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शिक्षा बजट 2019: कोरी घोषणाएं व ज़रूरी मुद्दों की उपेक्षा

प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई मोदी सरकार ने जुलाई माह में अपने दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश किया था। वैसे देखा जाए तो निर्मला सीतारमण का बजटीय भाषण, भारत को 3 ट्रिलियन की अर्थव्यवथा से 5 ट्रिलियन की अर्थव्यस्था बनाने तथा किसानों की आय दोगुनी करने जैसे खोखले जुमलों से ही भरा रहा।

रोज़गार के मसले पर तो बजट में विशेष ज़िक्र ही नहीं किया गया तथा बड़ी आसानी से श्रम कानूनों में सुधार कर, इन्हें चार श्रम कोड में तब्दील करने की घोषणा कर दी गई। जो थोड़े बहुत अधिकार इस देश की मेहनतकश जनता ने अपने संघर्षों के बल पर पाए  हैं, उन्हें भी खत्म करने की तैयारी की जा रही है।

खैर, बजट के हरेक बिन्दु पर चर्चा करना इस लेख में संभव नहीं है लेकिन यह देखना ज़रूरी है कि शिक्षा के मसले पर मौजूदा सरकार का रुख क्या है?

क्या है सरकार का रुख?

वैसे तो भारत में शिक्षा पर होने वाला खर्च हमेशा से ही कम रहा है। 1964 में कोठारी आयोग द्वारा यह अनुशंसा की गई थी कि शिक्षा पर जीडीपी का 6% भाग खर्च किया जाना चाहिए मगर इस अनुशंसा के पांच दशक बीत जाने के बाद भी इसे लागू नहीं किया गया।

भाजपा सरकार द्वारा पिछले साल जारी किये गए बजट में शिक्षा पर जीडीपी का केवल 2.68% खर्च करने की बात थी, जो हालिया दशकों में सबसे न्यूनतम है। वैसे भी अपने पहले कार्यकाल से भाजपा का ज़ोर शिक्षा के निजीकरण पर रहा है। जो कि इस बार के बजट में भी स्पष्ट दिखता है।

इस बार के बजट में शिक्षा पर 94,853.64 हज़ार करोड़ रुपए खर्च करने की बात की गई है। एक बार देखने पर यह आभास ज़रूर होता है कि शिक्षा बजट में पिछले वर्ष की तुलना में 10% इज़ाफा हुआ है परंतु इस बजट का अधिकांश भाग हालिया समय में चल रही गतिविधियों में ही खर्च हो जाएगा। इसके इतर यह बात भी है कि शिक्षा बजट के खर्च का इंतजाम शिक्षा सेस से किया जाएगा ना कि बजटीय आंतरण से।

शिक्षा में आवश्यक खर्च की पूर्ति नहीं हो पाती

यह ज्ञात तथ्य है कि केंद्र सरकार इनकम टैक्स में ही स्कूली शिक्षा के लिए 2% और उच्च शिक्षा के लिए 1% की दर से वसूलती है। यह प्रक्रिया सन 2004 से ही चली आ रही है लेकिन इसके बावजूद भी शिक्षा में आवश्यक खर्च की पूर्ति नहीं हो पाती है। यहां तक कि शिक्षा सेस का अधिकांश भाग अन्य मदो में डाइवर्ट कर दिया जाता है। इसका प्रमाण हमें निम्नलिखित ब्यौरे से मिलता है।

स्पष्ट तौर पर सेस से होने वाली आय को बजटीय आवंटन के स्थान पर प्रयोग करने के परिणाम बहुत अच्छे नही रहे हैं, पुराने अनुभव यही कहते हैं।

क्या कहती है नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति

वैसे भी जुलाई में जारी की गई, नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी यही कहती है कि शिक्षा पर खर्चे बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्रों को प्रोत्साहित किया जाए। कॉरर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) जैसे शब्द भी गढ़े गये हैं। यह भी हास्यास्पद कवायद ही है क्योंकि पहले भी इस तरह के प्रयासों से शिक्षा क्षेत्र को वास्तव में कितना लाभ हुआ है, यह सर्वविदित है।

अगर हम स्कूली शिक्षा की बात करें तो पूरे बजट में शिक्षकों कि नियुक्तियों पर कोई बात नहीं की गई। देश के लाखों सरकारी स्कूलों में शिक्षको के पद खाली हैं, उन्हें कैसे भरा जाएगा? 

शोध को बढ़ावा देने के लिए नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (NRF) बनाने की बात की गई है परंतु यह नहीं बताया गया कि यह संस्था मौजूद शोध संस्थाओं जैसे-सीएसआईआर (CSIR), डीआरडीओ (DRDO) की नियंत्रक की भूमिका में होगी या इनसे इतर कोई अलग प्रारूप वाली संस्था होगी।

शब्दों की बाज़ीगरी की एक और बानगी भी है, वह यह कि बजट में घोषणा की गई है,

इस विश्व स्तरीय संस्थान (नेशनल रिसर्च फाउंडेशन) को बनाने के लिए 400 करोड़ रुपए आवंटित किए जाएंगे। यह एक सराहनीय कदम कहा जा सकता था अगर पहले, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 30 से 50 फीसदी खाली पदों को भरने के सकारात्मक कदम उठाए जाते। बिना शिक्षको के विश्वस्त्ररीय संस्थान बनाना दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं है।

साथ ही SC व ST स्टूडेंट्स को मिलने वाली पोस्ट मैट्रिक स्काॉलरशिप में कटौती की गई है। यही नहीं SC व ST स्टूडेंट्स को मिलने वाली पीएचडी स्कॉलरशिप व पोस्ट डॉक्टरल स्कॉलरशिप में भी कटौती की गई है।

उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि मौजूदा बजट में शिक्षा कि लेकर उपेक्षात्मक रवैया ही अपनाया गया है। भारत में शिक्षा के गिरते स्तर को दुरुस्त करने के लिए जिस किस्म की संरचनात्मक सुधार की आवश्यकता है, मौजूदा सरकार उस ज़िम्मेदारी से भागती दिख रही है।

अतः यह आवश्यक हो जाता है कि ऐसे दुरूह समय में ऐसे स्टूडेंट मूवमेंट खड़े किये जाएं जो सरकार को इस मसले पर घेरे, उसे शिक्षा के मसले पर जवाबदेह बनने पर मजबूर करे। अगर ऐसा करने में भारत की युवा आबादी असफल रही, तो इसके परिणाम भयंकर होंगे।

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