‘मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक 2019’, जिसे मुस्लिम महिलाओं के मुस्तकबिल का ऐतिहासिक बिल कहा जा रहा है। यहां तक तो सही है कि सात बिंदुओं पर आधारित इस बिल में किसी भी तरह से यानि एसएमएस, खत, ईमेल या तीन तलाक बोलने भर से तलाक नहीं माना जाएगा, इसको बोलने से तीन साल की गैर-ज़मानती सज़ा कायम है।
बिल इस बात की तसदीक ज़रूर करता है कि औरत को अपने पति से अपने और बच्चों के खर्च लेने का अधिकार होगा लेकिन जब पति गैर-ज़मानती सज़ायाफ्ता है, तो औरत खर्च कहां से लाएगी? सरकार ने भी उसे संरक्षण देने से हाथ खड़े कर रखे हैं फिर विधेयक जब उस औरत और उसके परिवार को संरक्षण ही नहीं दे रहा है, तो इस बिल का नाम संरक्षण क्यों है?
मौजूदा कानून का हाले बयां यह है कि ना ही तलाक हुआ ना विलासे सनम, मियां को जेल हुई, बेगम का निकला दम। बिल में सुलह-समझौते और मध्यस्थता की गुंज़ाइश कोर्ट के स्तर पर है, थाने के स्तर पर नहीं। इसका अंजाम यह होने को है कि पति जमानत के लिए वकील और कोर्ट के चक्कर लगाए और पत्नी भरण-पोषण के लिए भटकेगी।
इन प्रावधानों के बगैर नहीं है ‘तीन तलाक बिल’ लाभकारी
मौजूदा विधेयक, जो कुछ दिनों में कानून की शक्ल लेने वाला है, उसे ध्यान से पढ़ेंगे तो लगेगा कि सरकार के पास भी एक बड़ा कैनवास वाला समझ का दायरा नहीं रहा है। हिंदू धर्म ने खुद तलाक की व्यवस्था 19वीं सदी के मध्य में कायम की जिसके लिए पढ़ी-लिखी भद्र कही जाने वाली महिलाओं ने लंबा संघर्ष तक किया।
बहरहाल, बिल पर सुझाव था कि पति की गैर-मौजूदगी में (चूंकि वह गैर-ज़मानती जेल सज़ायाफ्ता है) पति के परिवार का कोई भी सदस्य या रिश्तेदार महिला को घर से बेदखल ना कर सके, यह प्रावधान बिल में दर्ज़ हो। साथ ही साथ, जो शादीशुदा पति बिना तलाक के अपनी पत्नी के खर्चे उठाए बगैर उन्हें छोड़कर गायब रहते हैं, उन्हें भी इस बिल के दायरे में लाया जाए। इन प्रावधानों को जोड़े बिना यह बिल औरतों को किसी प्रकार से लाभ नहीं पहुंचाने जा रहा है।
अगर सचमुच सरकार मुस्लिम महिलाओं को सामाजिक सशक्तिकरण प्रदान करना चाहती है, तो इस बिल के साथ इन सुझावों पर गौर फरमाना चाहिए था, जिसपर कोई बातचीत नहीं दिखती है।
- पहला, सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश के अनुसार पूरे देश और सभी राज्यों में औरतों की सुरक्षा के लिए पहले विवाह का पंजीकरण अनिवार्य हो और तलाक के पंजीकरण को भी अनिवार्य बनाया जाए।
- दूसरा, पंजीकरण को सभी सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाए। ऐसा ना करने वाले को किसी योजना का लाभ ना मिले। विदेश जाने तक की इजाज़त ना दी जाए।
- तीसरा, निकाहनामें में तलाक-ए-बिद्धत से तलाक नहीं हो सकता, इसका अनिवार्य प्रावधान किया जाए। तलाक-ए-बिद्धत को घरेलू हिंसा अधिनियम में शामिल करते हुए मजिस्ट्रेट को पावर दिया जाए।
- चौथा, दंपति का मजिस्ट्रेस के आदेश का पालन नहीं करने पर कार्रवाई का प्रावधान हो।
- पांचवा, 1939 मुस्लिम विवाह विच्छेदन कानून में तालाक-ए-बिद्दत शामिल हो। ‘धारा 498’ में तीन तलाक जैसी क्रूरता को शामिल किया जाए। तीन तलाक देने पर पति के लिए मीडिएशन अनिवार्य किया जाए। थानों में मीडिएशन के लिए प्रशिक्षित काउंसलर हो और इन सारी सुविधाओं को गाँवों तक पहुचाया जाए।
किसी भी पार्टी की सरकार को महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर कानूनों को बनाने से पहले यह ज़रूर सोचना चाहिए कि महिलाओं के लिए पहले से जो भी कानून मौजूद हैं, उनके बाद भी महिलाओं को उनसे संरक्षण क्यों नहीं मिल पा रहा है? सती एक्ट होने के बाद भी सती जैसी घटनाएं सुनने में आती हैं, बाल विवाह अधिनियम होने के बाद भी हर साल हज़ारों बाल विवाह हो रहे हैं, दहेज के खिलाफ कानून होने के बाद भी यह अब समाज में इस तरह स्वीकार्य हो चुका है कि उसकी शिकायत ही नहीं होती है।
मौजूदा सरकार की भी ज़िम्मेदारी थी कि वह तीन तलाक पर आ रहे सुझावों पर ध्यान देते हुए उन्हें कानून में शामिल करके मुस्लिम महिलाओं को न्याय देकर मौलवियों और विरोध करने वालों का ज़ुबान बंद कर देता। अभी जो विधेयक कानून की शक्ल लेने जा रहा है, वह एक फरेब है, जिसको दिल तस्लीम नहीं कर पा रहा है।