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“हिंदी से प्यार होने के दौरान मैंने हिंदी से क्षेत्रीय भाषाओं के खतरे को भी समझा”

यदि आपका जन्म बम्बई जैसे महानगर में हुआ है, तो हिंदी से आपकी मुलाकात बचपन में ही हो जाती है। जहां एक ही मोहल्ले में सैकड़ों भाषाओं के लोग रहते हैं, वहां हिंदी इन भाषाओं को एक माला में पिरोने वाला धागा बन जाती है।

स्कूल और कॉलेज में, बस और लोकल में, बाज़ार और मेलों में, हिंदी मेरे लिए उस ज़िद्दी लड़के के समान थी, जो माँ की साड़ी के पल्लू को पकड़े हमेशा उसका पीछा करती थी।

स्कूल में हिंदी में हमेशा अच्छे नंबर आते थे पर हिंदी के साथ मैंने कभी किसी प्रकार का लगाव नहीं महसूस किया पर पता नहीं क्यों, कॉलेज पहुंचने पर मैंने हिंदी साहित्य को माइनर विषय चुना। मेरे मित्र मेरे निर्णय से हैरान थे, मैं भी था। आज चार साल बाद, मुझे यकीन है कि वह मेरे जीवन के सबसे यशस्वी निर्णयों में से एक था। 

हमारी प्रोफेसर थी डॉ. आशा नैथानी-दायमा। दो वर्षों में उनकी छत्रछाया में हमारी 14 विद्यार्थियों की कक्षा ने हिंदी को अपना बना लिया। ‘रश्मि-रथी’ के पंचम सर्ग को पढ़कर रोते हुए, ‘काली आंधी’ में तानाशाही के परिणामों को देखते हुए, ‘आशाद का एक दिन’ में मल्लिका के ह्रदय की खूबसूरती को निहारते हुए, हिंदी से मुझे प्यार हो गया था। मुझे हिंदी बोलने की ‘तहज़ीब’ आ गयी थी। पल्लू के कोने से लिपटने वाले बच्चे को मैंने अपनी गोद में ले लिया था। 

प्रोफेसर आशा और अक्षय। फोटो सोर्स- अक्षय

कॉलेज का अंत हुआ तो लगा कि शायद वह गोद अब सूनी पड़ जाएगी पर नटखट हिंदी को यह स्वीकार नहीं था। मुझे लखनऊ में स्थित एक NGO में नौकरी मिल गयी और मैं पहुंच गया हिंदी की कर्मभूमि, उत्तर प्रदेश में।

हिंदी के कारण ध्वस्त हो रही हैं कई क्षेत्रीय भाषाएं

मैं सीतापुर के एक छोटे से गाँव में एक स्कूल चलाने लग गया। वहां के लोग अवधी बोलते थे। उनके जीवन को समझने के लिए उनकी भाषा को समझना बहुत महत्त्वपूर्ण था। अवधी सीखते-सीखते मेरी हिंदी और भी बेहतर हो गयी। मैंने यह भी जाना कि हिंदी के कारण ना जाने कितनी भाषाएं ध्वस्त हो गयी।

सरकार द्वारा हिंदी के महिमा मंडन से अवधी और भोजपुरी जैसी बोलियों का अस्तित्व आज खतरे में है। हम अक्सर हिंदी को अंग्रेज़ी से बचाने की बात करते हैं पर हमारी अन्य भाषाओं को हिंदी से कौन बचाएगा? 

अक्षय गॉंव की महिलाओं के साथ। फोटो सोर्स- अक्षय

आज यंग इंडिया फेलोशिप के अंतर्गत मैं राजीव गाँधी महिला विकास परियोजना के साथ जुड़ा हुआ हूं। उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों में हम युवा स्वयं सहायता समूह की लड़कियों के साथ जाति-धर्म, शादी और आकांक्षाओं से सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा करते हैं। आज से कुछ दिनों पहले मैंने बरेली के एक गाँव में ग्रामीण लड़कियों को नोटबंदी के परिणामों के बारे में बताया। लौटकर जब उस सत्र की रिकॉर्डिंग देख रहा था, तब एहसास हुआ कि हिंदी अब गोद में बैठा बालक नहीं, बल्कि कंधे से कन्धा मिलाने वाला साथी बन गया है। एक ऐसा साथी जिसकी छांव में सुकून भी हैऔर अपनापन भी। 

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नोट: इस लेख को दो साल पहले यंग इंडिया फैलोशिप प्रोग्राम में एक असाइनमेंट के रूप में लिखा गया था। मैं इसे हिंदी दिवस के अवसर पर साझा कर रहा हूं।

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