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दलित चेतना का मुख्यधारा में ना आना क्या कोई साज़िश है?

पिछले कुछ दिनों से आर्टिकल 370  पर खासा चर्चा रही है। इन चर्चाओं से पूर्व बीएसपी प्रमुख बहनजी मायावती भी खूब आलोचनाओं का केंद्र बनी रहीं। जिनमें से एक बड़ा विवाद परिवारवाद को फैलाने का था और दूसरा हाल ही में 370 के रद्द हो जाने पर मायावती का बीजेपी को समर्थन देना था।

इन सबके चलते कई लोगों ने एक बड़ा सवाल पूछा कि क्या मायावती आज भी दलितों के हित के लिए एक योग्य नेता है? वहीं दूसरी ओर अंबेडकर को भी 370 से जोड़कर देखा गया।

इस संदर्भ में अंबेडकर के कथन “कश्मीर के हिंदू और बुद्धिस्ट भाग को हिंदुस्तान और मुस्लिम भाग को पाकिस्तान को दे देना चाहिए” को निरंतर ही इस्तेमाल किया गया।

मायावती और बी आर अंबेडकर, फोटो क्रेडिट- getty images और सोशल मीडिया

इस लेख में मैंने आर्टिकल 370 के जातीय पहलू खासकर मायावती और अंबेडकर पर प्रकाश डालने की कोशिश की है। मैंने एक नया दृष्टिकोण देने का प्रयास किया है, जिससे हम मायावती की हुई आलोचनाओं को एक नए ढंग से देखने की कोशिश कर सकते हैं।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि बीएसपी और बीजेपी का गठजोड़ सामने आया हो। 90 के दशक में स्वयं कांशीराम के होते हुए भी बीएसपी और बीजेपी संगठित होकर रहे थे और वह समय दोनों ही पार्टियों के लिए आलोचना पूर्ण रहा था।

बहुत कुछ मायनों में यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा का उत्तर प्रदेश में वजूद बसपा की ही देन है और उत्तर प्रदेश में जो बहुजन सपोर्ट आज बीजेपी को मिल रहा है, उसकी नींव कहीं ना कहीं 90 के दशक में हुए बसपा और भाजपा गठजोड़ में समाई हुई है।

क्या है दलित चेतना

दलित राजनीति के विषय में हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि दलित राजनीति का मूल प्रेरक क्या है? यह मूल प्रेरक है

दलित ‘चेतना’ जिसे अंग्रेजी में दलित कॉन्शसनेस भी कहा गया है। अब सवाल उठता है कि यह दलित चेतना है क्या? और इसे कैसे समझा जाए?

जहां दलित लेखकों के लिए दलित चेतना, जाति प्रथा, अपने वजूद, और आज़ादी की एक लंबी लड़ाई की ओर इशारा करती है, वहीं दूसरी ओर दलित सामाजिक शास्त्री और राजनीतिक शास्त्री की दृष्टि से यह चेतना पुरातन रूप से दलितों में रही है। उदाहरण के तौर पर मध्यकालीन युग में चोखा मेला, रविदास इत्यादि संतों ने हमेशा ही जात-पात की नीतियों पर जमकर आक्रोश प्रकट किया है।

अगर उस काल में स्वावलंबन की लड़ाई नहीं है तो अपनी पहचान की एक मज़बूत और गहरी चिंता निसंकोच ही समाई हुई है, जो आगे आने वाले युगों तक दलित राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में अपनी छाप छोड़ती रहेगी।

दलित राजनीति की विचारधाराएं

प्रोफेसर विवेक कुमार अपनी किताब India’s Roaring Revolution Dalit Assertion and New Horizons में लिखते हैं कि दलित राजनीतिक नेतृत्व मूल रूप से दो प्रकार से समझा जा सकता है। यह दो प्रकार हैं,

दलित स्वावलंबन की लड़ाई भारतीय राज्य की स्थापना से पूर्व चली आ रही है इसलिए इसकी यह दो मुख्य धाराएं हैं। एक धारा राष्ट्र के अंतर्गत तो दूसरी धारा राष्ट्र विचारधारा को बिल्कुल भी नज़र में नहीं रखती क्योंकि इसकी  नींव राष्ट्र से भी पुरानी है। इस धारा का सीधा टकराव  ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को लेकर है।

इस दूसरी विचारधारा में ब्रह्मणवादी ताकतों का समावेश देखा जाता है इसलिए ब्राह्मणवादी समाज और भारतीय राष्ट्र, दोनों की ही ज़ोरदार आलोचना होती है। प्रोफेसर कांचा इलैया जैसे दलित चिंतक की किताब “Why Iam Not A Hindu” इस विचारधारा को अंकित करती है।

विवेक कुमार और कांचा इलैया की किताब, फोटो क्रेडिट- सोशल मीडिया

प्रोफेसर विवेक कुमार आगे बताते हैं कि Dependent dalit political leadership हमेशा से ही मुख्यधारा के राजनीतिक जीवन के अंतर्गत ही चलती आई है और हिंदू समाज के अंतर्गत ही दलित समस्या का समाधान खोजती रही है।

अंबेडकर के समय से चली आ रही Republican Party of India कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके दलित मुद्दों का प्रतिनिधित्व करती रही। वहीं दूसरी ओर Independent dalit political leadership 1935 के दौर से ही अपना स्वाधीन पक्ष हिंदू समाज के उपेक्षा में रखती आई है। इसी इंडिपेंडेंट पॉलीटिकल लीडरशिप का एक पहलू अंबेडकर राजनीति के सेपरेट इलेक्टरेट की मांग भी कहा जा सकता है।

सर्वजन की राजनीति

गोपाल गुरु, बसपा और भाजपा के 90 के दशक के गठजोड़ में ‘सर्वजन’ की राजनीति पर लिखते हैं,

यह दर्शाता है कि किस तरह दलित राजनीति राष्ट्र विचारधारा के अंतर्गत  सीमित होने पर मजबूर  है ।

यही मजबूरी मान्यवर कांशी राम को भी देखनी पड़ी थी। उस समय दलित मोर्चा के अध्यक्ष महिपाल सिंह ने इस गठजोड़ पर तंज कसते हुए कहा था,

बसपा का हाथी अब मनु वादियों का गणेश बन चुका है।

इस पर मान्यवर कांशीराम भाजपा को सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करने का एक जरिया मात्र बताते रहे थे। उनका मानना था कि जब तक भाजपा का इस्तेमाल अपने समुदाय के हितों के लिए किया जा सकता है वह उस गठबंधन को अवश्य ही अपनाएंगे।

यह मजबूरी स्वयं बाबा साहब अंबेडकर ने भी महसूस की थी, खासकर पूना पैक्ट के समय जहां महात्मा गांधी, अंबेडकर को यह समझा रहे थे कि दलित  मुद्दा  राष्ट्रीय हित में समाया हुआ है। तब से आज तक यह तय नहीं हो पाया है कि इस राष्ट्रीय हित में दलितों का हित कितना है।  इसलिए निरंतर ही दलित चेतना, राष्ट्रीय हित को कटघरे में  बुलाती रही है।

इस संदर्भ में आर्टिकल 370 को लेकर अंबेडकर के बयान को शामिल करना एक बार फिर से यह दर्शाता है कि दलित राजनीति और चेतना को किस तरह से राष्ट्रीय विचारधारा के ढांचे में तब्दील किया जा रहा है।

दूसरे शब्दों में यह केवल अंबेडकर का ही राष्ट्रीयकरण नहीं है, बल्कि दलित चेतना का भी राष्ट्रीयकरण है। वह चेतना जो कि राष्ट्रीय विचारधारा के दोनों ओर समाई हुई है।

परिवर्तनवादी चेतना ही विकास का मार्ग है

दलित राजनीतिक चेतना का विकास हमें यह समझाता है कि यह दो मुखी तलवार की भांति काम करता है। जहां एक तरफ दलित राजनीति राष्ट्रीय विचारधारा के अंतर्गत सीमित है, वहीं दूसरी ओर इसकी सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना, भारतीय संस्कृति के तथ्यों पर गहरी आलोचना व्यक्त करने की प्रकृति रखती है।

निसंकोच ही यह परिवर्तनवादी चेतना दलितों को जाति प्रथा की क्रूर सच्चाई से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है जो कि अधीन राजनीति में केवल पुतले बनवाना, सड़कों और कॉलोनियों के नाम दलितों के लीडरों के नाम पर रखवाने तक सीमित होती नज़र आ रही है।

फोटो क्रेडिट- getty images

दलित चेतना का परिवर्तनवादी अंश उसको एक गहरे और मौलिक बदलाव की ओर अग्रसर करने के योग्य है और यह अधीन दलित नेतृत्व की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि यह परिवर्तनवादी अंश, भारतीय समाज और राजनीति में परस्पर बना रहे।

जो लोग मायावती को आज एक खोखला हो चुका दलित नेता बताते हैं, उन्हें भारत में दलित राजनीति और चेतना के विकास के मद्देनजर, मायावती की राजनीतिक योग्यता का आकलन करना चाहिए और दलित चेतना के राष्ट्रीयकरण में दलित चेतना के स्वतंत्र भावों को खत्म कर देने की साज़िश को भी पहचानना चाहिए।

साज़िश इसलिए क्योंकि आने वाला पूंजीवादी समाज, फिर से एक बार दबे-कुचले दलित और पिछड़े वर्ग की कमर तोड़ मेहनत और गुलामी पर ही बनेगा। इसलिए इन वर्गों का अपने हकों को लेकर जागरूक होना जरूरी है।

वहीं दूसरी ओर तमाम आधीन दलित राजनैतिक तत्वों को दलित चेतना को अग्रसर और तीव्र बनाए रखने की निरंतर कोशिश करनी चाहिए।

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