सैकड़ों, हज़ारों लोगों के संघर्ष, त्याग और बलिदान के बाद गुलामी के बेड़ियों को तोड़ते हुए औपनिवेशिक शासन से मुक्ति को मज़बूत आधार देने का काम हमारे संविधान ने किया है। यह हर आम इंसान को एहसास करता है कि वह एक खुदमुख्तार मुल्क का आज़ाद ख्याल बाशिंदा हैं।
हमारे संविधान के आधार पर हमने माना कि स्वराज्य में हम इंसानों में भेद नहीं होगा, स्वतंत्रता होगी, समानता होगी, भाईचारा होगा और एक नया समाज बनेगा। देश के राजनीतिक विकास के लिए यह संविधान मील का पत्थर साबित हुआ है, इसमें कोई शक नहीं है।
संविधान क्या सामाजिक दासता से मुक्ति देने में सक्षम है?
देश में और हर प्रांत में एक निश्चित समय सीमा के बाद चुनाव होते हैं, लोग मतदान करके अपने पसंद की सरकार को चुनते हैं और सरकारें राज्य और देश के विकास के लिए नीतियां बनाती है।
पर क्या यही संविधान, देश या राज्य में अपने लोगों को सामाजिक दासताओं से मुक्ति दिलाने में सफल रहा है? अपनी तमाम प्रतिबद्धताओं के बाद यह एक यक्ष प्रश्न है। अगर यह सफल हो गया होता तो
- उन्नाव की पीड़िता, न्याय पाने के लिए वेंटीलेटर पर, एम्स में अपनी सांसे नहीं गिन रही होती,
- साक्षी मिश्रा को अपने पसंद के लड़के से शादी के बाद अदालत और मीडिया की शरण में नहीं आना पड़ता।
- रोहित वेमुला को अपने सपने को पूरा करने के लिए स्वयं को फांसी देने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता।
- घर और बाहर दोनों ही जगहों पर सुरक्षा के लिए महिलाओं को चिंता नहीं करनी पड़ती।
- अपनी जाति, धर्म, लिंग, वर्ग और सांस्कृतिक अस्मिता के कारण किसी भी आम भारतीय को शोषित नहीं होना पड़ता।
समाज अपने आप में इतना समावेशी हो चुका होता कि वह अपने विचारों के साथ-साथ दूसरे किसी भी विचार के साथ सहज और संतुलित होता।
संवैधानिक अधिकार हाशिये पर सिसक रहे हैं
संवैधानिक लोकतंत्र समाज के अंदर लोकतांत्रिक व्यवहारों को स्थापित नहीं कर सका है इसलिए वक्त-बे-वक्त अस्मितामूलक शोषण की घटनाएं होती रहती हैं।
कुछ हफ्तों पहले देश के प्रतिष्ठित अस्पताल में रक्तदान करने से पहले मुझसे मेरी जाति पूछी गई जबकि रक्तदान के लिए भरे जा रहे फॉर्म में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं था। जब मैंने इसका कारण पूछा तो मुझे बताया गया जिनको रक्त चाहिए यह उनकी प्राथमिकता है हमारी नहीं। इस बात से यह साफ है कि हम सामाजिक लोकतंत्र को ज़मीन पर उतारने में अफसल सिद्ध हुए हैं। तभी तो किसी के लिए, रक्तदान तक में रक्त शुद्धता का ख्याल ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
आज यह हाल है कि तमाम संवैधानिक अधिकार हाशिये पर सिसक रहे हैं क्योंकि कोई कुछ भी करने के लिए स्वच्छंद है। सामाजिक दासता से मुक्ति के लिए स्वच्छंदता नहीं मिल रही है, उसको बनाये रखने की आज़ादी ज़रूर कायम है। एक तरफ हम चांद पर जा रहे हैं, दूसरी तरफ जाति-धर्म-लिंग में फंसे हुए हैं।
सवाल यह है कि चांद पर झंडा फहराते हुए हम इन्सानों के दिल तक कैसे पहुंचें? चांद की सतह पर पानी की खबर तो लुभाती है पर हमारे नलके में भी तो पानी आये। इन हालातों को आज़ादी के मायने के साथ कैसे जोड़ें?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए है कि जब हम आज़ादी के दासता से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे उस दौर में भी सामाजिक और राजनीतिक आज़ादी को लेकर एक संघर्ष चल रहा है। 15 अगस्त 1947 को हमने औपनिवेशिक सत्ता से राजनीतिक आजादी पाई थी। सामाजिक दास्ता से मुक्ति के लिए 26 जनवरी 1950 को प्रस्तावित संविधान ने सामाजिक दास्ता से मुक्ति की आधारशिला रखी थी जो मानवीय मुक्ति की वकालत तो करता है,पर वो अभी तक भीड़ के अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच सका है।
जनतंत्र में राजैनिक समानता के संघर्ष
संविधान की प्रस्तावना में “हम भारत के लोग” की सैद्धांतिक घोषणा के शुरुआती वर्षों के बाद से, भारतीय जनतंत्र में राजैनिक समानता के संघर्ष से उपजे तनावों ने, क्षेत्रवार तरीके से नए राजनीतिक दल ज़रूर बना दिए हैं। यह दल इस जयघोष के साथ आगे बढ़ते हैं कि मतदाताओं की आकांक्षाओं को एक केन्द्रीय सोच से नहीं हांका जा सकता है।
एक के बाद एक विकास का स्वप्न दिखाते हुए मॉडल आते गए परंतु सामाजिक असमानता को केंद्र से उखाड़ नहीं सके। हिलाया और झकझोरा ज़रूर इसमें कोई दो राय नहीं हैं।
गोया, हम ज़रूर भीड़ में बदल गए हैं जिसकी भावनाओं का राजनीतिक तुष्टीकरण करके हमकों खेमें में बांटा जा चुका है। आज़ादी की वास्तविक आत्मा को बचाने के लिए हमको पहले लोकतांत्रिक होना होगा, जो आज़ादी के इतने सालों के बाद भी हम नहीं हुए हैं, भले ही हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के निवासी हो।
हम स्वयं को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र कहते हैं पर दूसरे धर्म के लोगों को भीड़ के दम पर “जय श्रीराम” बोलने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
आज़ाद भारत के निर्माण में महात्मा गांधी एक सर्वमान्य नेता नहीं थे। कई लोगों ने अलग-अलग तरीकों से प्रयास किए जिनमें मतभिन्नता थी। गोया, गांधी ने अपने स्वराज की महत्वकांक्षा को “हिंद स्वराज” में स्पष्ट कर दिया था। वह कैसा स्वराज चाहते थे?
देश और मानवीय विकास
आज़ादी के बाद देश के संचालकों ने देश के विकास के लिए जो राह चुनी वो मानवीय विकास के कोसों दूर खड़ा था और आज तक वही हो रहा है। चूंकि हर विकास के फॉर्मूले में अपनी क्षमता होती ही है इसलिए व्यक्तियों के परिश्रम और इच्छाशक्ति से हमने भौतिक विकास के किले पर फतह पा ली है, पर सामाजिक विकास वही का वहीं खड़ा है। इसका परिणाम है कि किसी भी क्षेत्र में किसी के सफलता दर्ज करने के बाद गूगल पर उसकी जाति जानने का सर्च अचानक बढ़ जाता है।
निसंदेह किसी की सफलता उसके समाज के लिए एक रोल मॉडल हो सकता है, पर उसकी मेहनत की जगह पर उसकी जाति को तरजीह देना कहां तक उचित है? ये चीज़ें बताती हैं कि हर क्षेत्र में काम कर रहे लोगों में कोई न कोई पूर्वाग्रह है जो सफलता के रास्ते में बाधक है।
विकास के तमाम मॉडलों ने जहां पहुंचा दिया है वहां समाजिकता ही नहीं, समूचा पर्यावरण ही मनुष्य के उच्छृंखल व्यवहारों से ग्रस्त है। सवाल यहां तक है कि दुनिया बचेगी भी या नहीं?
अनियंत्रित भोगवाद, अमानवीयता, हिंसा से लेकर आज़ादी के मायने, हर स्तर पर बदलने के लिए ज़िम्मेदार हैं। आज़ादी के सौ वर्षों की दलहीज़ पर पहुंचकर सामाजिक समानता को स्थापित करने के लिए संकल्पबद्ध होना होगा क्योंकि इसके अभाव में देश एक बड़ी समूह की अवहेलना कर रहा है, जो अपनी क्षमता और प्रतिभा से अपना ही नहीं देश का नाम भी बुलंद कर सकता है।
लोकतांत्रिक मूल्यों को समाज में स्थापित करके सफलता के कई कीर्तिमान लिखे जा सकते हैx।