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रविदास मंदिर: “दलितों के विरोध प्रदर्शन को मीडिया ने प्रमुखता से क्यों नहीं दिखाया?”

भीम आर्मी

भीम आर्मी

मनुष्य की सभ्यताई इतिहास पर नज़र डालें तो किसी भी सभ्यता की स्थापना बिना प्रतीकों के नहीं हुई है। ईसाइयों ने चर्च बनाया, हिंदुओं ने मंदिर, मुसलमानों ने मस्जिद और सिखों ने गुरुद्वारा बनाया। इसी तरह रविदासियों ने सतगुरु रविदास गुरुद्वारा या मठ और मंदिर बनाए।

रविदास मठ, मंदिर या गुरुद्वारे से करोड़ों रविदास अनुयायियों का श्रद्धा और सामाजिक स्वाभिमान जुड़ा हुआ है। उस पर हमला करके वर्तमान केंद्र सरकार ने रविदास समाज के स्वाभिमान पर हमला किया है।

दिल्ली के तुगलकाबाद में स्थित सतगुरु रविदास मंदिर का इतिहास 600 साल पुराना है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जब डीडीए ने पुलिस की सहायता से तोड़ दिया, तब इसके विरोध में पूरे देश में प्रदर्शन हुए।

इन तमाम प्रदर्शनों में राष्ट्रीय मीडिया की भूमिका इन वंचित समाज के लोगों के प्रति अछूत व्यवहार वाला रहा है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि विरोध में उतरे हज़ारों दलितों के मसले को मीडिया ने प्रमुखता से कवर नहीं किया।

इतने बड़े विरोध प्रदर्शन को राष्ट्रीय मीडिया द्वारा बहिष्कार करना क्या मीडिया में बैठे ब्राह्मणवादी तत्वों की मानसिकता को उजागर नहीं करता? क्या यह मानकर चला जाए कि भारत के दलितों को वे आज भी हिन्दू नहीं मानते?

महारानी मीरा बाई भी रह चुकी हैं संत रविदास की अनुयाई

इन विरोध प्रदर्शनों में हमने देखा कि सभी जाति के लोग शामिल थे। आपको बता दें कि राजस्थान के बड़े राज घराने की महारानी मीरा बाई भी संत रविदास की अनुयाई थीं।

आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस दौर में दलितों के साथ किस प्रकार के अमानविय व्यवहार किए जाते थे। जब दलितों को कुंए से पानी नहीं पीने दिया जाता था, कमर में झाड़ू और गर्दन में मटका लगाया जाता था, उस दौर में संत रविदास की ऐसी कीर्ति स्थापित हुई कि राजा महाराजा भी उनके शिष्य हो गए।

सिखों ने संत रविदास को सम्मान देते हुए उनकी अमृतवाणी को अपने गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित किया लेकिन जिस सत्य सनातन धर्म के मूल तत्व को स्थापित करने का काम सतगुरु रविदास ने किया, उसी धर्म या धर्म के मुख्यधारा के लोग आज सतगुरु रविदास की याद में बनी ऐतिहासिक मंदिर को तोड़े जाने का अंदरूनी तौर पर समर्थन कर रहे हैं।

दलितों की सांस्कृतिक विरासत खतरे में

सत्ताधारी दल के नेताओं का बयान आ रहा है कि हम मंदिर बनाने के लिए अन्य जगह पर ज़मीन देंगे लेकिन प्रश्न उठता है कि जब एक ऐतिहासिक भूमि, जहां पर माना जाता है कि सतगुरु रविदास स्वयं आए थे, उस पवित्र स्थान को बदलने की क्या ज़रूरत थी? क्या सरकार को दलितों की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण का ख्याल नहीं?

फोटो साभार: Twitter

हमारे देश में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बना हुआ है, जिसका काम देश के ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित करना है। हम आपको पुनः बता दें, मैंने बिहार में देखा है कि 100 से 200 साल पुराने मकानों और मंदिरों को भी एएसआई द्वारा संरक्षण दिया गया है, तो प्रश्न उठता है कि सरकार ने देश के करोड़ों रविदास अनुयायियों के आस्था से जुड़े 600 वर्ष पुराने ऐतिहासिक और पुरातात्विक मंदिर का संरक्षण क्यों नहीं किया?

यह तमाम सवाल वर्तमान सरकार की मंशा पर है कि किस तरह से वह दलितों और उनसे जुड़े महापुरुषों के विरासत को कोर्ट के माध्यम से जमीदोज़ करना चाहती है।

क्या सरकार को यह मालूम नहीं है कि इन चीज़ों से देश में आंतरिक असुरक्षा की भावना उत्पन्न होगी और गृह युद्ध जैसे हालात सामने आएंगे। जब चीन और पाकिस्तान जैसे देश हमपर सुरक्षा की दृष्टिकोण से आंख गड़ाए हुए हैं, उस दौर में यदि हम आंतरिक असुरक्षा के हालात से गुज़रेंगे तो क्या यह राष्ट्रहित में होगा?

सवालों का जवाब केंद्र में बैठी वर्तमान सरकार और उन तमाम लोगों को देना चाहिए जो संत कबीर सतगुरु रविदास को हिंदू संत मानते हैं। उन लोग को भी जवाब देना चाहिए जो आए दिन धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं।

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