करीब सालभर पहले अपने एक कॉलिग के साथ यूं ही बातचीत के दौरान मैंने उसे मज़ाक-मज़ाक में बताया कि कैसे सेक्स के दौरान मैं झूठा कामोन्माद/ऑर्गेज़्म होने का नाटक करती हूं। वह हैरान थी कि मैं ऐसा कैसे कर सकती हूं और मैं इस बात से हैरान थी कि उसने ऐसा कभी नहीं किया था। उसके बाद से ही मैंने ऑर्गेज़्म के बारे में ज़्यादा गहराई तक सोचना शुरू किया।
मुझे ठीक से याद भी नहीं कि मैंने इस झूठे ऑर्गेज़्म के नाटक की शुरुआत कब से की? मुझे यह ज़रूर याद है कि सेक्स का मेरा पहला एक्सपीरियंस तब हुआ, जब मैं 19 वर्ष की थी। अब क्या बताऊं! वह लम्हा बहुत बेहतरीन था। मुझे यह तो याद नहीं कि मेरे पहले सेक्स में मुझे ऑर्गेज़्म हुआ था या नहीं और ना ही यह याद है कि मैंने ऑर्गेज़्म का झूठा नाटक उस समय भी किया था या नहीं लेकिन उस सेक्स का मैंने भरपूर आनंद लिया था।
हालांकि मैंने इसका जितना आनंद उठाया, उससे ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर ज़रूर बताया था। अब देखो, हम करीब छह महीने के बाद एक-दूसरे से मिल रहे थे और हमने होटल में एक कमरा भी बुक कर लिया था। इस चीज़ को लेकर माहौल तो बन ही गया था और पैसे भी काफी खर्च हो गए थे, जिसके बाद कुछ बेहतरीन क्लाइमेक्स की ज़रूरत महसूस हई।
हां, मुझे उस दिन की एक बात अच्छी तरह से याद है। हमने देर रात क्यूबा वाला सिगार पिया था और इससे मुझे काफी खांसी हुई थी, जिसके बाद यह समझ लिया था कि क्यूबा वाले सिगार मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं हैं।
हमने सेक्स किया, कभी ज़्यादा तो कभी कम
हमने कुछ दिनों तक बहुत सारा सेक्स किया और यह काफी मज़ेदार था। कुछ दिन थोड़ा ज़्यादा तो कुछ दिन कम। कुछ दिन तो सेक्स के बीच में मेरा मन उससे हट गया और मैं वहां से उठ गई। कुछ दिन ऐसा भी हुआ जब यह सब करने की इच्छा नहीं होती थी, फिर भी कर लिया। कुछ दिन ऑर्गेज़्म का अनुभव हुआ और कुछ दिन पता ही नहीं चला कि मैंने ऐसा कुछ महसूस किया भी था या नहीं।
कुछ दिन ऐसे भी रहे जब यकीनन ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन मैंने हर बार ऐसा दिखाया मानो मुझे ऑर्गेज़्म हुआ हो। मतलब सोचने वाली बात यह है कि मेरा पार्टनर मुझे काफी प्यार करता था। हां, मुझे यह नहीं पता कि अगर मैंने उसे सीधे-सीधे बता दिया होता कि मुझे ऑर्गेज़्म महसूस नहीं हुआ, तो वह इस पर कैसे रिएक्ट करता! अब मेरा मानना है कि इतना भी बुरा रिएक्ट नहीं करता लेकिन मेरे दिमाग में यह कभी आया ही नहीं कि मैं ऐसा भी कर सकती हूं।
मुझे नहीं पता कहां से मेरे दिमाग में यह बात आई कि मैं ऑर्गेज़्म का झूठा नाटक कर सकती हूं। यूं लगा कि मुझे यह करना ही है। हालांकि मैंने सेक्स के बारे में अभी हाल में ही पूरे जोश के साथ पता करना शुरू किया था लेकिन सच्चाई यही है कि मुझे इसके बारे में बहुत कम जानकारी थी।
मुझे याद है कि जब मैं 15 साल की थी तब एक छोटे शहर से निकलकर दिल्ली शिफ्ट हो गई थी। उस समय मुझे पता भी नहीं था कि सेक्स होता क्या है? मेरे लिए सेक्स के बारे में जानने का सबसे भरोसेमंद स्रोत हिंदी फिल्में हुआ करती थीं। जो छवि मेरे दिमाग में बसी हुई है, वह है हीरोइन के चेहरे का जाना-माना क्लोज़-अप। जब हीरो उसके गले की खुशबु ले रहा होता है, उस वक्त हीरोइन अपनी भौहों को ऐसे सिकुड़ती थीं मानो उसको गणित का कोई मुश्किल सवाल हल करने के लिए दे दिया गया हो। ऐसा लगता था जैसे उसे काफी दर्द हो रहा है लेकिन वह दर्द बहुत सुखद था।
मेरा सेक्स करने का आईडिया
मुझे अमेरिकी टीवी शो ‘गॉसिप गर्ल’ और ‘द ओसी’ जिनमें जवान युवक-युवतियों के बीच ज़ोरदार म्यूज़िक के साथ हमेशा ही उग्र तरीके का सेक्स होता था। उससे भी सेक्स के बारे में जानकारी मिली थी। ‘गॉसिप गर्ल’ की सारी बिंदास लड़कियां खूब मज़े किया करती थीं। जिन पार्टियों में वे जाती थीं, वहां के बाथरूम में ही (शानदार कपड़ों में) सेक्स करने लग जाती थीं और बाथरूम से शुरू करके धीरे-धीरे बेडरूम का रुख करती थीं। इसके बाद कपड़े उतारे जाते थे (साथ-साथ कामुक क्रिया भी चल ही रही होती थी)। लड़कियां अपनी भौहें सिकुड़ते हुए उस सुख का आनंद लेते-लेते सिर पीछे झुका लेती थीं। आखिर में वे चादर के अंदर चले जाते थे और टीवी स्क्रीन धीरे-धीरे काली हो जाती थी।
मेरे पहले रिश्ते में सेक्स के विषय में बात करने की शुरुआत मैंने ही की थी। मैंने ही होटल में कमरा भी बुक किया था। मैंने तो दिल्ली के जी.के मार्केट से सस्ते लाल रंग के लेस वाले अंडरगारमेंट्स भी खरीदे थे। टीवी पर हमेशा एक सुंदर जोड़ा मज़ेदार सेक्स करता रहता था। यह सब देखकर मुझे लगता कि मैं भी अपना अफसाना कुछ ऐसा ही बनाऊं और यह मेरे रिश्तों और मेरे जीवन के अन्य सभी पहलुओं के लिए भी सच ही है। ज़्यादातर लोगों की तरह ही मुझे भी लगता है कि मुझे पसंद किया जाना चाहिए और इसकी ज़रूरत भी है। मैं कोशिश करती हूं कि कोई पॉपुलर तरीका चुनकर फिर अपने जीवन को उसी स्क्रिप्ट के अनुसार जिऊं लेकिन ऐसा बहुत कम ही हो पाता है।
मैंने सीखा सेक्स का तरीका
जब बात सेक्स की ना हो तब मुझे थोड़ा बहुत पता चल जाता है कि असली ज़िंदगी अक्सर स्क्रिप्ट के अनुसार नहीं चलती है। जब बात सेक्स की हो तो मुझे सब कुछ या इस पार दिखता है या उस पार! बीच में कुछ भी नहीं। मैंने जितनी भी फिल्में और टीवी शो देखी हैं, उन सभी में केवल अनोखा सेक्स ही किया गया है, जिस वजह से लोग अगली सुबह उठते भी हैं तो मुस्कुराते हुए या फिर उन फिल्मों में इतना बुरा सेक्स होता है कि वह लोग बीच रात में ही वहां से उठ कर चले जाते हैं।
हर बार अलग-अलग तरह से सेक्स करने के लाखों तरीकों के बारे में कहीं पर कोई ज़िक्र ही नहीं है। इस वजह से मैंने यही सीखा कि सेक्स एक निश्चित तरीके से ही किया जा सकता है। मैंने यह भी सीखा है कि अगर सेक्स अच्छा नहीं रहा तो वह एकदम बर्बाद सेक्स ही कहलाएगा और मैं अपने रिश्तों को खराब सेक्स की कैटेगरी में नहीं गिनना चाहती थी मगर क्या मेरा ऑर्गेज़्म का नाटक करना बुरा सेक्स नहीं कहलाएगा?
मैं असमंजस में थी। यही कारण था कि मुझे यह कहने में इतनी हिचक होती थी कि मुझे हर बार सेक्स करने के दौरान ऑर्गेज़्म का एहसास नहीं होता है। मैं ऐसा कह देती तो यह स्पष्ट हो जाता कि मेरी सेक्सुअल लाइफ एकदम परफेक्ट नहीं है और शायद यही कारण है कि मैं जो यह सब इतना कर रही थी, मैंने इसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की।
मैं छोटी चीज़ों को लेकर तो खुद के साथ ईमानदार रह पाई। जैसे कि क्यूबन सिगार पसंद ना आना लेकिन बड़ी चीज़ें जो मायने रखती थीं, उन पर ईमानदार नहीं रह पाई। मुझे याद है कि मैंने अपने पार्टनर के सामने कबूल किया था कि मुझे पक्का यकीन नहीं कि मुझे जो एहसास हो रहा है वह ऑर्गेज्म ही है। यह भी याद है कि यह सुनकर वह कुछ खास निराश नहीं हुआ था लेकिन इससे मेरे सेक्सुअल व्यवहार में कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ा।
उस रिश्ते को समाप्त हुए कई साल हो चुके हैं। ऑर्गेज़्म की संख्या क्या थी या सेक्स की मात्रा कितनी थी, यह सब तो मुझे याद नहीं लेकिन मुझे बस इतना याद है कि यह प्यार से भरपूर कामुकता वाला रिश्ता था। यह मजे़दार इसलिए भी था क्योंकि हम दोनों इससे हर दिन कुछ सीख रहे थे और इसमें कुछ नयापन तलाश रहे थे। लगभग हर बार मैंने सेक्स का भरपूर आनंद उठाया। भले ही हर बार उन्माद ना महसूस किया हो।
मैंने दुःख में किया ऑर्गेज़्म का नाटक
उसके बाद मेरा एक और पार्टनर बना जिसके साथ मेरा यौन सम्बन्ध काफी अच्छा रहा लेकिन ऐसा रिश्ते की शुरुआत में ही था। मैं जितना इस रिश्ते में दुःखी होती गई, उतना ही मैंने झूठे ऑर्गेज़्म का दिखावा करना शुरू कर दिया। तब तक मुझे यह भी पता चल गया था कि इसमें मुझे ज़रा भी मज़ा नहीं आ रहा था लेकिन मुझे उससे डर लगता था।
मैं मन में कैलकुलेट कर लेती थी कि मुझे कितनी देर बाद यह कहना है कि मेरा उन्माद आ गया ताकि उसे भी कोई शंका ना रहे। इस बार सेक्स मुझे इमोशनली घाव दे रहा था और मुझे यह पता था, फिर भी मैं इस झूठ को (सेक्स और बाकी रिश्ते को) तब तक चलाती रही, जब तक मुझसे यह और बर्दाश्त नहीं हो पाया।
मैं सोचती हूं शायद यह सब पैदाइशी ट्रेनिंग का नतीजा है कि औरतों को ही संकोची होकर पुरुषों के अहंकार को शांत करना होता है। शायद इसकी वजह है वह ट्रेनिंग जो रोमांस के विषय में मुझे मिली है, वही कि आप प्यार में पीछे नहीं हट सकते। खैर, मैंने उससे प्यार तो किया था लेकिन काश किसी ने मुझे बताया होता कि तुम प्यार में पीछे भी हट सकती हो और हटना भी चाहिए, तब शायद मैं खुद को सालभर की उस तकलीफ से बचा लेती।
कामसुख की ज़िम्मेदारी
एक महिला और पुरुष के बीच विषमलैंगिक सेक्स के मेरे अनुभव में हम पुरुष के ऊपर अच्छे प्रदर्शन का बहुत दबाव डालते हैं और यह सही नहीं है। सेक्स दोनों के कामसुख के लिए है और इसलिए यह कामसुख देने की ज़िम्मेदारी दोनों की बनती है। मैं अपने जैसी कई महिलाओं को जानती हूं, जो अपने कामसुख की ज़िम्मेदारी नहीं लेती हैं।
हम आदमियों के सेक्स के हुनर और उनकी इस मामले में दरियादिली पर निर्भर रहते हैं। बाद में घूमकर उनपर इल्ज़ाम लगाते हैं कि वह बिस्तर पर स्वार्थी थे। भले ही इंटरनेट पर हो रहे सेक्सुअल फ्रीडम के विषय में जो बातें होती हैं, हम उनपर चर्चा करते हैं लेकिन हम खुद अपने कामसुख को गंभीरता से नहीं लेते।
जब भी मुझे कामसुख का एहसास नहीं हुआ, तब मैंने बस खुद से कहा, ‘अरे कोई बात नहीं, इससे इतना कोई फर्क नहीं पड़ता’ लेकिन हमारी यह सोच सेक्स समेत कई पहलुओं पर लागू होती है और ऐसा हम सबके लिए है।
सेक्स से पता चलता है व्यवहार
मेरा मानना है कि हम सेक्स के दौरान कैसा व्यवहार करते हैं, उससे पता चलता है कि हम कैसे इंसान हैं? मैं सौम्य और झगड़ों से दूर रहने वाली महिला हूं। मुझे लगता है मैंने अपनी सेक्स लाइफ में कई सालों तक सिर्फ विनम्र दिखने के लिए झूठे ऑर्गेज़्म का नाटक किया।
मुझे नहीं लगता कि मैं खुद के साथ पूरी तरह से ईमानदार थी। मुझे नहीं लगता कि मैंने ज़्यादा या बेहतर की मांग की। ठीक उसी तरह जैसे मुझे सिखाया गया था कि अच्छे बच्चे जब किसी के घर जाते हैं, तह वहां एक बार स्नैक्स लेने के बाद दोबारा या तीसरी बार दिया भी जाए तो वह नहीं लेते। मैंने यही ट्रेनिंग अपने सेक्स लाइफ में भी बरकरार रखी। मुझे यह नहीं पता चला था कि मेरे आस-पास की कई महिलाएं इस लॉजिक को नहीं मानती हैं। मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी असल चाहत के साथ ही बेईमानी कर रही थी और यौन सुख के मामले में अपने पार्टनर की तुलना में खुद को काफी नीचे मान रही थी।
सेक्स का आनंद तभी, जब जुड़ाव हो
बाद के वर्षों में जब भी कभी कैज़ुअल सेक्स से आमना-सामना हुआ, तब भी मैं झूठे ऑर्गेज़्म का नाटक करती रही लेकिन अब मैं अपने दोस्तों को खुलकर बता पा रही थी कि सेक्स अच्छा नहीं रहा। जिस तरह से मैं यह बात कहती, मेरे शब्दों से ही पता चल जाता कि मेरी पूरी उम्मीद आदमी से होती थी कि वही सारे काम करेगा।
यह उचित सोच नहीं है। मैंने कभी अपनी पसंद-नापसंद बताने की पहल नहीं की। इन नए छोटे समय के कैज़ुअल संबंधों में ज़्यादा कुछ दांव पर नहीं लगा था और शायद ही कभी इनमें मैंने ऑर्गेज़्म मह्सूस किया।
मैं अब समझ चुकी हूं कि मैं सेक्स का असली आनंद तब लेती हूं, जब उस व्यक्ति से मेरा एक मज़बूत इमोशनल और रोमांटिक जुड़ाव हो। अगर मैं किसी से प्रेम में जुडी हूं, तो उसके साथ सेक्स करने में मुझे ज़्यादा आनंद मिलता है, इसलिए कैज़ुअल सेक्स मुझे कुछ खास आनन्द नहीं दे पाता है लेकिन तब तक मुझे एक नई इमेज मिल चुकी थी, जिसमें मैं खुद को फिट करने की कोशिश कर रही थी।
वह इमेज थी एक कूल सिंगल गर्ल की, जो शहर में तितली जैसी उड़ती रहती है। इस नई इमेज के अनुसार अगर वह लड़की सेक्स नहीं कर रही या डेट पर गई और सेक्स बढ़िया नहीं रहा, तह वह कूल सिंगल गर्ल नहीं हैं, यानि सब बेकार।
सेक्स को लेकर मैं कूल थी
पीछे मुड़कर देखती हूं तो अब समझ आता है कि असल में मैं बस यह चाहती थी कि मैं किसी के प्यार में आ जाऊं और कोई मेरे प्यार में आ जाए। इसके बजाय मैंने यह दिखाने की कोशिश की कि मुझे किसी भी तरह का कोई कमिटमेंट नहीं चाहिए और कैज़ुअल सेक्स से भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।
मैंने अपने दोस्तों को उन सभी लड़कों के बारे में भी बताया, जिनके साथ मेरे उस वक्त सम्बन्ध थे और मैं इस चीज़ को लेकर बिल्कुल कूल थी। ऐसा नहीं था कि मुझे इसमें मज़ा नहीं आ रहा था लेकिन यह सब दिल के अरमान कम थे और एक बड़े शहर में एक जवान, बिंदास, सिंगल और आज़ाद लड़की की भूमिका निभाने का अरमान ज़्यादा थे।
ऑर्गेज़्म का नाटक अब नहीं करूंगी
करीब साल भर पहले मैंने फैसला किया कि मैं झूठे ऑर्गेज़्म का नाटक अब नहीं करूंगी। शुरुआत में कैज़ुअल सेक्स के दौरान जब मुझसे पूछा जाता था, “क्या मेरा ऑर्गेज़्म हुआ?” मैं ना में जवाब देती थी, जिसके बाद वहां मायूसी छा जाती थी फिर इस बात की चर्चा होती थी कि क्यों मुझे ऑर्गेज़्म महसूस नहीं हुआ लेकिन अब पहली बार मुझे मेरे पुरुष पार्टनर्स को यह बताने की छूट थी कि बिस्तर पर वह ऐसा कोई कमाल नहीं कर रहे थे और ना ही कोई इम्तिहान दे रहे थे। एक और बात थी जिसे समझने के लिए मुझे कोशिश करनी पड़ी। मुझे अपनी एक और सोच बदलनी पड़ी कि सेक्स तब ही खत्म होता है, जब पुरुष पार्टनर का वीर्यपतन हो जाए। यह बात दिमाग से निकालनी थी।
मैं अब एक ऐसे रिश्ते में हूं, जो काफी अच्छा है और सेक्स भी बहुत अच्छा है। मैं अपने ऑर्गेज़्म का नाटक नहीं करती और हम अक्सर अपनी पसंद-नापसंद की बातें करते हैं। यह कह पाना कि ‘हां, ऐसा और करो’ या ‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं करो, प्लीज़’ काफी सही लगता है। हमारे बातचीत के माध्यम से मैं अपनी खुद की कामुकता को और करीब से समझ पा रही हूं। अपने से सवाल पूछ पा रही हूं।
हां, मेरा स्वभाव ऐसा नहीं है लेकिन मैं अपने में यह बदलाव लाने कोशिश कर रही हूं। मैंने अपने पार्टनर को अच्छे से समझा दिया है कि मेरे यौन सुख मिलने के एहसास का एक पैमाना है। यह भी कि जिस क्षण मुझे छुए जाने का एहसास होता है, मुझे उस क्षण से ही यौन सुख का एहसास होने लगता है इसलिए अगर मैं ऑर्गेज़्म की सतह तक ना भी पहुंच पाऊं, तो भी इससे मुझे कोई दुःख नहीं होता है।
मेरे लिए वह कोई सबसे बड़ी जीत तो नहीं है। मैंने पहले भी अच्छा सेक्स किया है लेकिन अब मैं ईमानदारी से सेक्स करने की कोशिश कर रही हूं और यह सच है कि मुझे यह काफी पसंद भी आ रहा है। इस चीज़ ने मुझे अपने पार्टनर के साथ हमारे रिश्ते के अन्य पहलुओं में भी ईमानदार रहने में मदद की है।
सेक्स के नए तरीके
हालांकि, मेरा खुद के साथ का सम्बन्ध सुधारना और मुश्किल है। मैं अभी भी सेक्स के दायरे में या उससे बाहर लोगों से थोड़ा ज़्यादा मांगने में असमर्थ हूं। मैं एक ‘ठीक है और ‘हां, शुक्रिया’ वाली महिला हूं। मैं बिना सोचे समझे यह बातें बोल देती हूं लेकिन मैं अपने इस व्यवहार को बदलने के लिए प्रयास करती रहना चाहती हूं। आदर्श रिश्ते की चाहत एक फालतू सा बोझ है, जिसे हम अक्सर उठाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि हम आदर्श रिश्ते पर पहुंचते नहीं हैं। उसके आस-पास कहीं घूमते रहते हैं, कुछ ट्रायल एंड एरर के साथ।
यह कुछ ऐसा है, जैसा वह अनुभव जब पहली बार आप बिस्तर में किसी के साथ लिपटते हैं। यह सही से नहीं हो पाता। आपको खुद को आगे-पीछे करने की ज़रूरत होती है। कोई एक बांह हिलाने की, कोई एक पैर उठाने की, रजाई ठीक करने की, तकिया की जगह बदलने की, खुद को फिर से व्यवस्थित करने की और तब जाकर शायद आपको लेटने की एक सही पोजिशन मिले लेकिन वह भी बस थोड़े देर के लिए ही होगा और आपको फिर से यही सब दोहराना पड़ता है।
यह सब करना पड़ता है, यह समझने के लिए कि आपको क्या सूट कर रहा है। मुझे लगता है कि इसी तरह सेक्स में भी खुद को नए तरीकों से ढालने की कोशिश में उतना ही मज़ा है, जितना ढल लेने के बाद का मज़ा।