ऐ चांद, यूं तो दीदार तेरा
हर रोज़ किया हम करते थे,
तेरे नूर की उपमा देते थे
उसको जिस पर हम मरते थे।
ऐ चांद, चांदनी बिन तेरे
इश्क-ए-इज़हार अधूरा है,
करवा चौथ का व्रत भी
तेरे दीदार से होता पूरा है।
ऐ चांद, बिन तेरे क्या कविता
क्या रस्म, गीत और क्या लोरी?
जुड़ गए हैं हम तुम ऐसे अब
जैसे कोई धागे की डोरी।
कवियों की पसंद तू पहली थी
गीतों का तुझसे ही रस था,
मगर दूर से देखा है तुझको
अब खेद हमें यही बस था।
हुस्न पर अपने किसी समय
तू बहुत इठलाया करता था,
“मुझको पाना आसान नहीं”
ऐसा दिखलाया करता था।
तो निकल पड़ा हिंदुस्तान
तेरा नूर-ए-दीदार करने को,
तुझको छूने की लालच से
अपार भी पार करने को।
दुनिया छोड़ दी थी मैंने और
काट हवाएं आया था,
धूरी पर तेरे हौले से
विक्रम पथ चल कर आया था।
सालों तक तरसा था तुझको
पा लेने को छू लेने को,
लालायित था मन तेरे
नूर के सागर का रस पीने को।
लाखों का सफर किया था तय
तेरे साथ में कुछ दिन जीने को।
देखा जब दूर नहीं है तू
मैं फूला नहीं समाता था,
झटपट छूने की तमन्ना से
आगे बढ़ता ही जाता था।
क्षण वह आया और देखा जब
तुझको इतना करीब अपने,
खोए होशो हवास मेरे
हो गए थे सच सारे सपने।
तेरी एक झलक ने ऐसा
जादू चला दिया मुझ पर।
तोड़े दुनिया से सब नाते
हो गया मैं तुझ पर न्यौछावर,
अब तुम ही हमसफर मेरे
तुमसे ही है जीवन मेरा।
मगर दुनिया तो मेरी जन्मभूमि
अस्तित्व मेरा परिवार मेरा,
तो ओ जादूगर चंदा जोड़ मेरा
फिर दुनिया से नाता ऐसा।
‘प्रज्ञान’ को अपने दिखला दो
कि चांद हमारा है कैसा।