भारत की नवनिर्वाचित भारी बहुमत वाली सरकार, जो कि पूरी तरह बहुसंख्यक आबादी का भावनात्मक दोहन कर 300 से अधिक सांसदों के साथ सत्ता में दोबारा आई, अभी सालभर भी नहीं बीते कि विद्रोह के स्वर दिखाई पड़ने लगे।
वैसे तो कुलदीप सिंह सेंगर के खिलाफ रेप सर्वाइवर मामले को लेकर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी एवं विभिन्न संगठनों ने देशभर में छोटे-बड़े आंदोलन ज़रूर किए लेकिन इस बीच नवनिर्वाचित सरकार के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा उलगुलान रविदासिया समाज द्वारा किया गया।
वह भी उस दौर में जब सभी राजनीतिक पार्टियां सन्नाटे में हैं और विरोध के स्वर संसद में सुनाई नहीं दे रहे हैं। हर विधेयक के पेश होते समय यह डर बना रहता है कि पता नहीं कौन-सी विपक्षी पार्टी कब घुटने टेक दे।
बुद्धिजीवी जब पाला बदलने की जुगत भिड़ा रहे हैं, तब रविदासिया कौम ने नए शासन में पहली बार विपक्ष की भूमिका निभाई है और सरकार की आंख में आंख डालकर कहा है कि तुम बेईमान हो, तुम जु़ल्मी हो, तुम जातिवादी हो संभल जाओ।
कीमत तो चुकानी ही पड़ती है लेकिन कायरों का फिर कहां इतिहास होता है?
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद डीडीए ने 10 अगस्त 2019 को दिल्ली तुगलकाबाद इलाके में स्थित रविदास मंदिर को गिरा दिया था। जिसके बाद उनके अनुयायियों समेत देशभर के दलित समुदायों में काफी रोष था तथा इसके विरोध में देशभर में छोटे-बड़े प्रतीकात्मक विद्रोही देखे गए लेकिन यह रोष संयुक्त रूप से रामलीला मैदान में देखने को मिला।
इसमें लाखों की संख्या में उनके अनुयाई एवं देशभर के तमाम दलित संगठनों के नेता एवं कार्यकर्ता ने पूरा रामलीला मैदान भर दिया। पूरे दिल्ली भर में जगह-जगह सड़कें जाम देखने को मिलीं। इसके अतिरिक्त कई अन्य राज्यों में भी प्रतीकात्मक विरोध करते हुए लोग दिखाई दिए। दिनभर आंदोलन शांत रहा परंतु शाम को कुछ अशांति देखने को मिली जिसको प्रशासन ने अपने तरीके से सुधारा।
मीडिया चैनलों में निराशाजनक कवरेज
इतने बड़े आंदोलन के बाद भी सरकार की ओर से आश्वासन देने की बात तो दूर ऊपर से प्रशासन द्वारा इससे निपटने के लिए भी पूरी छूट दी गई, जिससे उनके काफी अनुयाई चोटिल भी हुए। कुछ को तो अशांति फैलाने के आरोप में जेल भी भेज दिया गया, जिसमें भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर का नाम प्रमुख है।
दिनभर यह घटना चली लेकिन किसी मीडिया चैनल ने इसे निष्पक्षता से कवर नहीं किया। तमाम चैनलों में केवल चिदंबरम ही सुर्खियों में बने रहे। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया का यह पक्षपात वाला रवैया शर्मनाक है।
इस घटना ने मीडिया की निष्पक्षता एवं विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। हालांकि कुछ भी हो, विद्रोह काफी लोकतांत्रिक था। लोकतंत्र में ऐसे विद्रोह को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे विद्रोह का सम्मान किया जाना चाहिए। परिणाम क्या होता है, यह देखना शेष है लेकिन यह ज़रूर है कि नवनिर्वाचित सरकार के खिलाफ यह पहला संगठित विद्रोह ज़रूर है।