आज़ादी एक ऐसा शब्द है, जिसके हर समयकाल और हर जगह के लिए अलग-अलग मतलब हैं। सन् 1947 से पहले अगर कोई आज़ादी का नारा लगाए तो देशभक्त होता था लेकिन अब कोई आज़ादी के नारे लगाए तो, वह देशद्रोही हो जाता है। अगर एक पार्टी काँग्रेस से आज़ादी के नारे लगाए, तो वह देश का भला चाहती है और अगर साधारण जनता आज़ादी के नारे लगाए तो वह देश विरोधी हो जाती है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हमें इतनी भी आज़ादी नहीं कि हम अपने लिए आज़ादी की मांग कर सकें। वैसे भी इतिहास गवाह है कि आज़ादी मिलती नहीं है, उसे छीननी पड़ती है। राज्य यह नहीं चाहता कि उनकी जनता को आज़ादी मिले। आज़ादी की मांग ही राज्य और जनता के बीच संघर्ष का मुख्य कारण होता है। राज्य जनता से यह आशा तो करता है कि वह अपने देश के प्रति कर्तव्यों का पालन करे लेकिन उसी जनता को उसके अधिकारों से वंचित करने में राज्य बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाता है।
आज़ादी कोई भीख नहीं है, यह जनता का अधिकार है
जिसकी गारंटी राज्य को हर हाल में सुनिश्चित करनी चाहिए लेकिन राज्य यह करना नहीं चाहता है। राज्य का अधिकार है जनता को मूलभूत अधिकार मुहैया करवाना। उसी में से एक है विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार। इस स्वतंत्रता को पिछले कुछ सालों में कितना कुचला गया है वह तो जगज़ाहिर है।
गरीबी से आज़ादी, भुखमरी से आज़ादी, पूंजीवाद से आज़ादी जैसे नारों का अगर कोई मज़ाक उड़ाता है या इन्हें देशद्रोही नारे कहता है तो दरअसल वह देश की आज़ादी के संघर्षों का मज़ाक उड़ा रहा होता है। हम 200 साल तक साम्राज्यवादी इंग्लैंड के गुलाम रहे। यह सच है कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का विकसित स्वरूप है। जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को नए बाज़ारों को आवश्यकता होती है तब ही उपनिवेश स्थापित किए जाते हैं और अन्य देशों को गुलाम बनाया जाता है।
लोकतंत्र में सारी शक्ति जनता में निहित होती है लेकिन एक राज्य के भविष्य और उसके अस्तित्व का निर्णय कर दिया जाता है बिना उसके और उसकी जनता की राय जाने बिना। उसकी शक्तियां, अधिकार और आज़ादी केंद्र हड़प लेता है। अब उस राज्य के निवासियों के पास एक ही अधिकार बचता है, विरोध प्रदर्शन करने का। उनके पास इसी की आज़ादी बचती है लेकिन उनसे इसकी भी आज़ादी छीनी जा रही है। उनपर पैलेट गन चलाकर अंधा किया जा रहा है।
क्या हम आज़ाद हैं?
कविता कृष्णन और उनकी टीम जम्मू कश्मीर के दौरे पर गई थी। उनके पास कुछ वीडियो और तस्वीरें थीं, जिनसे जम्मू कश्मीर के हालात सामने आ सकते थे। जिनको वह 14 अगस्त को प्रेस क्लब में लोगों के समक्ष पेश करने वाली थीं लेकिन प्रेस क्लब ने इसपर रोक लगा दी। स्वतंत्रता दिवस से मात्र एक दिन पहले। क्या अब भी हमें लगता है कि हम स्वतंत्र हैं, हम अब भी आज़ाद हैं?
क्या वह खून व्यर्थ गया, जो आज़ादी की लड़ाई में बहा था? जहां राष्ट्रवाद है वहां लोगों की आज़ादी का हनन होना स्वाभाविक है। राष्ट्रवाद लोगों में भेदभाव पैदा करता है। जैसा कि मैंने अपने पिछले लेख में भी लिखा है कि राष्ट्रवाद एक सांप्रदायिक भावना है और हमें इस वर्ष आज़ादी के जश्न पर इसी राष्ट्रवाद की भावना से खुद को आज़ाद करना चाहिए। क्योंकि राष्ट्रवाद के इस युग में आज़ादी एक भ्रम है।