इंसान माइक्रोप्लास्टिक से बुरी तरह घिर चुका है और आप इससे भाग नहीं सकते हैं। सुबह टूथपेस्ट के साथ ही यह इंसान के मुंह में पहुंच रहा है, यहां तक कि हमारे मल में भी माइक्रोप्लास्टिक के अंश मिले हैं।
इंसान रोज़ाना यह खा रहा है, पी रहा है और पहन भी रहा है। हाल ही में कनाडाई वैज्ञानिकों के अध्ययन में सामने आया कि एक इंसान एक दिन में माइक्रोप्लास्टिक के तकरीबन 300 पार्टिकल्स खा रहा है या निगल रहा है। वहीं, एक साल की बात की जाए तो हम हज़ारों माइक्रोप्लास्टिक अपने अंदर उड़ेल रहे हैं। आप जो बिसलेरी या बड़े ब्रैंड्स का पानी पी रहे हैं, उसमें भी माइक्रोप्लास्टिक मौजूद हैं।
ऑर्ब मीडिया नामक संस्था ने नौ देशों से पानी की बोतलें खरीदी और उन पर टेस्ट किया। लगभग हर बोतल में माइक्रोप्लास्टिक मिले हैं, जिसमें भारत का लोकप्रिय ब्रैंड बिसलेरी भी शामिल है।
आखिरकार माइक्रोप्लास्टिक होता क्या है और यह किन-किन चीज़ों में मौजूद है?
पांच मिलीमीटर से कम परिधि वाले प्लास्टिक के कणों को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। जब प्लास्टिक टूट-टूटकर बहुत छोटे कणों में बदल जाता है तो उसे माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। ये टूथपेस्ट, मेकअप के सामान (क्रीम, क्लींजिंग मिल्क व टोनर), सी फूड (जैसे-मछली, नमक) और पीने के पानी में मौजूद हैं। इसके अलावा, सिथेंटिक टेक्सटाइल से बने कपड़ों को जब भी धोया जाता है, उनसे काफी अधिक माइक्रोप्लास्टिक निकलते हैं।
रिसर्च के मुताबिक, छह किलोग्राम कपड़ों को धोने पर 7,00,000 से अधिक माइक्रोप्लास्टिक फाइबर निकलते हैं और महासागरों में 35% माइक्रोप्लास्टिक सिथेंटिक टेक्साटाइल से ही पहुंचते हैं। हालांकि, पर्यावरण में सबसे ज़्यादा माइक्रोप्लास्टिक टायरों के ज़रिए घुलते हैं। सड़क के संपर्क में आते ही टायर बहुत ही बारीक माइक्रोप्लास्टिक छोड़ते हैं, जो पानी और हवा के संपर्क में आते ही हर जगह पहुंच जाते हैं।
इंवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी जर्नल में छपी रिसर्च में बताया गया है कि माइक्रोप्लास्टिक बुरी तरह से हमारी खाद्य श्रृंखला में घुस चुके हैं। वैज्ञानिकों ने इस रिसर्च में बताया कि यदि आप दिल्ली और बीजिंग जैसी दूषित हवा वाली जगहों में रह रहे हैं, तो केवल सांस के ज़रिए ही अनुमानत: 1.21 लाख माइक्रोप्लास्टिक के कण आपके शरीर में जा सकते हैं।
वहीं, आप बोतलबंद पानी पीते हैं तो एक साल में करीब 90,000 प्लास्टिक के कण निगल लेते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी इंसान के शरीर में प्लास्टिक के कितने कण जाएंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वह कहां रहता है और क्या खाता है?
एक अन्य रिसर्च के अनुसार, दुनिया में कई जगह नमक में polyethylene terephthalate नामक थर्मोप्लास्टिक पॉलीमर मिला है और इसी प्लास्टिक के फॉर्म से बोतलें बनती हैं। इस प्लास्टिक के फॉर्म को डिकम्पोज़ होने में 400 साल लग जाते हैं।
कब हुई थी प्लास्टिक की खोज?
प्लास्टिक की खोज 1907 में हुई थी लेकिन 1950 के दशक के बाद से प्लास्टिक के उत्पादन में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई और अब दुनियाभर में 30 करोड़ मीट्रिक टन प्लास्टिक का उत्पादन हो रहा है। इसमें से 1.27 करोड़ टन प्लास्टिक हर साल समुद्रों में जा रहे हैं।
प्लास्टिक का उत्पादन 2050 तक तीन गुना होने की उम्मीद है। दुनिया में सुमद्र की सबसे गहरी ज्ञात जगह ‘मारियाना ट्रेंच में भी माइक्रोप्लास्टिक पहुंच चुके हैं। हाल ही में चीनी शोधकर्ताओं को मारियाना ट्रेंच के प्रति लीटर पानी में 2.06 से 13.51 माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं, जो समुद्री सतह में मिलने वाले माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़ों से ज़्यादा हैं।
माइक्रोप्लास्टिक का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
जब यह माइक्रोप्लास्टिक आपके शरीर के अंदर पहुंच जाते हैं तो क्या होता है?
- क्या ये आपके ब्लड में घुल जाते हैं?
- क्या ये आपके पेट में समा जाते हैं?
- या फिर ये बिना कोई नुकसान पहुंचाए मल के ज़रिए निकल जाते हैं?
वैज्ञानिक अब भी इस बात पर एकमत नहीं हैं कि हमारा शरीर कितने माइक्रोप्लास्टिक कण को सहन कर सकता है या इनकी कितनी मात्रा शरीर को नुकसान पहुंचा सकती है? 2017 में लंदन स्थित किंग कॉलेज के अध्ययन में सामने आया था कि ज़्यादा मात्रा में प्लास्टिक निगलने का प्रभाव शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है।
सभी प्लास्टिक के अपने अलग-अलग नुकसान होते हैं, कुछ प्लास्टिक क्लोरीन जैसे ज़हरीले केमिकल से बने होते हैं, तो कुछ लेड से बने होते हैं। शरीर में इनकी अधिक मात्रा जाने से इससे हमारे इम्यून सिस्टम को नुकसान हो सकता है।
अमेरिकी यूनिवर्सिटी जॉन हॉपकिंस के शोधकर्ताओं ने भी यही बताया कि माइक्रोप्लास्टिक वाले सी फूड खाने से हमारी पाचन क्रिया पर प्रभाव पड़ता है और इम्म्यून सिस्टम प्रभावित होती है। कुछ वैज्ञानिकों के मुताबिक, 130 माइक्रोमीटर से छोटे प्लास्टिक के कण में यह क्षमता है कि वे मानव उत्तकों को स्थानांतरित कर शरीर के उस हिस्से की प्रतिरक्षा तंत्र को प्रभावित कर दे।
ग्रांट यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंगलिया में इकोलॉजी के प्रोफेसर एलेस्टेयर ने बताया कि कितने माइक्रोप्लास्टिक हमारे फेफड़ों और पेट में जाते हैं और उनसे क्या खतरे हो सकते हैं, इसे ठीक से समझने के लिए अभी और रिसर्च की ज़रूरत होगी।
अगर आप व्यक्तिगत स्तर पर प्लास्टिक की खपत कम करना चाहते हैं, तो आप दोबारा इस्तेमाल की जा सकने वाली यूटेंसिल्स का इस्तेमाल कर सकते हैं। अपने खाने को प्लास्टिक बैग में पैक ना करने की बजाय उसे रियूज़ कंटेनर में पैक करें, जैसे स्टील का डिब्बा। ऐसे ही हज़ारों तरीके हैं, जिससे प्लास्टिक की खपत कम हो सकती है। इतनी सारी रिसर्च से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि माइक्रोप्लास्टिक और इंसान के खाने का अब बहुत करीबी रिश्ता हो गया है और इसके टूटने के आसार बहुत कम हैं।
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साभार:
National Geographic, Global News, Global Citizen, The Guardian, BBC , National Geographic, National Geographic