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“सिर्फ एक रवीश कुमार देश की पूरी पत्रकारिता को नहीं बदल सकते”

रवीश कुमार

रवीश कुमार

आजकल हमें कई लेख मिलेंगे जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की गिरती हुई विश्वसनीयता की बात करते हैं। आज मीडिया और खासकर टीवी मीडिया एक कारोबार बन गया है, जिसे देश के बड़े उद्योगपति अपने हिसाब से नियंत्रित करते हैं। लगभग सभी मीडिया चैनल किसी विशेष राजनीतिक पार्टी का एजेंडा पूरे दिन चलाते रहते हैं।

हाल ही में हुए पुलवामा हमले और उसके बाद लोकसभा चुनाव को जिस तरह से इन पत्रकारों ने पेश किया था, उससे यही लगता था कि देश के लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ ढह गया है।

युवाओं को यूट्यूब से वापस टीवी पर लाने वाले पत्रकार

मीडिया से निराश अधिकतर जागरूक जनता और खासकर युवा जनता यूट्यूब जैसे नए माध्यमों की ओर जा रहे थे। इन सबके बावजूद एक ऐसे टीवी पत्रकार हैं, जिनको सुनकर लगता है कि ज़िम्मेदार पत्रकारिता अभी भी ज़िंदा है। जी हां, रवीश कुमार की बात कर रहा हूं जिनकी पत्रकारिता हमेशा से निष्पक्ष और देश के सही मुद्दों को उठाने वाली रही है।

रवीश कुमार। फोटो साभार

2 अगस्त को उन्हें रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार से नवाज़ा गया है, जिसे एशिया का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इस पुरस्कार से यह बात साफ हो गई है कि दुनिया में ईमानदारी और बहादुरी से काम करने का फल मिलता है। वैसे तो रवीश कुमार अपनी पत्रकारिता के कारण बाकी पत्रकारों से पहले से ही अलग गिने जाते रहे हैं मगर इस पुरस्कार ने यह साबित कर दिया कि देश में अभी भी लोकतांत्रिक मीडिया का अंश बचा है।

उन्हें यह पुरस्कार पत्रकारिता के माध्यम से वंचित समाज को आवाज़ देने के लिए दिया गया है। मैं जब भी उनके कार्यक्रम देखता था, उनमें गरीबी, बेरोज़गारी और ग्रामीण इलाकों की समस्याएं दिखाई जाती थीं। 

उन्हें कई बार असामाजिक तत्वों द्वारा डराया और धमकाया गया मगर इस डर के माहौल में भी उन्होंने अपनी पत्रकारिता निडरता से की। रवीश कुमार इतने बड़े पत्रकार होने के बाद भी खुद कैमरा लेकर किसी गाँव में पहुंच जाते हैं और लोगों से उनकी समस्याएं सुनते हैं। 

सभी पत्रकारों से अलहदा हैं रवीश

जब दूसरे पत्रकार पाकिस्तान का नाम लेकर देश में युद्ध जैसी स्थिति बना रहे थे, उस समय रवीश कुमार लोगों को संयम से काम लेने और किसी फेक न्यूज़ के झांसे में नहीं आने को कह रहे थे। जिस समय दूसरे टीवी चैनल अपना पूरा कार्यक्रम सिर्फ पैनेलिस्ट अतिथियों से “हिंदुस्तान ज़िंदाबाद और पाकिस्तान मुर्दाबाद” के नारे लगवाने में निकाल देते थे, उस समय रवीश कुमार देश के सरकारी विद्यालयों में खुद जाकर वहां की असलियत दिखा रहे थे।

जिस समय बाकी पत्रकार “कौन सा धर्म खतरे में है” जैसे गैर-ज़रूरी मुद्दों पर बहस कर रहे थे, उस समय रवीश कुमार देश के सांप्रदायिक माहौल के खिलाफ लड़ रहे थे। मीडिया का इस तरह बिक जाना देश के लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है।

उनकी इस उपलब्धि से यह भी सिद्ध होता है कि सिर्फ टीवी पर ज़ोर ज़ोर से अंग्रेज़ी में चिल्लाने और लोगों की आवाज़ दबाने को पत्रकारिता नहीं कहते हैं। उसके लिए आवाज़ चाहे कितनी ही धीमी हो मगर उसमें दम होना चाहिए।

यह भी सत्य है कि सिर्फ एक रवीश कुमार देश की पूरी पत्रकारिता को नहीं बदल सकते हैं। इसके लिए हर पत्रकार को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी। रवीश कुमार को यह पुरस्कार मिलना पत्रकारिता जगत के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।

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