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रविदास मंदिर के साथ सिर्फ दलितों की ही नहीं सिखों की भी भावनाएं जुड़ी थीं

मन चंगा तो कठौती में गंगा

यह एक ऐसी बात है जो देश के हर नागरिक के ज़ुबान पर होती है। फिर चाहे वह नागरिक हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख हो, इसाई हो, दलित हो या सवर्ण हो। समाज को इस उक्ति ने बहुत सीख दी और इस सीख को देने वाले थे, संत रविदास। इस लिहाज़ से वे देश के सर्वमान्य महापुरुष थे।

कैसे बना संत रविदास मंदिर

ऐसी मान्यता है कि 15 वीं सदी में जब संत रविदास बनारस से पंजाब की ओर जा रहे थे, तब उन्होंने इस स्थान पर विश्राम किया था। उसी दौराम एक जाति विशेष के नाम पर यहां एक कुआं भी बनवाया गया था जो आज भी मौजूद है। तब से उन्हें मानने वाले लोगों ने उस जगह को एक प्रेरणा स्थल के रूप में माना और उस जगह को विकसित किया।

ऐसा भी कहा जाता है कि उस मंदिर में संत रविदास की अस्थियां और उनके लिखे ग्रंथ साहिब जो की दुर्लभ हैं, वे रखी गई थी। वह मंदिर ऐतिहासिक धरोहर था और उससे लोगों की भावनाएं जुड़ी थी।

इस तरह से इस मंदिर का अस्तित्व तब से था जब देश में ना सुप्रीम कोर्ट थी, ना ही डीडीए था और ना ही केंद्र सरकार थी। ऐसे स्थल को तोड़ना कहीं से भी जायजड नहीं ठहराया जा सकता है।

अक्सर देखा जाता है कि किसी भी ऐतिहासिक या धार्मिक स्थल पर कोई भी एक्शन लेने से पहले, सरकार और न्यायालय सावधानी से काम लेती हैं लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं हुआ।

फोटो क्रेडिट – Getty Images

रविदास मंदिर तोड़ने का फैसला गलत

रविदास मंदिर को तोड़ना गलत इसलिए कहा जाएगा क्योंकि जिस डीडीए को इस ज़मीन पर आपत्ति थी, उसी की ज़मीन पर समूचे दिल्ली में हज़ारों मंदिर अब भी सही सलामत खड़े हैं। इस देश का वो तबका जो मंदिर तोड़े जाने के खिलाफ है वह जानना चाहता है कि कितने मंदिरों को डीडीए और सरकार ने नोटिस दिया है, जो सरकारी यानी सार्वजनिक ज़मीनों पर अवस्थित हैं।

इस पूरे मामले को देखकर यह साफ है कि यह एक तरफा और भेदभावपूर्ण भरा फैसला लिया गया है। यहां ना तो लोगों की भावनाओं की कद्र की गई और ना ही उनकी आस्था की। इसलिए मंदिर तोड़े जाने का फैसला बिल्कुल गलत था।

अगर नहीं, तो सबसे पहले इस देश के अंदर जितने मंदिर, मस्जिद, शिवाले या गिरजाघर सरकारी ज़मीन पर अवस्थित हैं, उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को एक नोटिस जारी करना चाहिए और कहना चाहिए कि सार्वजनिक ज़मीनों पर अवस्थित सभी धार्मिक स्थलों को हटाए नहीं तो सरकार और प्रशासन के सहयोग से हटाया जाएगा।

इस तरह के फैसले कभी नहीं लिए जाएंगे क्योंकि ऐसा करने पर सुप्रीम कोर्ट और सरकार को देश के अन्दर, धार्मिक कट्टर लोगों के गुस्सा का सामना करना पड़ सकता है। ये फैसले देश के अल्पसंख्यकों और दलितों के ही ऐतिहासिक धरोहरों के खिलाफ आएगा क्योंकि इस देश की न्यायपालिका और सरकार जातीय कुंठा से ग्रसित हैं।

इसका दलितों पर लॉन्ग टर्म में क्या असर देखने को मिलेगा?

दलितों पर ही नहीं रविदास के दोहे, सिख धर्म ग्रंथो में भी शामिल हैं और सिख धर्म के लोगो में भी इसको तोड़े जाने को लेकर बेहद आक्रोश है। इसका अंदाज़ा पंजाब बंद, हरियाणा बंद और सिख प्रभावित राज्यो के बंद और जगह-जगह विरोध प्रदर्शनों से लगाया जा सकता है।

आज जिस तरह का आक्रोश देखने को मिल रहा है उससे कहीं ऐसा ना हो जाए कि इस देश का दलित, सिख समुदाय और रविदास के अनुयायी सभी मिलकर देश के हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिरों को तोड़ डाले।

कल रामलीला मैदान में सैकड़ों महिलाओं, पुरुषों और युवाओं से बातें हुई और उनके विचारों में एक गुस्सा था। सबने एक सुर में कहा कि जब देश के 90% से ज्यादा हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिर और धार्मिक स्थल सार्वजनिक स्थलों पर ही स्थित हैं, तो हमारे रविदास मंदिर को क्यों तोड़ा गया।

ऐसा होना तो नहीं चाहिए लेकिन अगर ऐसा होता है तो देश में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी और सरकार और सुप्रीम कोर्ट के लिए संभालना मुश्किल हो जाएगा। मानव-मानव का विरोधी हो जाएगा जिससे देश में मानवता पर खतरा उत्पन्न हो सकता है।

सरकार को उठाने चाहिए ये कदम

इस मामले को सुलझाने के लिए मुझे लगता है कि सरकार को जल्द से जल्द कुछ कदम उठाने चाहिए। जैसे-

रविदास मंदिर का दलित समुदाय के बीच बहुत महत्व था। देश के अंदर और देश के बाहर भी जो दलित समुदाय के लोग थे, वे उस मंदिर को अपने प्रेरणा स्थल के रूप में मानते थे।

इसकी बानगी यह भी है कि मंदिर तोड़े जाने पर विदेशों में रह रहे दलितों और संत रविदास के अनुयायीयों ने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया और सोशल मीडिया के माध्यम से अपना विरोध जताया।

इसके तोड़े जाने के खिलाफ 21 अगस्त को देश भर के लाखों लोगों ने देश की राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में बहुत बड़ा शक्ति प्रदर्शन किया। वे सभी प्रदर्शनकारी इतने आक्रोश में थे कि तुगलकाबाद पहुंच गए, जहां पर पुलिस ने इनपर लाठीचार्ज किया लेकिन फिर भी ना वे जेल जाने से डरे और ना मारे से।

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