अनुच्छेद 370 पर ना जाने कितनी बहसें हुई हैं। भारत और उसके गणराज्य संबंधित संकल्पनाओं में एक दरार कहिए या एक सिलाई पैबंद कहिए, बहस के दोनों पक्षों का केंद्र यही रहता था।
दक्षिणपंथी राजनीति के भारतीय स्वरूप में स्वतंत्रता से लेकर आज के उत्कर्ष तक कश्मीर और 370 एक अहम मुद्दा रहा है। इसे गहराई से समझने पर हमें अंदाज़ा होगा कि भारत के तमाम राजनीतिक दल जितना ज़्यादा अनुच्छेद 370 और कश्मीर को लेकर मुखर रहते हैं, उतनी दिलचस्पी शायद अन्य मुद्दों पर नहीं होती है।
कश्मीर की चर्चा पूरे भारत को जोश से भर देती है और कश्मीरी जनता के स्थान पर पकिस्तान के प्रति एक हिंसा या कहें स्वभाविक बदले की भावना केंद्र में आ जाती है।
ऐसा क्यों है कि हम बांग्लादेश के प्रति इतना सघन और तीव्र प्रतिक्रिया से नहीं भरे, जबकि सांस्कृतिक और भाषीय सम्बन्ध में ‘ए पार बांग्ला ओ पार बांग्ला’ का रुदन और आन्दोलन हमारे इतिहास के पाठ्यक्रम में दर्ज़ है।
सत्ता के शिखर पर है भारतीयता का मर्दाना दबदबा
पाकिस्तान के कब्ज़े का कश्मीर और चीन के कब्ज़े की भूमि हमारे राष्ट्रीय अहं का वह चित्रण और वर्णन है, जो सामूहिक मानस में इस तरह से बैठा दिया गया है जैसे वह हमारी राष्ट्रीय धरोहर हो जिसे किसी भी हालत में बचाना ज़रूरी है।
यही काम पाकिस्तान की सरकार ने अपने जनमानस के लिए किया है और चीन की सरकार अपने नागरिकों के प्रति उत्तरदायी हो इसका कोई भ्रम हमें नहीं रखना चाहिए। तीनों देश आपस में उस मर्दाना महफिल के सत्ता को साबित करने पर तुले हैं, जो मध्यकाल में सामंती व्यवस्था की रीढ़ थी। भारतीयता का वही मर्दाना दबदबा आज सत्ता के शिखर पर है, जो चीन और पकिस्तान में बहुत पहले से सत्ता में है।
अनुच्छेद 370 को हटाना एक राष्ट्रीय आवश्यकता के तौर पर हम सभी को महसूस होती रही है। क्या हमने कभी यह जानने की कोशिश की है कि भारत के कितने राज्यों को भारतीय गणराज्य में शामिल करने के लिए तत्कालीन तौर पर क्या-क्या सहूलियत या शर्तें दी गई? क्यों दी गई? भारत के संविधान की खूबी यही है कि वह आपने आप में आपको कारण देता है कि आप उसे मानिए और इसी कारण हम सब अपनी स्थानीयता के साथ भारतीय बने हुए हैं।
साहसिक फैसले का समर्थन मगर प्रक्रिया का विरोध
अनुच्छेद 370 को हटाने का फैसला एक महत्वपूर्ण और साहसिक फैसला है, जिसके लिए हम सभी को सरकार की तारीफ और समर्थन में रहना चाहिए मगर समर्थन हटाने की प्रक्रिया का भी किया जाए ऐसा ज़रूरी नहीं।
लोकतंत्र का एक नागरिक यदि कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने की प्रक्रिया का समर्थन करेगा, संवैधानिक संस्थानिक लोकतंत्र के महत्व को रेखांकित नहीं करेगा तो वह नागरिक नहीं अपितु राजनीतिक अभिकर्ता (एजेंट) बन जाएगा और इसका परिणाम यह होगा कि हम संवैधानिक भावनाओं के स्थान पर भीड़ भावना से देश को संचालित करने को एक सही मार्ग मान बैठेंगे, जो ना केवल लोकतंत्र की मूल भावना से हटना होगा अपितु सरकार और नागरिक के अस्तित्व पर भी खतरा होगा।
कश्मीर की महिलाओं से वैवाहिक सम्बन्ध पर अश्लील टिप्पणी
कश्मीर से वैवाहिक सम्बन्ध की जिस लहज़े में चर्चा सामने आई है, वह दर्शाती है कि हम कितने पिछड़े हुए हैं। किसी ने सार्वजनिक तौर पर यह तो नहीं कहा कि मैं अपनी बहन-बेटी की शादी अब कश्मीरी लड़के से करूंगा लेकिन सोशल मीडिया पर कश्मीरी लड़कियों के लिए आपत्तिजनक टिप्पणियां ज़रूर की गई।
सोशल मीडिया का उन्माद वही मर्दाना उन्माद है, जो युद्ध के बाद महिलाओं को जीते हुए वस्तु की तरह वर्गीकृत करता है। क्या हम कश्मीर से युद्ध में थे? क्या कश्मीरियों से युद्ध में हैं? क्या 370 हटने के बाद हम कश्मीरियत को समझने की कोशिश करेंगे?
“बिहारी” का संबोधन अब भी हरियाणा और राजस्थान के लोगों के लिए सम्मान का संबोधन नहीं है। आपस में उन्हें एक दूसरे को नीचा दिखाना हो तो ‘बिहारी’ कहते हैं, महाराष्ट्र की राजनीति में भैया का संबोधन भी इसी श्रेणी में है, ऐसे ही कई क्षेत्रीय संबोधन तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से भरे हुए हैं।
हर धर्म, हर जाति, हर स्थान और हर भाषाओं के प्रति हम अपनी ही धारणाओं से भरे हुए हैं। बहती हवा उन्हीं धारणाओं को वैधता दे रही हैं। मैंने अपने बचपन से अब तक ना जाने कितने लोगों, बच्चों और बड़ों को अपनी जातीयता और स्थानीयता से कुंठित हो अपने मूल पहचान को छुपाते हुए देखा है।
राजनीतिक उन्माद की प्रतिक्रिया को झेलता कश्मीर
हम सभी अनजाने में अहं के मर्दाना महफिल में शोर मचाना शुरू कर देते हैं। हम आपस में कितने जुड़े हुए हैं, इसका आधार कोई कानून या धारा नहीं कर सकती। हम राजनीति से ऊपर उठकर एक देश वास्तविक अर्थ में तभी बनेंगे, जब एक दूसरे के पहचान का सम्मान करना सीख जाएंगे।
राम और काली, दुर्गा और भवानी के साथ शीतला माता और अन्ज्नेया के स्वरूप को समझने का प्रयास करिये। कोई नारा किसी और नारे से कमज़ोर, कोई स्थान किसी और स्थान से पवित्र, कोई धर्म किसी और धर्म से कट्टर और कोई संबोधन किसी और संबोधन से कम या ज़्यादा इसलिए हो जाता है, क्योंकि हम सब अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए कमज़ोर, अल्पमत और अल्पसंख्यक को छोड़कर मज़बूत प्रबल और बलशाली के पक्ष में अपना पक्ष तलाश लेते हैं।
कश्मीर एक राजनीतिक उन्माद की प्रतिक्रिया को झेल रहा है जिसमें चीन, भारत और पकिस्तान तीनों आपने मर्दाना उन्माद के आदिकालीन अहं को संतुष्ट कर रहे हैं।