ग्रेटा से 27 साल पहले, पांच मिनट के लिए दुनिया को चुप कराने वाली लड़की ने भी कुछ कहा था। उसका नाम था सेवेर्न कलिस सुज़ुकी और हमने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया था। दरअसल, हम इंसानों की फितरत में है,जीवन से जुड़ी हुई महत्वपूर्ण बातों को नज़रअंदाज़ करना। उस समय सेवेर्न कलिस सुज़ुकी ने कहा था,
“आज यहां आकर मेरा कोई छिपा हुआ एजेंडा नहीं है। मैं अपने भविष्य के लिए लड़ रही हूं। मेरा भविष्य चुनाव हारने या शेयर बाज़ार पर बढ़ने या घटने वाले कुछ बिंदुओं की तरह नहीं है। यहां मैं आने वाली सभी पीढ़ियों के लिए बोल रही हूं। हम हर दिन लुप्त हो रहे जानवरों और पौधों के बारे में सुनते हैं, जो हमेशा के लिए लुप्त हो जाते हैं। क्या आपको मेरी उम्र के होने पर इन बातों की चिंता थी? यह सब हमारी आंखों के सामने हो रहा है और फिर भी हम ऐसा कार्य करते हैं जैसे हमारे पास हर समय और सभी समस्याओं का समाधान है। मैं केवल एक बच्ची हूं और मेरे पास सभी उपाय नहीं हैं, लेकिन मैं चाहती हूं कि आप इसे महसूस करें । यदि आप इसे ठीक करना नहीं जानते हैं, तो कृपया इसे बिखेरना बंद करें।”
इसे पढ़कर लगता है कि यह बातें किसी युवा की हैं जो कि जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित है लेकिन मैं आपको बता दूं कि ये शब्द 1992 में रियो अर्थ शिखर सम्मेलन में कनाडा की 12 वर्षीय सेवेर्न कलिस सुज़ुकी ने कही थीं।
काश तब सेवेर्न को सुन लिया होता
रियो अर्थ शिखर सम्मेलन में मार्मिक भाषण के बाद से सेवेर्न को “पांच मिनट के लिए दुनिया को चुप कराने वाली लड़की” के रूप में जाना जाने लगा। ज़रा सोचिए, अगर उस समय दुनिया ने उसके इन शब्दों पर अमल कर लिया होता तो विलुप्त हो चुके अनगिनत जीव-जंतुओं को जलवायु-प्रेरित प्राकृतिक आपदाओं से बचाया जा सकता था।
हम 1970 के दशक से गायब हो चुके 60 फीसदी जानवरों में से कुछ का जीवन बख्श सकते थे और एक लाख से अधिक प्रजातियां वापस आने की कगार पर आ गए होते। फिर इसके लिए हमें “पर्यावरण की चिंता” शब्द को गढ़ने की कभी जरूरत नहीं पड़ती।
वैसे भी आज के दौर में इस एक शब्द से स्थिति और अच्छे ढंग से समझी जा सकती है क्योंकि जलवायु और पारिस्थितिक संकट के प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं।
यदि समय रहते स्थिति में सुधार ना हुआ तो युवाओं को कभी भी भविष्य में तमाम ऐसे अवसरों पर भीख मांगने के लिए सड़कों पर नहीं उतरना पड़ेगा, जिसके लिए वे आज जद्दोजहद करते दिखाई देते हैं। फिर चाहे वह बुढ़ापे से मरने की बात ही क्यों ना हो क्योंकि बुढापे की नौबत आने से पहले वे जलवायु परिवर्तन से मर जाएंगे।
युद्धस्तर की तैयारी करनी होगी
9 जुलाई, 2017 को अमेरिकन जर्नलिस्ट डेविड वालेस वेल्स द्वारा प्रकाशित किताब ‘द अनइनहैबिटेबल अर्थ’ में एक न्यूयॉर्क पत्रिका का लेख है, जिसमें ग्लोबल वार्मिंग के कारण निकट भविष्य में होने वाले सबसे खराब स्थिति को दर्शाया गया है। किताब में बताया गया है कि जिन वर्षों के दौरान रियो शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ, तब की तुलना में आज अधिक कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में पंप किया गया है।
अब हमें 2020 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण की आवश्यकता है, जिसके लिए युद्ध जैसी गतिशीलता की आवश्यकता होगी। किसी नए जीवाश्म ईंधन अवसंरचना के निर्माण की ओर समर्पित होना पड़ेगा।
ग्रीन हाउस गैसों का प्रतिदिन उत्सर्जन बढ़ रहा है। आने वाले समय में हमें भीषण जलवायु-परिवर्तन के प्रभावों का सामना करना पड़ेगा। हमें सबसे खराब प्रभावों को कम करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि दोनों के उत्सर्जन को कम करने के संदर्भ में, हम प्रभावी जलवायु परिवर्तन से बचने की कोशिश कर सकें और संरचनाओं को प्रभावित करने में मदद कर सकें।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने नेताओं से 2020 तक अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions) को बढ़ाने के लिए ठोस, यथार्थवादी योजनाओं के साथ आने का आह्वान किया है। वह इस तथ्य के संदर्भ में कहते हैं,
2015 के पेरिस समझौते की सफलता के बावजूद, कई देशों के राष्ट्रीय-निर्धारित योगदान भले ही लागू हो गए हों, जो हमें 1.5 डिग्री की सीमा से नीचे लाने की बात करते हैं, परन्तु वर्तमान स्थिति में यह तीन डिग्री वार्मिंग से अधिक है। जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल (IPCC) के अनुसार,यह मानव और पारिस्थितिक कल्याण के लिए सबसे सुरक्षित स्तर है।
आज हम कार्रवाई करने और ज़मीनी स्तर से दबाव बनाने के लिए हम स्थानीय स्तर पर सशक्त महसूस करते हैं। एटोनियो गुटेरेस आज खुद स्टूडेंट्स की हड़तालों में अपनी उम्मीद देख रहे हैं। उन्हें आशा नज़र आ रही है कि इन हड़तालों से नेताओं पर दबाव बढ़ेगा और पर्यावरण आंदोलन सफल होंगे। यह वास्तव में सही भी है, जहां से हम भी आशान्वित हो सकते हैं।
खुद ज़िम्मेदारी लेनी होगी
हमारी जलवायु और पारिस्थितिक संकट को हल करने के लिए दुनिया भर के लाखों लोग जुटे हैं। अब लोग महसूस करने लगे हैं कि यह एक संक्रमण की तरह है। व्यक्तिगत समाधानों से परे हमें बुनियादी तौर पर जीवाश्म ईंधन-आधारित प्रणाली और उपभोग के मॉडल को बदलना होगा, जो हमें यहां मिला है, उसके बारे में सोचना होगा।
जलवायु परिवर्तन के कारणों से बचने के लिए जो प्रभावी रास्ते हम खोज रहे हैं, उनमें कोई ऐसा रास्ता ज़रूर होगा जो हमारे समाज के लिए सकारात्मक होगा। बदलाव की नीति लागू कर हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि संक्रमण यथासंभव सुरक्षित, न्यायसंगत और समावेशी हो।
संयुक्त राष्ट्र के शिखर सम्मेलन और ग्लोबल क्लाइमेट स्ट्राइक में कलिस-सुजुकी के शब्द सही भी हैं, वह कहती हैं,
स्कूल में आप हमें सिखाते हैं कि दुनिया में कैसे व्यवहार करें। आप हमें सिखाते हैं कि हम दूसरों के साथ झगड़ा ना करें, दूसरों का सम्मान करें, गंदगी ना करें, अन्य प्राणियों को चोट ना पहुंचाएं, खाने की वस्तुएं एक-दूसरे से साझा करें और लालची मत बनें, परन्तु इन सारी नैतिकताओं के बावजूद आप स्वयं इन दायरों से बाहर क्यों जाते हैं?
वह अपने भाषण में कहती हैं,
माता-पिता को यह कहकर अपने बच्चों को सांत्वना देने में सक्षम होना चाहिए कि, जो हो रहा है सब कुछ ठीक हो रहा है, यह दुनिया का अंत नहीं है और हम वह कर सकते हैं जो हर इंसान अपने भले के लिए करता है लेकिन मुझे नहीं लगता कि आप हमसे ऐसा कह सकते हैं। क्या हम आपकी प्राथमिकताओं की सूची में भी हैं?
27 साल पहले भी वही हाल था लेकिन आज और बुरा है। जब तक लोग हीरो खोजना बंद कर के खुद ज़िम्मेदारी नहीं लेंगे तब तक दुनिया बदलने वाली नहीं है।
आशा करते हैं कि इन गंभीर और भविष्य से जुड़ी समस्याओं को लेकर आज के युवा अपने लिए एक अग्रणी भविष्य को प्राथमिकता देंगें । ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के लिए यह आवश्यक है कि वह युवाओं से जानें कि वे जलवायु परिवर्तन के बारे में कैसा महसूस कर रहे हैं और उनके जवाबों को सिर्फ सुने नहीं बल्कि उन्हें अपने क्षेत्र में एक पर्यावरण समूह में शामिल होने या स्वयं एक समूह स्थापित करनें के लिए प्रेरित भी करें।
सभी लोगों को पर्यावरण को संरक्षित करने में अपनी सहभागिता देनी चाहिए, जिससे एक ना एक दिन हम इन समस्याओं को ज़रूर दूर कर पाएंगे। कहते हैं ना,
हारा वही जो लड़ा नहीं।