रवीश कुमार को सिर्फ एक पत्रकार कहना, मेरे हिसाब से उनका कद छोटा करना होगा। आज के समय में जब पत्रकार, पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों को भूलकर सत्ता के गलियारों में उपस्थित मात्र रह गए हैं, तब मैं रवीश कुमार को ‘पत्रकार’ की संज्ञा बिल्कुल नहीं देना चाहता।
बिहार के मोतीहारी से निकलकर 19 वर्ष की आयु से रिपोर्टिंग शुरू करके सच्चाई और खोजी पत्रकारिता को पक्षधर बनाने वाले रवीश का सफर आज रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार तक पहुंच गया है। यही सच्चाई और सत्ता से टकराने का रवैया ही मेरे हिसाब से उनकी सफलता का मुख्य कारण है।
रवीश कुमार को 2 अगस्त को रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई। पत्रकारिता का स्टूडेंट होने के नाते मैं रवीश कुमार को अक्सर देखता रहता हूं।
जनता के मुद्दों को उठाने वाले पत्रकार
भारत में विविध समस्याएं अक्सर बनी रहती हैं। देश की मीडिया की यह ज़िम्मेदारी है कि वह आम आदमी की समस्याएं देश के नेताओं और जनप्रतिनिधियों तक पहुंचाए लेकिन पिछले कई वर्षाें से देश में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में कभी स्थापित हुई पत्रकारिता अब अपने मूल्यों को भूल चुकी है। एक ओर जहां देश के पत्रकार हिन्दू-मुस्लिम की बातें करते हैं, वहीं दूसरी ओर रवीश कुमार बेरोज़गारी के मुद्दे को प्राइम टाइम में दिखाते हैं।
जब दूसरे पत्रकार बीजेपी-काँग्रेस जैसे दलों पर डिबेट करते हैं, तब रवीश कुमार अपनी समस्याओं को लेकर हड़ताल कर रहे स्टूडेंट्स को मीडिया की मुख्य धारा में लाते हैं। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि क्या रवीश कुमार समय के साथ बदलते नहीं हैं? आज जब सारे पत्रकार सत्ताधीशों के साथ सेल्फी और इंटरव्यू की होड़ में लगे हैं, तब रवीश कुमार विपरीत धारा में अकेले क्यों जा रहे हैं?
2014 से पहले वह यूपीए सरकार की योजनाओं की हकीकत बयां करते थे और आज भी वह अपनी इसी नीति पर कायम हैं। रवीश धूप में कभी किसानों के साथ तो कभी शोषित सरकारी कर्मचारियों के साथ घंटो बातें करते हैं, कभी स्टूडेंट्स और बेटियों की सुरक्षा को लेकर सरकार को ज़िम्मेदारी का एहसास करा देते हैं।
डर के माहौल में भी निडर पत्रकारिता करने वाले रवीश
आज रवीश कुमार को सोशल मीडिया पर अक्सर राष्ट्र विरोधी जैसी संज्ञाएं दी जाती हैं। उन्हें फोन और व्हाट्सएप के ज़रिये भी ज़बरदस्त तरीके से गालियां और धमकियां दी जाती हैं। अक्सर पत्रकार एक बार मिली धमकी से ही डर कर हार जाते हैं लेकिन रवीश उनमें से नहीं हैं। रवीश ने अपना संघर्ष जारी रखा और यही कारण है कि आज उनको एशिया के नोबल पुरस्कार कहे जाने वाले रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार से नवाज़ा जा रहा है।
सरकार के दबाव में काम करने वाले पत्रकारों को अब रवीश कुमार से सीखने की ज़रूरत है कि आखिर खबरों की प्राथमिकता कैसे तय की जाए। मुझे लगता है रवीश को मिला पुरस्कार स्टूडियो में बैठे पत्रकारों के मुंह पर करारा तमाचा है। मीडिया स्टूडेंट्स को एक बात सीखनी चाहिए कि आप ‘पत्रकारिता’ की पढ़ाई कर रहे हैं, ना कि ‘पक्षकारिता’ की।
मैं पिछले कई वर्षाें से रवीश कुमार से मिलने के लिए इच्छुक रहा हूं। पत्रकारिता का स्टूडेंड होने के नाते सबकी तरह मेरी भी यही इच्छा है मगर फिलहाल रवीश जी को बधाई।