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“व्हाट्सएप पर तिरंगे की डीपी लगाना ही देशभक्ति नहीं है”

तिरंगा

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स्वतंत्रता दिवस दस्तक देने को है। देश के लोग देशभक्ति के रंग में सराबोर हैं और बाज़ारों में तिरंगे झंडे की बिक्री ज़ोर पकड़ रही है। स्कूलों और कॉलेजों में 15 अगस्त के कार्यक्रम की तैयारी भी परवान पर है। बच्चों को देशभक्ति के गीत और कविताएं याद करवाई जा रही हैं।

सोशल मीडिया पर भी लोग देशभक्ति की पोस्ट डालकर खुद को सबसे बड़ा देशभक्त घोषित करने में लगे हैं। व्हाट्सएप प्रोफाइल पर लोगों ने तिरंगे झंडे की फोटो लगानी शुरू कर दी है। देशभक्ति के मैसेज इधर से उधर फॉरवर्ड किए जाने लगे हैं लेकिन क्या हम सचमुच आज़ाद हैं?

क्या हम अपने विचारों से आज़ाद हुए हैं? क्या हम जातिगत भेदभाव और छुआछूत जैसी कुरीतियों से अपने आप को आज़ाद कर पाए हैं? आज भी देश में जातिवाद और छुआछूत के नाम पर लोगों की हत्या कर दी जाती है। यह कैसी आज़ादी है जहां इंसानों को जाति और धर्म के नाम पर मार-मारकर मौत के घाट उतार  दिया जाता है?

क्या हम अपने विचारों से आज़ाद हो चुके हैं? शायद नहीं, क्योंकि अगर हम सच में आज़ाद हो गए होते तो हमारे समाज में महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने के लिए कोर्ट का दरवाज़ा नहीं खटखटाना पड़ता।

सिर्फ स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा हाथ में लेकर अपने आपको सबसे बड़ा देशभक्त समझना खुद को धोखा देना है। पहले हमें अपने विचारों से आज़ादी पाने की ज़रूरत है, तभी हम सच में आज़ादी का जश्न मानने के हकदार होंगे। आज देश में जिस तरह से मॉब लिचिंग हो रही है, जिस प्रकार से महिला सुरक्षा सवालों के घेरे में है, दलितों के साथ भेदभाव से लेकर अत्याचार के कई मामले शर्मसार करने वाले हैं।

फोटो साभार: Getty Images

अब वह वक्त आ चुका है, जब हमें अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी और सवाल पूछना होगा। हमें मॉब लिंचिंग को जस्टिफाई करने वालों से पूछना होगा कि आखिर किस आधार पर वे किसी को पीट-पीटकर मार दने वाले का दबे ज़ुबान में समर्थन करते हैं। जब हमारे संविधान में भेदभाव की बातें नहीं हैं फिर हम खुद कैसे तय कर लेते हैं कि फलां व्यक्ति दलित है और फलां ब्राह्मण।

हमें इस नज़रिये से निकलना होगा। हमको अपनी बात रखते हुए सवाल पूछने की आदत डालनी होगी। आप खुद सोचकर देखिए कि हम बाल मज़दूरी पर तो कई सारी बातें करते हैं मगर 15 अगस्त या 26 जनवरी के रोज़ काफी संख्या में बाल मज़दूर तिरंगा झंडा बेचते नज़र आ जाते हैं। आज़ादी की बात करने वाले तमाम लोगों के ज़हन में उस वक्त यह सवाल क्यों नहीं आता कि आखिर इन्हें बाल मज़दूरी से कब आज़ादी मिलेगी?

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