स्वतंत्रता दिवस के मौके पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को मिलाकर 72% आरक्षण देने की घोषणा की। अभी तक तीनों वर्गों को मिलाकर 58 फीसद आरक्षण दिया जा रहा था। इस फैसले से एक बार फिर आरक्षण को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है।
आरक्षण और डॉ भीम रॉव अम्बेडकर
जब आरक्षण की बात आती है, तो बाबा साहेब डॉ भीम रॉव अम्बेडकर का नाम बढ़-चढ़ कर लिया जाता है। डॉ भीम रॉव अम्बेडकर ने भारतीय संविधान की धारा 340 में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में उसकी संख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान निश्चित किया था।
इस धारा के प्रावधान अनुसार, राष्ट्रपति एक कमीशन बहाल कर, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े की पहचान कर, उसकी संख्या के अनुपात में आरक्षण देगा।
जब सन 1952 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत के शासन की बागडोर संभाली, तब बाबा साहेब अम्बेडकर ने उन्हें OBC को आरक्षण देने की बात याद दिलाई। इस बात को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अनसुना कर दिया, जिससे दुखी होकर बाबा साहेब अम्बेडकर ने नेहरू मंत्री मण्डल से त्यागपत्र दे दिया।
बाबा साहेब अंबेडकर के त्याग पत्र से बाध्य होकर नेहरू ने 29 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। 30 मार्च 1955 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौपी थी लेकिन पंडित नेहरू की सरकार ने इस रिपोर्ट को कचरे के डब्बे में डाल दिया और प्रचंड बहुमत के साथ शासन करते रहे।
आपातकाल के बाद का आरक्षण
आपातकाल के बाद 1977 में केन्द्र में गैर काँग्रेस की सरकार बनी। तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने 1 जनवरी 1979 को वी. पी. मण्डल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया, जिसे मण्डल कमीशन के नाम से जाना जाता है।
इस आयोग ने कई जातियों को चिन्हित किया जो सामाजिक एवंम शैक्षणिक रूप से पिछड़ी थी। 1980 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी थी लेकिन इस रिपोर्ट को भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भी ठंडे बस्ते में डाल दिया।
1989 में जब केन्द्र में वी. पी. सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की गैर काँग्रेसी सरकार बनी, तो वी. पी. सिंह ने 1990 में मण्डल कमीशन की सिफारिश में OBC को नौकरी और उच्च शिक्षण संस्थानों में 27% आरक्षण देने की बात की। इसका विरोध विपक्ष में बैठे तत्कालीन काँग्रेस के नेता श्री राजीव गाँधी ने पानी पी-पी कर किया था।
काँग्रेस की सरकार चाहे केन्द्र में हो या राज्य में, कभी भी आरक्षण के लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाई। पिछले दो लोकसभा चुनाव (2014-2019) में देश की जनता ने काँग्रेस को विपक्ष लायक बहुमत भी नहीं दिया है। उस पर एक काँग्रेस शाषित राज्य छत्तीसगढ़ में अपवाद स्वरूप एवं अपने पार्टी के पूर्वती नेताओं के क्रियाकलाप के विरुद्ध जा कर, आरक्षण की सीमा को बढ़ा कर 72% कर देना एक धोखेबाज़ खेल के अलावा कुछ नहीं है।
वास्तविकता यह है कि केन्द्र की काँग्रेस सरकार ने 1990 में नई आर्थिक नीति को लागू किया था जिसके माध्यम से सार्वजनिक संस्थानों के निजीकरण का मार्ग खुल गया। इसका फायदा उठाकर केन्द्र की भाजपा सरकार, देश के शेष बचे सार्वजनिक संस्थानों को अपने सहयोगी उद्योगपतियों को कौड़ियों के भाव बेच रही है।
ध्यान रहे निजीकरण के इस खेल के दौरान काँग्रेस-भाजपा पक्ष और विपक्ष में रही है। अब जब सरकारी नौकरियां और सरकारी संस्थान लगभग समाप्त हो चुके हैं, तो आरक्षण की सीमा 72% बढ़ाने का क्या फायदा?