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मैं आपकी स्टीरियोटाइप जैसी नहीं फिर भी आदिवासी हूं

अगर आप आदिवासियों के बारे में सोचते हैं तो क्या ख्याल आता है? आधे नंगे, डरावने, जंगल  में रहने वाले, असभ्य लोग। कम से कम स्कूल की किताबों से मैंने जो सीखा है, उनमें तो उनका ज़िक्र कुछ इसी तरह किया गया है। लोगों की भी यही धारणा है कि आदिवासी वे लोग होते हैं जो जाति या गांव से बाहर रहते हैं। गुप्ता और मुगलों के ज़िक्र से लदी इतिहास की किताबों में आदिवासियों की पहचान इतनी ही थी कि वे पिछड़े और बीते ज़माने में जीते थे।

मेरी सच्चाई यह है कि मैं तो आदिवासी होने के बावजूद शहर में रहती हूं, अंग्रेजी स्कूल्स और विश्वविद्यालयों में पढ़ी हूं, टेलीफोन और इंटरनेट का इस्तेमाल करती हूं और मेरे शरीर में दादा- दादी की तरह जनजातीय गुदाये (टैटूज) भी नहीं हैं।  मैंने एक बार सोचा, “क्या मैं आदिवासी नहीं हूं ?”

ओराओं जनजाति की महिलाएं| फोटो- दीप्ति मिंज

एक आदिवासी होने का मेरा अनुभव

शहर में रहने और यहीं पढ़ाई-लिखाई करने के बावजूद भी मैं एक आदिवासी हूं। मुख्यधारा में आकर भी बहुत सारी घटनाएं और अनुभव मुझे आदिवासी के इतिहास और पहचान से जोड़ती हैं।

जब मैं पढ़ाई के लिए हैदराबाद गई, तो मैंने अपने जैसा किसी को नहीं पाया। कोई नहीं था जो मेरी तरह रीती- रिवाज़ या त्यौहार मनाते हों या मेरी भाषा बोलते हों या मेरे जैसे इतिहास रखते हो। मैंने अपने आदिवासी भाई-बंधु को नहीं पाया। यह मेरा अनुभव है एक आदिवासी होने का।  मैंने खुद को मुख्यधारा में अकेला पाया और इस तरह मैं किसी से जुड़ नहीं पाई।

मुख्यधारा में सम्मान से मिल-जुलकर रहना मुश्किल

दलित क्रांति के जाने-माने नेता अंबेडकर ने पढ़ाई को ही उत्पीड़न से निकलने का एक माध्यम कहा है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं पढ़ाई में लग गई लेकिन पढ़ते-पढ़ते मैंने पाया कि अपने समुदाय द्वारा लिखा हुआ मैं कुछ नहीं पढ़ रही हूं।

राजनीति विज्ञान के कोर्स में एक बार हमें उलरिच बेक की पुस्तक पढ़ने को दी गयी। उस पल मैं बहुत खुश थी क्योंकि मुझे लगा कि यह लेखक जिनका नाम बेक था, वह ओराओं के “बेक” जनजाति से है। पर मेरी खुशी ज़्यादा देर तक नहीं रही क्योंकि मैंने जाना कि वे एक जर्मन समाजशास्त्री थे।

पर ऐसे अनुभव से मेरे खुद के अस्तित्व से मेरी उलझने दूर हुई। मैंने समझा कि मेरे बाकी आदिवासी बंधु जो गाँव, अशिक्षा और गरीबी में जी रहे हैं, उन्ही की तरह मेरा संघर्ष भी जारी है। मेरा संघर्ष है मुख्यधारा में आदिवासिओं की पहचान बनाना, उनके बारे में और उनके हक के बारे में लोगों को जानकारी देना।

ओराओं जनजाति के गुदाए | फोटो- दीप्ति मिंज

मुख्यधारा में सम्मान से मिल-जुलकर रहना मेरे लिए मुश्किल रहा। आरक्षण के कारण मेरी योग्यता पर संदेह किया जाता था। कोई यह नहीं समझता था कि यह समाज मेरे लिए अलग और नया था।

मैंने अपने  परिवार से अंग्रेजी नहीं सीखी थी, ना ही स्वतंत्रता दिवस पर हमारी कला-सभ्यता को दिखाया जाता था। यह अनुभव एक अलग तरह का भेदभाव महसूस कराता है।

इसके बावजूद, शहरी होकर मुझे काफी अवसर मिले जिससे मैं आदिवासिओं के मुद्दों को जता पाई। मैंने कई कॉन्फरेन्सेस और कार्यक्रमों में भाग लिया जहां मैंने आदिवासियों की आवाज़ पहुंचाने का काम किया। खुशी की बात यह थी कि गैर-आदिवासी भी काफी बढ़-चढ़ कर इन मुद्दों के लिए प्रोत्साहित थे।

दिल्ली के जनपथ में श्रमिकों के विरोध के बीच एक सर्वेक्षण करते हुए दीप्ति

मेरे आस-पास किसी में भी आदिवासी समाज की  झलक ना देख कर जो हताशा हुई, उससे मुझे प्रेरणा मिली कि मैं अपने साथियों और दूसरों को अपने बारे में बताऊं ताकि उन्हें भी यह पता चले कि हम सिर्फ जंगलों में नहीं रहते हैं। अगर मेरे जैसा कोई मुख्यधारा में जुड़े तो उसे भी खुद को पूर्ण रूप से स्वीकार करने का अवसर मिलना चाहिए ताकि मुख्यधारा में भी आदिवासिओं की संस्कृति की पहचान हो पाए।

हालांकि अभी भी आदिवासी मुख्यतः  ग्रामीण इलाकों में ही रहते हैं लेकिन काफी संख्या में वे शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण का उपयोग कर के उन्नति कर रहे हैं | छोटी संख्या और ज़ुल्म हमें अल्पसंख्यक बना देती है।

आज के विश्व आदिवासी दिवस पर ज़रूरी है कि हम उन्हें ज़्यादा जानें और उनसे सीखें। आदिवासियों का इतिहास और पहचान उनके संघर्ष से है, जो शहरी होने पर भी जारी है।

Deepti Mary Minj is a graduate in Development and Labor Studies from JNU. She researches and works on the issues of Adivasis, women, development and state policies. When she is not working, she watches films like Apocalypto and Gods Must be Crazy, and is currently reading Jaipal Singh Munda

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