Site icon Youth Ki Awaaz

स्वादिष्ट आदिवासी व्यंजनों का केंद्र है रांची का आजम एम्बा रेस्टोरेंट

स्वादिष्ट व्यंजन का सेवन भारतीयों का शौक है, जहां हम पराठे-सब्ज़ियों, इडली-डोसा, समोसे, खाखरा, रसगुल्ला को काफी चाव से खाते हैं। हम आदिवासियों के स्वदेशी खाने से ज़्यादा वाकिफ नहीं हैं।

आदिवासी व्यंजनों को मुख्यधारणा से जोड़ने का काम कर रहा है, रांची के कांके में स्थित एक रेस्टोरेंट- आजम एम्बाआजम एम्बा’ कुरुक भाषा से उद्घृत शब्द है, जो ओराओं आदिवासियों द्वारा बोली जाती है। इसका हिंदी अर्थ “मज़ेदार स्वाद” होता है।

इस रेस्टोरेंट की स्थापना श्रीमती अरुणा तिर्की ने की है, जिन्होंने जेवियर समाज सेवा संस्था से ग्रामीण विकास में स्नातकोत्तर किया है। इनका उद्देश्य आदिवासी खाने की पहचान बनाए रखना और अन्य समाज के लोगों तक उसे पहुंचाना है रांची के कांके में स्थित यह रेस्टोरेंट चर्चित होकर काफी पर्यटकों को आकर्षित कर रहा है। 

अरुणा तिर्की अपन्ने रसोई में। फोटो सोर्स- gogetfunding.com

आजम एम्बा ने आदिवासियों के भोजन में साग और फूलों की महत्वपूर्णता को उजागर किया है-

आजम एम्बा की स्थापिका अरुणा तिर्की। फोटो सोर्स- gogetfunding.com

आदिवासी भोजन से जुड़ी कुछ खास बातें-

किसी भी संस्कृति की पहचान उनके जीने के तरीके से होती है। इसमें तौर-तरीके, रीति-रिवाज़, भाषा, वस्त्र-भूषण इत्यादि शामिल होते हैंखाना-पीना भी संस्कृति का एक अहम हिस्सा है, जो हमारे भूगोल, वातावरण एवं साधन से सुनिश्चित होता हैआदिवासियों के पारम्परिक भोजन के बारे में जानकर हम उनके इतिहास, पहचान और जीवन को बेहतर तरीके से जानेंगे।

मुख्यधारणा यह समझती है कि आदिवासी अस्भ्य लोग होते हैं, जो केवल जंगली जानवर और पौधे खाते हैं परन्तु हमारी संस्कृति विकसित होने के साथ-साथ बहुत सहज भी है।

आदिवासी भोजन की सिर्फ सामग्री में ही नहीं बल्कि इन्हें इकट्ठा, संरक्षित और पकाने में भी आदिवासियों की रीति और विचारधारा झलकती है। ये सारे साग और फूल ज़्यादातर जंगलों से इकट्ठा किए जाते हैं।

बेन्ग साग और सनई फूल के व्यंजन आदिवासियों में काफी लोकप्रिय है। फोटो सोर्स- gogetfunding.com

बेन्ग साग और सनई फूल के व्यंजन आदिवासियों में काफी लोकप्रिय हैं-

इनको सखुवा पेड़ के पत्तों से बने पत्तर में रखा जाता हैइन्हें ज़्यादातर चटनी या चावल की माड़ में पकाकर खाया जाता है। घटते जंगलों और विस्थापन के कारण आदिवासी अब अपने पारम्परिक भोजन से दूर हो रहे हैं, जो उन्हें पहले आसानी से प्राप्त थे। ये पोषक भोजन के अभाव में आदिवासियों का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। ज़्यादातर आदिवासी गरीब हैं, जो रोगों का इलाज अस्पताल में करने में असमर्थ हैं।

वहीं सखुवा पेड़ के कोई व्यावसायिक लाभ ना होने के कारण इन्हें संरक्षित नहीं किया जा रहा हैसखुवा पेड़ वर्षा जल को रोकता है और पारम्परिक टूथब्रश भी प्रदान करता हैवहीं जिस प्रकार से माड़ या चटनी आसानी से बन जाती है, इसलिए ये आदिवासियों खासकर महिलाओं का रसोई में काम आसान करती हैं साथ ही समय की भी बचत होती है। साथ-ही-साथ आदिवासी सभी सामग्रियों को पूरा इस्तेमाल करते हैं।

हमारे पारम्परिक व्यंजन अब लुप्त होते जा रहे हैं, क्योंकि बाज़ारी गतिविधियां और भूमंडलीकरण सभी संस्कृतियों के प्रमुख तत्त्वों को सामान्य बना रहे हैं, जहां अल्पसंख्यक या अलग होना मुश्किल हो रहा है। भारत जैसे विभिन्न देश के लिए समानता खतरा है। हरित क्रांति की सबसे बड़ी आलोचना थी कि उसने भांति-भांति प्रकार के ऊपज को समाप्त कर दिया, जो कि भारत के अलग-अलग प्रकार की भूमि, वर्षा और मौसम के अनुकूल नहीं थे। 

छोटानागपुर के पहाड़ और घने जंगल के कारण खेती में कठिनाई आती थी, जिस वजह से आदिवासी यहां चावल के अलावा अन्य फसल जैसे मडुवा और जोवर उगाते थे, जो अनुपजाऊ, पथरीले और कम वर्षा में भी भली-भांति पनप सकते थे।

मडुवा के तनों में नमी को कैद करने की इतनी शक्ति होती की सीमित पानी, अनियमित वर्षा और कठोर तापमान पर भी जी सकती है। जलवायु परिवर्तन जहां सब जगहों को बढ़ते तापमान से तड़पा रहा है, तो कहीं घटती वर्षा से तरसा रहा है, ऐसे समय में हमें पारम्परिक तकनीकों और खाने से फिर से मिलना ही होगा

मुझपर भरोसा कीजिए, आदिवासियों को खाना ना केवल जलवायु परिवर्तन का एक छोटा हल है, बल्कि हमारे व्यंजन को भी काफी सेहतमंद और स्वादिष्ट बनाता है। 

________________________________________________________________________________

लेखिका के बारे में: Deepti Mary Minj ने जेएनयू से डेवलपमेंट एंड लेबर स्टडीज़ में ग्रैजुएशन किया है। आदिवासी, महिला, डेवलपमेंट और राज्य नीतियों जैसे विषयों पर यह शोध और काम रही हैं। अपने खाली समय में यह Apocalypto और Gods Must be Crazy जैसी फिल्मों को देखना पसंद करती हैं। फिलहाल यह जयपाल सिंह मुंडा को पढ़ रही हैं।

Exit mobile version