लड़कियां तो सिर्फ घर में काम करने के लिए ही पैदा होती होती हैं और अगर तीन-चार हो तो ज़्यादा फायदा। एक बर्तन धो लेगी, एक कपड़े, एक झाड़ू-पोछा कर लेगी और एक-आध बाकि बच्चों को संभालने के लिए रहेगी। लड़कियों के संदर्भ में हमारे समाज की सोच कुछ ऐसी ही होती है।
खासकर मुस्लिम समुदाय में सभी को लगता है कि माँ-बाप और भाईयों की गुलामी के लिए ही तो पैदा होती हैं बेटियां। उनका खुद का कोई वज़ूद नहीं होता है। इतनी गुलामी करने का इनाम इन्हें यह मिलता है कि 18-20 साल की उम्र में एक गाड़ी, एक गैस सिलेंडर, एक बेड और कुछ बर्तनों के साथ वे ब्याह दी जाती हैं।
कुछ लड़कियां बारहवीं तक पढ़ लेती हैं फिर माँ-बाप आगे नहीं पढ़ने देते, जिसके लिए तरह-तरह के तर्क दिए जाते हैं। जैसे- अकेले कॉलेज कैसे जाएगी? ना बाप के पास टाइम है और ना भाई के पास टाइम कि बॉडीगार्ड बनकर उनके साथ कॉलेज तक जाए। अकेले भेजेंगे नहीं, बिगड़ जाएगी।
पैगम्बर साहब की ज़िंदगी में औरतें
पैगम्बर मोहम्मद साहब की ज़िंदगी में तीन औरतों की बहुत अहमियत है। एक हज़रत खदीजा, उनकी पहली बीवी, हज़रत आयशा उनकी तीसरी बीवी और हज़रत फातिमा उनकी सबसे छोटी बेटी।
हज़रत खदीजा मक्का शहर की बहुत बड़ी व्यापारी और एक विधवा थी। अपने व्यापार में उन्होंने मोहम्मद साहब को ईमानदारी से काम करते हुए देखा तो उनके सामने शादी का प्रस्ताव रखा। खदीजा मोहम्मद साहब से करीब 15-20 साल बड़ी थीं फिर भी मोहम्मद साहब ने खदीजा से शादी कर ली।
हज़रत आयशा को एक मुस्लिम विद्वान के रूप में जाना जाता है। उन्हें दो हज़ार से अधिक हदीस का वर्णन करने का श्रेय दिया जाता है और प्रख्यात विद्वानों को पढ़ाने के लिए जाना जाता है।
लड़की विरासत की हकदार
हज़रत आयशा, मोहम्मद साहब की सबसे लाडली संतान थी और उनके विरासत की असली हकदार। उन्होंने आयशा के कंधों पर ही औरतों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी दी थी। आज अगर इस्लाम ज़िंदा है, तो वह हज़रत आयशा और उनके बच्चों की ही देन है।
इन तीन औरतों का ज़िक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि अगर मुस्लमान वाकई सुन्नत पर चलना चाहते हैं, तरक्की करना चाहते हैं, अपनी विरासत हज़ारों साल तक संभालकर रखना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी बेटियों को पढ़ाना और आगे बढ़ाना होगा।
उनके परों को खुला रखना होगा। जब बेटियां परवाज़ भरती हैं, तो आसमान भी कम पड़ जाता है। हज़रत फातिमा जन्नत में दाखिल होने वाली पहली औरत होंगी और यह मकाम मोहम्मद साहब के बेटों को भी हासिल नहीं है।
मुस्लिम लड़कियों पर शक क्यों?
क्यों हम बेटियों को इतना कम अक्ल समझने लगे हैं? क्यों हम उनके ज़मीर और अपनी तरबियत पर शक करने लगे हैं? अगर कोई बेटी ज़बरदस्ती भी करने लगे तो इनके पास एक हथियार और है, उन्हें डराने और बाहर ना निकलने देने का। वह हथियार है पर्दा, बुर्का, नकाब और ना जाने क्या-क्या।
जब इस तरह की गैर-ज़रूरी वाहियात बंदिशें और पाबंदियां लगाई जाती हैं, तब औसत लड़कियां पढ़ाई से मना कर देती हैं। बुर्का पहनना है क्योंकि मुस्लिम लड़कियों पर कोई बुरी नज़र ना डाले लेकिन कभी खुद की बुरी नज़रों पर पर्दा डालने का ख्याल नहीं आया क्या?
नज़र साफ तो छुपने की ज़रूरत क्यों?
जिस दिन मर्द अपनी नज़रों को पाक-साफ कर लेंगे, उस दिन किसी भी औरत को घूंघट या बुर्का पहनने की ज़रूरत नहीं होगी। मॉडर्न दुनियां और हिंदुस्तान में ही हज़ारों लाखों मिसालें मौजूद हैं, जहां मुस्लिम लड़कियों ने ना सिर्फ घर से बाहर कदम निकालकर गैर ज़रूरी बेड़ियों को तोड़ा है, बल्कि अपना नाम भी रौशन किया है।
मुरादाबाद के एक छोटे से गाँव कुंदरकी में रहने वाली इल्मा अफरोज 2018 में 26 साल की उम्र में आईपीएस अफसर बनीं। इल्मा के पिता एक किसान थे। जब इल्मा महज़ 14 साल की थी, तब उनके पिता का देहांत हो गया।
इल्मा की सादगी, लगन और मेहनत की कहानी आप इस वीडियो में देखिए और सीखिए। क्यों हम खुद अपनी बेटियों का गाला घोट रहे हैं। जिसे बिगड़ना होगा वह घर में रहकर, पर्दे में कैद भी बिगड़ जाएगा। हमें समझना होगा कि शादी ही किसी लड़की का आखरी मुकाम नहीं है।
हम सभी के लिए यह ज़रूरी है कि हम मुस्लिम लड़कियों पर नकाब की पाबंदियां ना लगाएं, क्योंकि ऐसा करके हम उन्हें अच्छी शिक्षा से दूर कर रहे हैं। वे जानती हैं कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत।
नोट- लेख में प्रस्तुत बातें हदीस और कुरान से ली गई हैं।