लगी रहती है। वजह सीधे-सीधे वोटबैंक को कायम रखना है, जबकि होना यह चाहिए की सरकार को पद रिक्त होने के साथ-साथ नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी कर लेनी चाहिए। इससे शिक्षा का अस्तित्व बना रहता है और बच्चे मानसिक रूप से प्रभावित नहीं होते हैं।
शिक्षकों के वास्तविक काम ध्वस्त
बिहार में अभी भी ऐसे कई शिक्षक हैं जो व्यवस्था के लिए बोझ बने हुए हैं। ये वे शिक्षक हैं जो विद्यालय जाते तो हैं लेकिन समय व्यर्थ करके आते हैं क्योंकि उनकी दिलचस्पी पढ़ाने की बजाए सहयोगियों के साथ बातचीत करने और ठंड के मौसम में स्वेटर बुनने में होती है। यह बिहार के सरकारी विद्यालयों के लिए आम बात है।
सिर्फ शिक्षकों की सैलरी में वृद्धि से ही शिक्षा व्यवस्था ठीक नहीं होती है। सरकार को इसके साथ-साथ विद्यालय के बुनियादी ढ़ांचे पर भी गंभीर होकर कार्य करना होगा। बदलते दौर के साथ शिक्षकों को भी मानसिक रूप से अपडेट करना होगा ताकि उन्हें देश-दुनिया के बारे में उन्हें पता हो और वे बच्चों के साथ भी उस ज्ञान को साझा कर सके।
कागज़ी कामों, मध्याह्न भोजन आदि की देख-रेख और गुणा-भाग के लिए प्रधानाध्यापक की बजाय एक अलग पद ‘क्लर्क’ के तौर पर नियुक्त होना चाहिए जो इन सारी चीज़ों का लेखा-जोखा रखता रहे क्योंकि बिहार में अमूमन ही कोई शिक्षक ना पढ़ाने के आरोप में निलंबित होता है।
शिक्षकों से नॉन टीचिंग काम कराकर उनके वास्तविक कामों को ध्वस्त कर दिया जाता है। इस वजह से शिक्षकों का ध्यान पढ़ाने से ज़्यादा कागज़ी खानापूर्ति में लगा रहता है।