भारत को नदियों की भूमि के रूप में देखा जा सकता है। भारत के लोग नदियों को देवी तुल्य मानते हैं लेकिन विडम्बना ऐसी है कि नदियों के प्रति हमारी गहन आस्था व सम्मान होने के बावजूद हम नदियों की पवित्रता, स्वच्छता एवं भौतिक कल्याण को बनाए रखने में असमर्थ हो रहे हैं।
नदी पूजनीय तब होती है जब उसे देश के सम्मान एवं अस्मिता के साथ जोड़कर देखा जाने लगता है लेकिन समय के अनुसार, नदी के अर्थों में भी परिवर्तन हो जाता है जिसका सीधा सरोकार व्यक्ति के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन से जुड़ा होता है।
जैसे ही यह देश के सम्मान एवं अस्मिता से जुड़ती है, यह राजनैतिक तूल पकड़ने लगती हैं। राजनैतिक दल या सत्ता पर आसीन शासक वर्ग, नदियों का प्रयोग अपनी राजनैतिक रोटियां सकने के लिए करने लगते हैं। तब वह अपने आप राजनीति का हिस्सा हो जाती है।
लोगों की आस्था से खिलवाड़
नदियों को लोगों की आस्था से जोड़कर उनसे वोट मांगे जाने लगते हैं और वहीं से नदी की राजनीति जन्म लेती है, जिसका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं होता है। सरकारें आती हैं और जाती हैं लेकिन उनका प्रभाव नदियों में बढ़ते प्रदूषण पर नहीं देखने को मिलता है।
आज मानव द्वारा नदियों का अंधाधुन दोहन किया गया है, जिसमें सरकार भी एक हद तक दोषी है। जिसने ऐसे नियम व कानूनों का निर्माण किया जो नदियों में प्रदूषण बढ़ाने के लिए उत्तरदायी रही है। कितनी ही सरकारें आई और उन्होंने बड़े-बड़े वादे किए लेकिन जैसे ही सरकार बदली वादे धरे के धरे रह गए।
क्या कहती हैं ये रिपोर्ट्स?
द वायर न्यूज़ रिपोर्ट ऑन गंगा के मुताबिक, सीपीसीबी की रिपोर्ट का हवाला देते हुए इन्होंने बताया कि गंगा का पानी उ.प्र. से पश्चिम बंगाल तक पीने व नहाने योग्य नहीं है। कुल 86 स्थानों में कराए गए लाइव निरीक्षण में से केवल 7 स्थानों पर गंगा का पानी पीने योग्य पाया गया और बाकि 78 स्थानों में गंगा के पानी को पीने के अयोग्य बताया गया है।
Ganga Water Quality Trend : Central Pollution Control Board Ministry of Enviroment & Forests, December 2009 के मुताबिक गंगा नदी में प्रतिदिन लगभग 2.9 अरब लीटर मल-जल (कचरा) डाला जाता है, जिसमें 20 करोड़ मल-जल केवल वाराणसी से ही गंगा नदी में डाला जाता है।
सब कुछ जा रहा गंगा में
गंगा नदी कुल 29 ऐसे शहरों से होकर गुज़रती है, जिनकी आबादी 1 लाख से अधिक है तथा 23 ऐसे शहर हैं, जिनकी आबादी 50 हज़ार से 1 लाख के बीच है। इसके अलावा गंगा किनारे 48 छोटे-छोटे शहर भी बसे हुए हैं जिनके आवासीय मकानों से निकलने वाला मल-जल सीधे गंगा में मिलता है।
इसके साथ ही साथ गंगा किनारे कई चमड़े के कारखाने, रासायनिक यौगिक को तैयार करने वाले कारखाने, कपड़े के कारखाने, शराब के कारखाने, कसाई खाने तथा कई अस्पताल भी मौजूद हैं। जिनसे निकलने वाले मल-जल, अपशिष्ट पदार्थ सीधे गंगा के पानी में डाले जाते है। जिससे गंगा का पानी दूषित होता जा रहा है।
गंगा का पानी अब इसके सेवन करने वालों और इसमें निवास करने वाले जल-चर दोनों के लिए काफी हानिकारक सिद्ध हो रहा है जिसकी वजह से मानव स्वास्थ्य,पर्यावरण, भारत की अर्थव्यवस्था और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंच रही है।
गंगा को प्रदुषण से बचाने के प्रयास
इन्हीं सभी समस्याओं को देखते हुए सर्वप्रथम 1985 ई० में राजीव गाँधी सरकार के समय गंगा नदी में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए प्रयास किए गए। जिसे गंगा कार्य योजना (गंगा एक्शन प्लान) नाम दिया गया परन्तु यह योजना गंगा नदी की स्वच्छता के लिए कोई खास कारगर साबित नहीं हो सकी। जिसकी वजह से इस योजना को बंद करना पड़ा।
गंगा की राजनीति
गंगा की राजनीति ने फिर करवट बदली जब बीजेपी की सरकार 2014 में सत्ता में आई। सत्ता में आने से पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी से कहा था,
मुझे किसी ने भेजा नहीं बल्कि गंगा माँ ने बुलाया है।
यहीं से राजनैतिक लोकलुभावन और मुकाबले बाज़ी के एक नए चक्र की शुरुआत हुई और गंगा की स्वच्छता के नाम पर लोगों से वोट मांगे जाने लगे।
सन 2015 में गंगा की स्वच्छता के लिए नमामि गंगे परियोजना की शुरुआत की गई। जिसका लक्ष्य 2019 तक गंगा को स्वच्छ और अविरल बनाना था लेकिन जिसे आगे बढ़ाकर 2019-20 कर दिया गया।
खर्च हुए करोड़ों मगर गंगा मैली
अब तक यदि हम गंगा स्वच्छता अभियान पर कुल खर्च हुए बजट पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि गंगा एक्शन प्लान में गंगा स्वच्छता के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च किए जा चुके हैं।
कुल मिला कर वर्ष 2014 से जून 2018 तक गंगा नदी की सफाई के लिए 3,867 करोड़ रुपये से अधिक राशि खर्च की जा चुकी है।
2015-16 में 2750 करोड़ का आवंटन 1650 घटने के बाद भी गंगा पर 18 करोड़ खर्च आवंटित किए गए, जो सत्ताधारी सरकार द्वारा खर्च नहीं किए जा सके। 2016-17 में 2500 करोड़ का आवंटन किया गया फिर भी गंगा मैली की मैली है।