इस व्यक्ति ने जितना विरोध सहन किया है, शायद ही पत्रकारिता जगत में किसी और ने उस पैमाने को छुआ होगा। व्यक्तिगत तौर पर मैंने भी कई बार उनका विरोध किया। ऐसे कई मुद्दे थे जिनपर मैंने अपनी नासमझी में बहुत बार रवीश से असहमति जताई लेकिन जब भी उनकी ज़मीनी मुद्दे से जुड़ी कोई स्टोरी देखता तो खुद पर हुए विरोध कुछ नहीं लगते और इस व्यक्ति के लिए सम्मान बढ़ता रहता।
एक बार जब उनसे यह सवाल किया गया कि क्या उन्हें डर नहीं लगता की पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए। तब रवीश ने ईमानदारी से जवाब दिया,
हां लगा था छोड़ देनी चाहिए, हर व्यक्ति को ज़िंदगी मे अलग-अलग काम करने चाहिए।
खैर, रवीश ने ऐसा किया नहीं। अगर वह डर जाते तो शायद आज इस मुकाम पर नही पहुंच पाते।

टीआरपी के बीच रवीश
TRP के लिए चील गिद्धों की तरह छपटाते न्यूज़ चैनल्स के बीच यह व्यक्ति हमेशा एक शांत नदी की तरह अपना काम करता रहा और बहता रहा। अक्सर टीवी डिबेट्स में नेताओं का गला सुखा देने वाले रवीश कुमार, पत्रकारिता जगत के एक जीवंत उदाहरण के तौर पर हमेशा चमकते रहेंगे।
प्राइम टाइम शुरू होते ही वह पहले 10 मिनट जिसमें एपिसोड की प्रस्तावना रखी जाती है, जिसके दौरान लगातार सवालों के तीर मारते रवीश हमारी सरकारों और व्यवस्थाओं की तस्वीर रख देते हैं, जिसे सुनते ही हमारी मस्तिष्क शिराओं में बहता रक्त एकाएक ठहर सा जाता है, हम सोचने लगते हैं और खुद को मजबूर पाते हैं कि ये खबरें क्या हमारे ही देश की हैं?
हम दर्शक होते हैं उस भारत के जो स्मार्ट सीटीज़ और बडे़-बडे़ नारों वाले से इतर है। हम देखते हैं कि उन्हीं स्मार्ट सीटीज़ में बसे घरों के बीचों-बीच आज भी नाले बह रहे हैं।

रामनाथ गोयनका पुरस्कार से भी हैं सम्मानित
बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले के ज़िला मुख्यालय मोतिहारी में बसी एक छोटी सी पंचायत पिपरा में 5 दिसंबर 1974 को जन्मे रवीश कुमार एक बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर आज रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड तक पहुंचे हैं।
रवीश ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास पढ़ने के बाद, भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से पत्रकारिता की पढ़ाई की जिसे उन्होंने मध्य में ही छोड़ दिया। 2013 और 2017 में उन्हें पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए दिया जाने वाला रामनाथ गोयनका पुरस्कार प्राप्त हुआ।
रवीश की रिपोर्टिंग
रवीश कुमार की पत्रकारिता में एक सादगी नज़र आती है। जिसमें ना कोई चिल्लाहट है और ना ही किसी प्रकार की आक्रामकता। फिर भी मंझे हुए और हाईली क्वालीफाईड पार्टी प्रवक्ता इनके सवालों के आगे बेबस नज़र आते हैं। उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जिस ज़मीनी हकीकत का काल्पनिक बोध नेताओं को है, उसी ज़मीनी हकीकत का बोध रवीश कुमार की पत्रकारिता में वास्तविक नज़र आने लगता है।
TRP और ब्रेकिंग न्यूज़ की बंदरलूट में रवीश की रिपोर्टिंग उस चौपाल की तरह नज़र आती है, जिसमे एक सादगी से सभी अपने विचार प्रस्तुत करते हैं।
ज़मीनी रिपोर्टिंग का अंदाज़ा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि चुनावी सरर्गमियों वाले माहौल में भी रवीश अपना माईक पकडे़ यूपी के किसी पुराने बाज़ार की एक गली में मज़दूर और कारीगरों के मुद्दों को उठाते नज़र आते हैं।
क्या कोई मीडिया हाउस इस तरह की निर्भीकता दिखा सकता है? जवाब होगा नहीं। जहां एक ओर कोई ICU में घुस कर संवेदनाओं के बल पर सुर्खियां बटोर लेना चाहता है, वहीं दूसरी ओर कोई राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी खबरें परोसने पर लगा है। इन सबके बावजूद रवीश सभी के बीच अलग नज़र आते हैं।
जमीनी मुद्दों को ज़रूरी समझने वाले रवीश
जो मुद्दे दूसरों के लिए गैर ज़रूरी होते हैं, रवीश के लिए वही मुद्दे बहस का कारण बन जाते हैं। किस पत्रकार ने इतनी हिम्मत की होगी कि अपने प्राइम टाइम शो में गिरिडीह के रहने वाले सुमित को अपना वक्त दिया होगा। जिसने 2014 में SSC की परीक्षा पास की थी लेकिन अभी तक उसके जैसे लाखों छात्र बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं।
इसी तरह के साधारण मुद्दे लेकिन आवश्यक मुद्दे उनकी पत्रकारिता की प्राथमिक सूची में रहे हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ लम्हे जो मुझे याद हैं –
- बैंको में काम करने वाली महिलाओं के लिए शौचालय का मुद्दा
- गोंडा की हालत से सरकार को रूबरू करवाया और 300 करोड का बजट दिलवाया।
- बेरोज़गार युवाओं का मुद्दा नौकरी सीरीज़ के माध्यम से उठाया।
- यूनिवर्सिटीज़ की व्यवस्थाओं और उनमें चल रहे गोरख धंधों को यूनिवर्सिटी सीरीज़ के ज़रिए उठाया। शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल देने वाले वे 24 एपिसोड रवीश की उपलब्धियों में से एक हैं।
- रेलवे कर्मचारियों के शौचालयों और अन्य विसंगतियों को रेल्वे सीरीज़ के माध्यम से उठाया।
और भी ना जाने कितने ऐसे छोटे बडे़ मुद्दों के ज़रिए रवीश ने समाज को सरकार से रूबरू करवाया है। ये वे मुद्दे हैं जो चकाचौंध वाली हेडलाइन्स में कभी अपनी जगह नहीं बना पाए।
बहरहाल, इन सबसे इतर जब रवीश ने अपने शो में अपनी स्क्रीन काली कर टीवी मीडिया की हकीकत सबके सामने रखी तब वास्तव में ऐसा लगा कि हम वही देख रहें हैं, जो हमे दिखाया जा रहा है। खबरें तो टीवी से गायब हैं। एक अलग ही प्रकार की दुनिया में हमें फालतू खबरों का घोल पिलाया जा रहा है।
रवीश का वह वाक्य आज भी याद है,
TRP की रेस तो मीडिया की है ही, क्या यह TRP की रेस आपकी भी है ?
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बाकी पत्रकारों या चैनल्स का कोई योगदान ही नहीं रहा है लेकिन जिन ज़मीनी मुद्दों को सभी को उठाना चाहिए, उनमें सबसे आगे सिर्फ रवीश ही अकेले भागते नज़र आते हैं।
सरकार से सवाल पूछने पर किसी का भी विरोध हो सकता है। इसका मतलब यह कभी नहीं है कि सवाल उठाना गलत है। सरकारों की यह नैतिक ज़िम्मेदारी है कि उन सवालों का जवाब दिया जाए। हमे सरकारों का पिछलग्गू होने से बचना चाहिए। चाहे किसी पार्टी या सरकार के लिए काम करते हों लेकिन सवाल उठाने चाहिए, गलत बात का विरोध करना चाहिए तभी हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर पाएंगे।
तमाम विरोध और समर्थन के बीच आज आखिरकार रवीश ने अपनी श्रेष्ठता सबके समने साबित की है। हमें भी मुद्दों की परख और खबरों के अंतर्द्वंद का फर्क समझना चाहिए।
व्हाट्स एप और फेसबुक के ज़माने में किसी की भी छवि बनाई या बिगाड़ी जा सकती है। यह डिजिटल माध्यम है, यहां छोटी सी बात आग की तरह फैलाई जाती है। हम उसके पीछे की सत्यता को जाने बिना ही किसी के बारे में एक पूर्वाभासी छवि बनाने लगते हैं।
रवीश को कभी ब्राह्मण विरोधी तो कभी लेफ्ट विंग का आतंकवादी तो कभी मोदी विरोधी कहा गया लेकिन तमाम आरोप आज ध्वस्त होते नज़र आते हैं।
हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ बनें
मैं अपने लेख के माध्यम से सिर्फ इतना कहना देना चाहता हूं कि आप भेड़ मत बनिए। आप अपने विवेक को सुरक्षित रखिए, अपना ब्रेन वॉश मत होने दीजिए। मैं यह नहीं कहता कि आप रवीश को आदर्श मानिए लेकिन खबरों की वास्तविकता को आप भी तलाशिए। सवाल कीजिए, धरातल को पहचानिए। सरकारें तो आएंगी और जाएंगी लेकिन हमारा देश हमेशा रहेगा।
एक ज़िम्मेदार नागरिक के तौर पर फेक न्यूज़, पेड न्यूज़ और असल पत्रकारिता का फर्क समझिए। जिस दिन आपको यह फर्क समझ आने लगेगा, मेरा वादा है उस दिन आप खुद रवीश की तरह सवाल करते नज़र आएंगे।
कितना सुखद होगा ना यदि हम
- सरकारों की जगह उस व्यक्ति की आवाज़ बनें जो सिस्टम तले कुचला जा रहा है।
- हम उस व्यक्ति की आवाज़ बनें जिसको राशन कार्ड नही मिला है और जिसका राशन कोई और खा रहा है।
- हम उस महिला की आवाज़ बने जिसके बलात्कार की रिपोर्ट थाने में दर्ज़ नही की जा रही है।
- हम उस लडके की आवाज़ बनें जो परीक्षा पास करके भी बेरोज़गार बैठा है।
- हम उस समाज की आवाज बनें जो सरकार, सिस्टम और अधिकारियों से सवाल करता हो।
बजाय इसके कि हम मैसेज फॉर्वर्ड कर सिर्फ हिंदू-मुस्लिम या ब्राह्मण-दलित करते रहें। यकीन मानिए उससे देश का कुछ भला नहीं होगा।