सिनेमा हमारे समाज का आईना होता है। ऐसा ही आईना दिखाती है फिल्म आर्टिकल 15। यह फिल्म हमारे आसपास रहने वाले लोगों की सच्चाई को दर्शाती है।
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था जिसके तहत हमें मौलिक अधिकार मिले हैं। संविधान में कहा गया है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान को लेकर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा लेकिन देश की आज़ादी के 72 साल बाद भी हम जाति व्यवस्था में ही उलझे हुए हैं।
फिल्म आर्टिकल 15
फिल्म आर्टिकल 15 में बेहतरीन ढंग से हमारे समाज में फैली कुरीतियां सामने लाने की कोशिश की गई है। आईपीएस ऑफिसर अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) का उत्तर प्रदेश के लालगाँव में ट्रांसफर होता है। गाँव में खबर फैलती है कि तीन लड़कियाँ गायब है। दूसरे दिन दो लड़कियां पेड़ से लटकी पाई जाती है और एक लड़की गायब ही रहती है।
इस क्षेत्र के लोगों का कहना है कि इन लड़कियों का गैंग रेप हुआ है लेकिन पुलिस इसमें जांच करने के बजाय इनकी जाति पर बातें करती है।अयान रंजन इस मामले की जांच करने की सख्त आदेश देते हैं लेकिन उस इलाके के पुलिस अफसर ब्रह्मदत्त (मनोज पहवा) इस घटना को दूसरी ओर मोड़ने की कोशिश करते हैं।
ब्रह्मदत्त को दलितों से घृणा है, वह इस घटना को आत्महत्या का रूप देने की कोशिश करता है और उन बच्चियों के पिता पर भी ऑनर किलिंग का आरोप लगाता है। अयान रंजन इस मामले की जांच करने के दौरान महसूस करता है कि इस इलाके में जातिवाद का ज़हर ज़्यादा फैला है।
औकात की परिभाषा
इस फिल्म में एक सीन है जब अयान रंजन थाने में बैठकर ठेकेदार से पूछता है कि
किसी शख्स की औकात क्या होती है?
ठेकेदार जवाब देता,
हमारे यहां काम करने वालों की औकात वही होती है, जो हम तय करते हैं।
यहां पर किसी भी व्यक्ति की औकात उस व्यक्ति की जाति, उसकी आर्थिक स्थिति और समाज में उसके रूतबे द्वारा निर्धारित की जाती है।
इस फ़िल्म को पर दिलीप मंडल अपना विचार रखते हैं और कहते हैं,
यह एंटी-कास्ट फ़िल्म नहीं है बल्कि जाति को लेकर जो समाज में सालों से चली आ रही धारणाएं हैं, यह फ़िल्म उन्हीं को पुष्ट करती है।
आज भले ही शहरों में जातिवाद थोड़ा कम है, पर गांवों में जातिवाद आज भी व्याप्त है। गाँव अलग-अलग जाति में बंटे हुए हैं। ब्राह्मण के गाँव में दलित नहीं रह सकते हैं और दलितों की बस्तियों में ब्राह्मण नहीं रहेंगे।
अभी भी खबरें आती है कि ब्राह्मण समाज के लोगों ने दलितों को घोड़ों पर चढ़ने से रोका तो कभी मंदिर में घुसने नहीं दिया।
अगर आप गुजरात के ऊना की घटना को याद करें तो इस मामले को पूरे देश ने देखा था यह वह घटना थी जिससे पूरा दलित समाज आक्रोशित था। दलितों को सरे आम ऐसे पीटा गया था कि दलितों के नेता जिग्नेश मेवाणी को सड़क पर विरोध तक करना पड़ा।
आपको बता दें कि भले ही संविधान में हक की बात की गई हो, बेहतरीन तरीके से अनुच्छेदों की रचना की गई हो और लागू किया हो कि किसी भी नागरिक के साथ फर्क ना हो लेकिन संविधान में लिखित तथ्यों का ज़मीनी हकीकत में पालन नहीं होता है।
इसे ज़मीनी स्तर पर लागू करवाने की ज़िम्मेदारी प्रशासन की बनती है, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रशासन इसे सख्ती से पालन करवाए। यह फिल्म हमारे समाज में आए दिन हो रही इस तरह की घटनाओं की कड़वी सच्चाई से रूबरू करवाती है।