26 जनवरी 1950 संविधान समानता का सिद्धांत स्थापित करता है तथा व्यवस्था में उस व्यक्ति की भागीदारी भी तय करता है, जो समाज के सबसे निचले पायदान पर है। समाज के उस अधिकांश वर्ग में खुशी की लहर थी कि वह भी शासन संचालन में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हुआ परंतु आज़ादी के 70 साल बाद भी लोकतंत्र एक प्रकार का राजतंत्र है।
यहां आज भी आर्थिक असमानता है, जो समुदाय के आधार और व्यवहार पर मानव जीवन को ज़रा भी महत्व नहीं देता दिखता है। मानव जीवन जहां अमूल्य है, वहां आज भी जाति, समुदाय, वर्ग और महिला जननांग पर नियंत्रण तथा उन सब में नागरिक का लोप होना अच्छे समाज की रूपरेखा निर्धारित नहीं करता है।
आज भी कागज़ी आज़ादी
आज़ादी के 70 साल से भी ज़्यादा हो चुके हैं और आज भी ग्रामीण भारत में हम महिला और पुरुष को एक साथ खुले में बात करने की कागज़ी आज़ादी देते हैं। यह समस्या और गहरी तब हो जाती है, जब एक उच्च वर्ग और एक समाज के सबसे निचले वर्ग से हो, विशेषकर महिला पक्ष अगर निचले वर्ग से हो तो ज़्यादा समस्या नहीं होती।
इसके साथ-साथ परिवार पर खतरा, आजीविका का लोप होना, महिला सदस्यों का जीवन मूल्य समाप्त होना और मानव विकास के समापन जैसी समस्याएं पैदा होती हैं, जो घर जलाने से लेकर समाज में झूठी शान को बनाए रखने तक का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
आज भी खून में वर्ग विशेष के व्यक्तियों के प्रति डर का भाव है, जिसे लोग सम्मान का नाम देते हैं परंतु वास्तव में वह डर ही तो है, जो व्यक्तियों को बिना किसी खास योग्यता प्राप्त किए समाज में एक प्रतिष्ठा प्रदान करता है।
इस डर में शामिल है तेज़ आवाज़ में उसके सामने नहीं बोल पाना, उसके गलत निर्णय को भी आंख मूंदकर स्वीकार कर लेना, कानून का शासन होने के बावजूद भी उसका सही से क्रियान्वयन नहीं होना तथा किसी खास के प्रति झुका हुआ होना।
वर्षों से उनकी एक आवाज़ सहने वाला परिवार उस जगह को छोड़कर एक अलग सांस्कृतिक माहौल में चला जाता है। जैसे- राजस्थान के किसी व्यक्ति को कोलकाता भेज दिया जाए या मानवीय मूल्यों को वर्ग विशेष के व्यक्ति के अनुरूप बदलना आदि।
सोशल मीडिया पर महिलाओं को अभिव्यक्ति की आज़ादी
सोशल मीडिया ने महिला जननांग पर नियंत्रण को कमज़ोर किया है। वह अपने जीवन से संबंधित वास्तविक पक्षों को अब बड़ी आसानी के साथ एक दूसरे से साझा कर सकती हैं। जहां महिला को बात करने से लेकर उसकी इच्छाओं के प्रत्येक स्तर पर प्रतिबंध थे, वहीं आज वह सोशल मीडिया के माध्यम से अलग-अलग समुदाय, वर्ग और जाति आदि से बात कर सकती हैं।
वह संसाधन जिससे किसी व्यक्ति का मानवीय विकास तथा जीवन स्तर को बिना किसी विशेष संघर्ष के आसानी से ऊपर उठाया जा सकता है।यह संसाधन दूर ना हो इसलिए महिला पर प्रतिबंध और कम व्यक्तिगत आज़ादी थोपे जाते हैं। संसाधनों का सनकेंद्रण ही तो ऑनर किलिंग आदि का मार्ग प्रशस्त करता है।
निचले तबके के लिए शासन व्यवस्था में जगह बनाना मुश्किल
आज भी कई राज्यों में उसी समुदाय के व्यक्तियों के हाथ में प्रशासन तथा कार्यपालिका के मुख्य किरदारों की बागडोर है, जो पूर्व में भी राज में थे और आज भी हैं। वह वर्ग जो आज संविधान के कानूनी प्रावधानों के माध्यम से थोड़ा ऊपर तो उठा है परंतु दूसरा वर्ग इनसे इतनी तेज़ी से ऊपर जा रहा है कि उनको प्रतिस्थापित करना इनके बस की बात नहीं है।
राज के साथ-साथ, बड़ी-बड़ी कंपनियां, होटलों, पर्यटन क्षेत्र और ज़मीनों आदि में वह आज भी समय से आगे है। शासन में विविधता नहीं होने से समाज के वर्गों में शासन के प्रति कभी भी अपने मन का भाव नज़र नहीं आया है।
आज भी यह कमज़ोर को और कमज़ोर करने का माध्यम प्रतीत होता है। जातीय मनोभावों का झूठी शान के साथ जुड़ना तथा व्यक्ति की गरिमा को सबसे निचले पायदान पर रखना, उस वक्त और भी रौद्र रूप धारण कर लेता है जब एक व्यक्ति समाज के निचले वर्ग से हो।
कमज़ोर वर्ग से शासन में बढ़ती भागीदारी को केवल आरक्षण के आधार पर देखना तथा व्यक्तिगत योग्यता से अधिक आरक्षण को कोसना भी इसमें शामिल है। आजा़दी के 70 वर्ष के स्थायित्व जीवन के पश्चात भी जीवन का कोई मूल्य नहीं मिलना तथा जातीय भेदभाव के माध्यम से मृत्यु दंड दे देना भी इनमें शामिल है।
निष्कर्ष क्या निकलता है?
व्यक्ति को विकास के केंद्र में रखकर उसके व्यक्तिगत गुणों के साथ भाईचारा। जैसे अमेरिका में ‘Black is Beautiful’ है, वैसे ही भारत में ‘Dalit is wonderful’ है का नारा देना होगा, जिससे इन वर्गों में ही उनके प्रति सम्मान का भाव पैदा हो जो आज सम्मानित हैं।
समाज विषमताओं का आधार ज़रूर रहा है मगर समय आज करवट बदल रहा है। पहले के दिनों में जिस तरह से चुपचाप दमन होता था, आज वहां सुगबुगाहट तो है।
आज वैचारिक क्रांति पैदा हो चुकी है, जिसने अंबेडकरवाद को पुनः जीवित किया है, जो स्वतंत्रता तथा समानता आधारित समाज की मांग करता है। आज का दलित नेतृत्व ब्रांडेड कपड़े, फोन और गाड़ी आदि के माध्यम से चलता है। वह किसी भी मामले में कम नहीं है, फिर भेद क्यों? नियति चलना है क्योंकि यहां तक आए हैं तो आगे भी जाना है और इस देश को बनाना है।
लेखक: मनोज और टीना कर्मवीर।