एक पूरा साल बीत गया था। जब घर से ऑफिस और ऑफिस से घर जाने और शनिवार-रविवार के दिन अपने गाँव जाने के अलावा मैंने कुछ नहीं किया। पापा बीमार थे और अभी भी कोमा में हैं, तो बस उसी के बारे में सोचना मेरी दिनचर्या बन गई थी। मैं बहुत चिड़चिड़ा, उखड़ा हुआ, नीरस और उदास होने लगा था। इसलिए सोचा कि इस अवसाद को तोड़ने के लिए कहीं घूमने जाना चाहिए। मैंने अपने दोस्तों से बात की और घूमने का प्लान बनाना शुरू कर दिया।
तीन दोस्तों के समूहों में बात कर ली। सोचा जो भी जाएगा उसके साथ हो लूंगा। एक ग्रुप चलने को राज़ी हो गया था तो उनके साथ 01 जून 2019 को देहरादून मिलने की बात तय हो गई। बाकी दोनों समूह से माफी मांगते हुए मैंने 31 मई 2019 की शाम अपना बैग पैक किया। मेरे साथ मेरा दोस्त आलोक था। हम दोनों ने शाम को बस पकड़ी और अपनी यात्रा के लिए तैयार हुए। बहुत गर्मी थी इसीलिए जल्दी से पहाड़ पर पहुंच के वहां की ठंडी और साफ हवा में खुलकर सांस लेने का उत्साह भी था।
रात दो बजे तक हम अपने गंतव्य पहुंच गए और सो गए। हमें सुबह 6 बजे निकलना था। ऐसा हमसे कहा गया था कि हमारी बस 7:30 की थी जबकि बस 8:30 की थी। हमारे दोस्त हमारे लेट होने की आदत से अनजान नहीं थे। खैर, बस पकड़ ली और सब बैठ गए। मेरे दो दोस्त बेरा और संगी के अलावा किसी ने किसी से कोई बात नहीं की। वह दोनों लड़ाई हमेशा लड़ते रहते इसलिए उनका चुप रहना नामुमकिन था। मैं बस में अपने ग्रुप के बारे में सोच रहा था जो बस अभी-अभी बस में बैठने के बाद ही इकट्ठा हुआ है।
ग्रुप का परिचय
इस ग्रुप में सबसे पहला परिचय मेरा यानि मैं सनी। मेरे अलावा ग्रुप में दो बहनें हैं वायु और वेरा। वायु 16 साल की है और अभी-अभी उसने 10वीं कक्षा, फर्स्ट डिवीज़न से पास की है। लोगों को देखती ज्यादा है, बात काम करती है और किसी भी तरह की कोई सांस्कृतिक हलचल हो तो उत्साहित होकर उसमें भाग भी लेती है। वेराआज ही 14 साल की हुई है। अभी थोड़ी दिनों में हम उसका जन्मदिन भी मनाने वाले थे। वह 9वीं कक्षा में है और अपनी बड़ी बहन के उलट खूब गप्पे मारती है।मस्ती करना, लोगों को चिढ़ाना और उनपर कमेंट पास करना उसका पसंदीदा टाइम पास है। कोई उसकी बहन को कुछ बोल दे तो बस अपने रौद्र रूप में आ जाती है।
फिर हमारे साथ हैं दो शादी-शुदा जोड़े उनमें से एक है, आलोक-टीपू, दूसरा है संगी-बेरा। दोनों जोड़े एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। जहां आलोक-टीपू का प्यार एक किमी दूर से देखा, सुना और सूंघा भी जा सकता है। उसी तरह बेरा-संगी की लड़ाइयां भी देखी, सुनी मगर समझी नहीं जा सकती क्योंकि वह उनकी अपनी है और उनके प्यार का तरीका है।
मुझे तो लगता है कि अगर वे लड़ना छोड़ दें तो शायद हो सकता है कि दोनों के प्यार में कुछ कमी आ जाएगी। जो हमारी 8वीं सदस्य थी उसका नाम है एंजेल उर्फ अंजलि। वह केरल से है और 18 साल की है। टूटी-फूटी हिंदी बोलती है और एक नंबर की मस्तीखोर है। वह पहली बार ट्रैकिंग पर जा रही है इसलिए बहुत उत्साहित है। तो इस तरह हम 8 लोगों की टीम है। जिसमें दो शादीशुदा जोड़े, बहनों का जोड़ा और बाकी बचे मैं और एंजेल तो हम किसी के भी साथ अपना जोड़ा या तिकड़ा तो चौकड़ा बना सकते थे।
सुहाना सफर और ढ़ेर सारी मस्ती
खैर, ग्रुप के बारे में सोचने के बाद जब दिमाग खाली हुआ तो मैं अपनी सीट से उठकर अपनी पीछे वाली सीट,जहां वायु, वेरा और एंजेल बैठे थे वहां चला गया। सफर 12 घंटे का था और सफर सुहाना भी बनाना था तो संगी और बेरा के साथ बैठकर उनकी लड़ाई सुनने से बढ़िया था कि पीछे जाकर कुछ मस्तीखोरी की जाए। वायु, वेरा और एंजेल भी बोर हो रहे होंगे इसलिए उन्होंने मुझ चौथे आदमी के लिए अपनी तीन सीट वाली जगह बनाई और हमारी मस्ती शुरू।
कभी हम गाना गा रहे हैं, कभी एक्टिंग कर रहे हैं तो कभी नाच रहे हैं। अब सोचिए कि दो लोग अपने अपॉजिट कानों में एक ही इयरफोन की बड लगाकर गाना सुन रहे हैं। जबकि वह अपने बगल के कानों में भी बड लगा कर सुन सकते हैं। उनको देख कर हम लोग खूब हंसे और इसी तरह की मस्तीखोरी रास्ते भर चलती रही।
गुज़रते पहाड़ और बहती नदी का नज़ारा
अब आलोक और संगी भी इस मस्ती में शामिल हो गए थे। आलोक ने मिमिक्री कर के दिखाई और फिर हम सब ने अंताक्षरी खेली। इन सबमें बस वाले हमारे सहयात्री भी हमें देखकर मज़े ले रहे थे। जब कभी कोई सुन्दर पहाड़ या नदी हमारी बस की खिड़कियों से होकर गुज़रती तो हम सब उसे देखकर उत्साहित होते और फोटो खींचते मगर सबसे ज्यादा उत्साहित एंजेल होती। इसी सफर में, बस ही में हमने वेरा का जन्मदिन भी मनाया।
बहुत सारे पहाड़ों, नदियों, पहाड़ी गाँवों और शहरों को पार कर के आखिरकार हमने अपने 8 घंटे का सफर पूरा किया और सांकरी गाँव पहुंच गए। उससे भी आगे अभी 11 km दूर तालुका गाँव जाना था। वहां जाने के लिए फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से परमिशन लेनी थी। वह ले ली गई और हम टैक्सी बुक कर आधे घंटे के बेहद खतरनाक रास्ते से शाम को 6 बजे तालूका पहुंच गए।
और गाइड मिल गया
तालुका पहुंच के हमें कमल को ढूंढना था जो वहीं तालुका का रहने वाला था और गाइड का काम करता था। जहां गाड़ी रुकी थी उसके सामने कमल का ढाबा था। जहां कमल अपने 3 साल के बच्चे के साथ था। उससे परिचय हुआ और हमने उसे अपना हर की दून का प्लान बताया। वह राज़ी हो गया और अगले दिन की तैयारी शुरू हो गई। उसने हमें रहने की जगह दिखाई। जहां 3 कमरे थे। वहां पहुंच कर सब फ्रेश हुए और खाना खाकर सो गए।
अगली सुबह जब आंख खुली तो सामने खिड़की से पहाड़ दिखा जिस पर सुबह के सूरज की हल्की किरणें पड़ रही थी। वह पहाड़ बहुत ही सुंदर लग रहा था। खिड़की से थोड़ा और नीचे झांका तो एक किसान और उसकी बीवी अपने घर के सामने की थोड़ी सी ज़मीन पर, अपने दो बैलों और हल से कुछ बुवाई का काम कर रहे थे। पहाड़ पर बैलों की ऊंचाई थोड़ी छोटी होती है।
सबकुछ कैमरे में कैद किया
मैं कमरे से बाहर निकल कर खिड़की से झांकते इस नज़ारे को पूरा कर लेना चाहता था। इसलिए मैं कमरे से बाहर निकला और इस पूरे नज़ारे को अपनी आंखों में कैद कर लिया। मैंने अपनी आंखों में सब कुछ भर लिया फिर चाहे वह खुद पहाड़ हो या उस पर बने लकड़ी के घर और उनसे निकलता हुआ धुंआ, जो पहाड़ी हरियाली में बादल के जैसा लगता है। ऐसा लगता है, जैसे हर घर की छत पर लोगों का अपना एक निजी बादल हो। मैंने अपनी आंखों में अखरोट के पेड़, सेब के बाग, पहाड़ी बच्चों और पहाड़ी जानवरों को कैद कर लिया।
अब हमें नाश्ता करके अपने रास्ते पर निकल जाना था इसलिए जल्दी से तैयार होकर, मैं कमल के ढाबे पर पहुंचा और अपने बाकी दोस्तों का इंतज़ार करने लगा। उसके बाद हम सबने नाश्ता किया और अपने खानसामा के साथ, अपने रास्ते निकल गए।
अमूमन गाइड के साथ एक पॉटर और एक कुक होता है, तो गाइड ने हमें कुक दिया और अपने आप वह खच्चरों पर सामान लादकर चला गया। वह हमसे पहले अगली कैंप साइट पहुंचने वाला था और वहां जाकर टेंट लगा कर हम लोगों के खाने का इंतज़ाम करने वाला था। यह उनका रोज़ का काम है। वह अपने काम में माहिर और बहुत तेज़ होते हैं। जितनी दूरी हम एक घंटे में तय करते हैं, उतनी वह 15 मिनट में तय कर सकते हैं।
निर्मल ठंडे पानी का स्रोत
हम सबके पास अपने-अपने ट्रेकिंग बैग थे। जिनका वज़न औसतन 10 से 15 किलो के बीच रहा होगा। सबको अपने बैग उठाकर चलना था। थोड़ा चलने पर ही हमें तालुका से दिख रही टौंस नदी मिल गई। अब हमारा पूरा रास्ता उसी के किनारे था। नदी से आती आवाज़ इस बात की गवाह थी कि नदी का बहाव बहुत तेज़ था। कभी घना जंगल तो कभी खुला आसमान, कभी गहरी छांव तो कभी काटती हुई धूप, कभी सुंदर फूलों की झाड़ियां तो कभी ठंडे पानी का स्त्रोत।
पूरे रास्ते पानी की कोई कमी नहीं हुई। एकदम ठंडा पानी किसी भी मिनिरल वाटर कंपनी को चुनौती पेश करता हुआ बड़ी ही शान से बहता जा रहा था और जाकर नदी में मिल जाता था। फिर पहाड़ से नीचे मैदानों में प्रवेश करता है और धीरे-धीरे नाले की शक्ल अख्तियार कर लेता है। जिसके पानी को बड़ी-बड़ी कंपनियां बोतलों में बंद करके हमें बेचती है। इससे एक बात तो समझ आती है, नदी को नाला यह बड़ी कम्पनियां बनाती हैं और फिर नाले के पानी को साफ करके बेचती भी बड़ी कंपनियां ही हैं।
प्रकृति भेदभाव नहीं करती
अपना ट्रेक पूरा कर के आते लोग बड़े खुश दिखतेष उनके साथ वहां के स्थानीय गाइड, पॉटर, कुक और हां खच्चरों को कैसे भूला जाए। सबसे ज़्यादा मेहनत तो बेचारे वे ही करते हैं। 60-70 किलो वज़न लादकर ले जाना और लादकर वापस लेकर आना। उनसे बढ़िया ट्रैकर कौन हो सकता है?
एक जगह का दृश्य याद आया। पूरे रास्ते पानी के खूब स्त्रोत थे। इंसान और खच्चर दोनों एक साथ पानी का स्वाद ले रहे थे। मैंने उनकी फोटो भी ली। खैर, यह किसी के लिए चिढ़ने की बात हो सकती है मगर चाहे इंसान हो या खच्चर किसी के लिए भी पहाड़ पर तो मज़बूरी है। जहां पानी पीने का एकमात्र स्रोत पहाड़ों से बहता हुआ सौता ही है, तो कोई कहां जाकर पानी पिए? वहां मैंने सीखा प्रकृति कभी भेदभाव नहीं करती। यह तो हम इंसान हैं, जो करते हैं।
हर जगह केवल टेंट थे
खैर, ऐसे चलते, गाना गाते, नाचते और खाते- पीते नदियों के मुड़ते, बहते, उखड़ते और उफनते अंदाज़ की खूबसूरती की बातें करते हुए हमारा सफर चलता रहा। दूर नज़र आते पहाड़ और उनपर जमी बर्फ पर पहुंचने के सपने देखते हुए हम अपने पहले पड़ाव पर पहुंचे।
पहला पड़ाव था ओसला गाँव। जहां किसी किसान का खेत था और उसने किराये पर चढ़ा रखा था ताकि टूरिस्ट लोग अपना टेन्ट गाड़ सकें और प्रकृति का आनंद ले सकें। खैर, खेती करते हुए हाड़-तोड़ मेहनत करके पैदा हुई फसल का दाम यह टूरिस्ट लोग एक ही बार में चुका देते हैं, तो फायदे का सौदा हुआ मगर साथ ही यह टूरिस्ट लोग उस पहाड़ को काटकर सपाट किए हुए खेत में अपनी गंदगी भी छोड़ जाते हैं, जो कि आज के समय की पहाड़ की सबसे बड़ी दिक्कतों में से एक है।
हमारा टेंट भी वही लगा। कुल तीन टेंट लगे। एक किचन टेंट और दो स्लीपिंग टेंट। स्लीपिंग टेन्ट में सिर्फ 6 लोग ही सो सकते थे तो मैं और बेरा किचन टेंट में अपने गाइड, कुक और पोटर के साथ सोए मगर सोने से पहले तो हमें आस-पास घूमना भी था। जहां हमें सीढ़ीदार पहाड़ी खेत में खड़ी गेहूं की फसल देखनी थी। पानी के सौते से चलती हुई एक अनाज पीसने की चक्की देखनी थी (हाइड्रोलिक पॉवर का एक देसी नमूना )।
बसंती स्टाइल में हमने डांस किया
फोटो खींचने और खिंचाने थे और हां, एंजेल के साथ बनाया हुआ प्लान भी पूरा करना था जिसमें आलोक को पेड़ से बांध कर उसकी बीवी टीपू से डांस कराना था , तो आलोक को बांधा भी गया। जब आलोक को बांध दिया तो हमने टीपू से डांस भी करवाया और वह भी बसंती स्टाइल में और फिर हम सबने भी डांस किया।
पहाड़ी गेहूं के खेतों के बीच एक दम साफ हवा और खुले आसमान के नीचे नाचना, गाना, हंसना और हंसाना। उफ्फ क्या अनुभव था।
उसके बाद हमने खाना खाया और पास ही एक दूसरे ग्रुप के लड़कों के पास जाने लगे, जिनसे अभी हाल ही में दोस्ती हुई थी। वह लोग बोनफायर कर रहे थे। हम वहां गए और गानों का दौर फिर से शुरू हो गया।
अंधेरी रात, खुला आसमान, साफ दिखते चांद और तारे जो की दिल्ली जैसे शहरों में अपवाद ही नज़र आते हैं। बगल से बहती हुई रूपिन नदी को देख कर बस एक ही गाना ध्यान आ रहा था। ये रातें ये मौसम नदी का किनारा ये चंचल हवा। पार्टी खत्म हुई और हम सब अपने अपने टेन्ट में जाकर सो गए। अगली सुबह जल्दी उठना था मगर खराब आदत उठे लेट ही। फ्रेश हुए, नाश्ता किया, बैग पैक करने के बाद चल दिए अगले पड़ाव की तरफ।
कलकती धार पर पहुंच गए
अगला पड़ाव था कलकती धार जो कि लगभग 8 किमी दूर था जिसे हमें पैदल ही पार करना था हम चले जा रहे थे कहीं रूक कर आराम करते तो कहीं पानी पीते। रास्ते में पहाड़ी औरतें अपने वज़न से भी ज़्यादा लकड़ी के बड़े-बड़े फट्टे उठाकर लेकर जाती हुई मिलती, तो उन्हें देख कर अपनी शारीरिक ताकत का गुरूर टूट जाता। क्या गज़ब के मेहनती और बहादुर लोग होते हैं पहाड़ियों में रहने वाले। शांत, खुशमिजाज, मिलनसार और बहादुर इतने की पहाड़ उनके सामने बौने नज़र आते।
वे खतरनाक से खतरनाक पहाड़ों को बहुत आसानी से पार कर जाते हैं। रास्ते में भेड़ों को चराने वाले मिलते और उनसे पूछते की कहां जा रहे हो या कहां से आ रहे हो, तो वह दूर कोई पहाड़ी चोटी दिखते जिसपर जाने के बारे में सोचना भी हमारे लिए नामुमकिन था। ऐसी ही दूसरी खतरनाक चढ़ाई वाली चोटी दिखाते और कहते की वहां जा रहे हैं। साधन के नाम पर उनके पास फटे हुए प्लास्टिक के जूते होते और सर्दी से बचने के लिए एक फटा कम्बल होता। सुरक्षा के लिए उनके पास पालतू कुत्ते होते हैं, जिनके गले में कांटेदार फंदा होता है।
यह फंदा इसलिए लगाते हैं कि जब पहाड़ी लेपर्ड उनपर हमला करे तो वह खुद ही घायल हो जाए क्योंकि वह हमेशा गर्दन पर ही हमला करते हैं। इन्ही सब सुंदर दृश्यों को देखते और सोचते विचरते हम आखिरकार कलकती धार पहुंच ही गए। वह एक बहुत बड़ा पहाड़ी बगियाल या पहाड़ी घास का मैदान था जो कि पूरा का पूरा टूरिस्टों के टेंट से भरा हुआ था।
चढ़ाई फिसलन भरी थी
हमारा भी टेन्ट वही लगा हुआ था। हम करीब 3 बजे तक वहां पहुंच गए थे। हमारा खाना तैयार था। हम सबने खाना खाया और जिनको आराम करना था वह आराम करने टेंट में घुस गए मगर मेरा मन तो पास ही एक छोटे-से पहाड़ को फतह करने का था इसलिए मैंने पहले टीपू और वेरा को उठाया और हमने चढ़ना शुरू कर दिया। चढ़ाई एकदम सीधी थी लेकिन फिसलन भरी थी। थोड़ा चढ़ने पर ओले पड़ने शुरू हो गए। बचने के लिए कुछ था नहीं इसलिए वापस उतरना पड़ा।
उतर कर मैंने आलोक को बुलाया और हमने रेनकोट पहनकर चढ़ना फिर से शुरू कर दिया। ओले अभी भी पड़ रहे थे और फिसलन थी। ऐसे में हमारे क्वेशुआ के जूते काम आए क्योंकि उनकी ग्रीप अच्छी थी इसलिए हम पहाड़ पर चढ़ गए। चढ़ने पर एक बहुत बड़ा सपाट घास का मैदान हमारे सामने था। वहां कुछ चीड़ के पेड़ थे और सामने से दिखाई दे रहा था एक झरना। जहां से वह गिर रहा था वहां एकदम सफेद बर्फ जमी हुई थी और उसके पीछे थे घने काले बादल। तब तक ओले और तेज़ी से गिरना शुरू हो गए और हमने भाग कर चीड़ के पेड़ों के नीचे छुपकर खुद को और कैमरे को बचाया।
पहाड़ी जीवन संघर्ष भरा है
ओले गिरना बंद हुए तो हमने पूरा मैदान तसल्ली से देखा, फोटो खींची। पहाड़ों पर चरती हुई भेड़ें और गायें कितनी खूबसूरत लग रही थी। मैदान जो था वहां एक लाइन से जगह-जगह टेन्ट लगे हुए थे। 90% टेंट पर क्वेशुआ लिखा हुआ था। यह एक विदेशी कंपनी है और हाईकिंग के प्रोडक्ट तैयार करती है। फिलहाल पहाड़ पर बस यही नाम दिखाई पड़ता है। चाहे जूते हो, कपडें, टेंट या कुछ भी हैकिंग से सम्बंधित हो तो बस क्वेशुआ।
पहाड़ पर रहने वालों के नसीब में वही प्लास्टिक का फटा हुआ जूता ही होता है, क्वेशुआ तो सिर्फ टूरिस्टों के पास होता है महंगा बहुत है ना इसलिए। खैर, यह सब अपनी आंखों और कैमरे में कैद करते हुए हम नीचे उतरना शुरू किए थोड़ी देर में नीचे उतरे तो भींगने और थकान की वजह से बुखार जैसा महसूस हुआ तो खाना खाया, दवाई ली और सो गए। अगले दिन जल्दी उठने का वादा अपने गाइड से करते हुए।
आखिरी मंज़िल की ओर हम बढ़ने लगे
सुबह उठे, फ्रेश हुए और हर बार की तरह मैं और बेरा सबसे पहले उठ गए और बाकियों के उठने का इंतज़ार करने लगे। उठ जाने के बाद लड़कियों के तैयार होने का भी इंतज़ार करना था क्योंकि उनको थोड़ा बहुत मेकअप भी करना होता था। खैर, मैं और बेरा कुढ़ते हुए उनका इंतज़ार करने लगे। सब तैयार हो गए। नाश्ता हो गया और हम अपने आखिरी मंज़िल की तरफ रवाना हुए। मंज़िल पर पहुंच के हमें वापस यही आना था आज ही।
कुल मिलाकर 16 किमी का सफर था आज का, 8 किमी जाना और 8 किमी आना। 1 किमी ही चले थे कि एंजेल की तबियत खराब हो गई। उसे उलटी शुरू हो गई। उसने कुछ खाया नहीं था शायद इसलिए उसकी तबियत खराब हुई इसलिए अब उसे अपने साथ आराम-आराम से लेकर जाना था।
मैंने और आलोक ने उसे लेकर जाने की ज़िम्मेदारी ली और गाना गाते, कहानी सुनाते हुए उसे प्रेरित करते हुए हम उसे लेकर जाने लगे। 4 km बाद गिरते हुए झरने के किनारे एक चाय वाले की दूकान थी तो वहां चाय और नाश्ता किया गया तो एंजेल की तबियत सुधरी। पहाड़ों में बारिश की वजह से हर बार रास्ता बदल जाता है क्योंकि पुराना रास्ता ढ़ह जाता है। कई जगह हमें बड़े ही खतरनाक रास्तों से जाना पड़ा फिर जाकर आई वह जगह, जिसे देखकर हमसब गदगद हो गए।
एक सौते पर बहुत बर्फ जमी हुई थी। हमारे रास्ते में पहली बार बर्फ मिली और एंजेल ने तो पहली बार पहाड़ी बर्फ को देखा। हम सबने खूब फोटो लिए और बर्फ में खूब खेला। ऐसे ही खेलते, गप्पे मारते, मजा़क करते हुए हम सब अपने आखिरी पड़ाव हर की दून घाटी पर पहुंच गए। क्या गज़ब की सुंदर जगह है वह, कलकल करके बहती हुई रूपिन नदी। जिसके किनारे बैठ कर हमने खाना खाया और फिर उसी नदी में मुंह डाल कर जानवरों की तरह पानी पिया।
पहाड़ों से घिरी हुई है हर दून की घाटी
जब हम वहां पहुंचे तो दोपहर का एक बज रहा था। बारिश अमूमन दो बजे के बाद होती है। पहाड़ों पर तो मौसम एकदम साफ था। आसमान एकदम आसमानी रंग से लबरेज था। कहीं-कहीं सफेद बादल भी दिख रहे थे। हमारे बगल से रूपिन नदी बह रही थी वह भी एकदम साफ थी।
हम लगभग 3500 फीट की ऊंचाई पर थे। उतनी ऊंचाई पर तो कहीं-कहीं चीड़ के पेड़ नज़र आ रहे थे। हर की दून घाटी तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी हुई है। एक तरफ स्वर्गारोहिणी पर्वत उसके बगल में ब्लैक पीक और ऐसे ही पहाड़ों की झड़ी सी लगी है। वहां तीन दिशाओं में। हर चोटी बर्फ की सफेद चादर ओढ़े हुए थी। वह इतने सुंदर लग रहे थे कि शायद बादल को उन पर प्यार आ गया हो और इसीलिए वह बार-बार अलग-अलग चोटी को चूमने झुक जाता हो। कभी इस चोटी तो कभी उस चोटी।
सबकुछ इतना साफ और निर्मल था इसलिए मेरे पिछले कई वाक्य में साफ शब्द बार-बार आया है। उस घाटी में घास के भी बड़े-बड़े मैदान थे। जहां ओसला गाँव के जानवर चार रहे थे। ओसला गाँव वहां से लगभग 18 किमी दूर है और वहां से लोग अपने जानवर चराने इतनी दूर तक आ जाते हैं।
हथेलियों को जोड़कर पानी पियो
वहां हमने लगभग दो घंटे बिताये। वहां अद्भुत शान्ति थी। कोई हॉर्न की आवाज़ नहीं, कोई फेसबुक या वाट्सअप वहां काम नहीं करता था क्योंकि वहां बिजली नहीं है। वहां कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे इंसानी दुनिया में सुविधा कहते हैं। वहां अगर पानी पीना है तो नदी में अपनी हथेलिया जोड़कर पानी निकालो और पी लो। बीमारी तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकती।
इतना साफ पानी है। किसी एयर प्यूरिफायर की ज़रूरत नहीं। प्रकृति माँ ने जो भी दिया है, उसी से काम चलाना होगा। गारंटी है की वह पोषक तत्व भरपूर मात्रा में देती हैं, वह भी बिना किसी दवा और छिड़काव के। सोचता हूं कि सबकुछ ऐसा ही हो जाए तो कितना सुंदर होगा।
खैर, वहां से वापिस भी आना ही था जो सच्चाई थी इसलिए वापस लौटना शुरू किया। पहले कलकती धार पहुंचे वहां ठहरे फिर अगली सुबह ओसला गाँव होते हुए, जहां हमने दुर्योधन का मंदिर देखा और यह भी देखा की यहां डॉक्टर की कोई सुविधा नहीं है। अगर है भी तो वह 50-60 कि.मी दूर है इसीलिए जब भी कोई टूरिस्ट गाँव पहुंचता है तो गाँव वाले दवाइयां मांगते हैं। बुखार, सर दर्द, पेट दर्द और ऐसी ही कई छोटी बीमारियों के। हमने भी वहां दवाइयां दी और फिर सुपिन नदी में डुबकी लगाते हुए हम शाम को तालुका गाँव पहुंचे और इस तरह हमारे हर की दून की यात्रा पूरी हुई और कहीं ना कहीं मैं अपने रोज़मर्रा की नीरसता से उभर गया।