अक्सर लोग कहते हैं कि भारत में पिछले चार-पांच सालों में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ अर्थात मीडिया को दबाया गया है। यह बात सही भी है, क्योंकि भारत में प्रत्यक्ष रूप से मीडिया को खत्म किया जा रहा है और अप्रत्यक्ष रूप से लोकतंत्र को मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो कदम-कदम पर व्यवस्था को चुनौती देते हैं। अपने धर्म के प्रति दृढ़ता रखते हैं और जिनका बाज़ारीकरण करने की किसी की बिसात नहीं होती है।
उन्हीं में से एक नाम है रवीश कुमार। एक ऐसा नाम जिसने टीवी पर पत्रकारिता को मरने नहीं दिया। एक ऐसा नाम जिसने सत्तापक्ष के खिलाफ बोलकर अपने धर्म का पालन किया और जिसने जनता के उन मुद्दों को उठाया, जो बड़े पत्रकारों के एसी दफ्तरों में नहीं पहुंच पाते।
रवीश हमेशा लड़ते रहे
बार-बार रवीश की आवाज़ को दबाने की कोशिश की गई लेकिन वह उस स्तम्भ की तरह अटल रहे, जिसकी नींव को डगमगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। रवीश के साथ-साथ उन तमाम लोगों को यह विरोध झेलना पड़ा है, जिन्होंने सच्ची पत्रकारिता के लिए क्रांति की है। क्रांति करने वाले यह पत्रकार बदले में कोई पुरस्कार, राशि और यहां तक कि भीड़ का समूह भी नहीं मांगते। वह कहते हैं, “कर्म करते जाओ फल अपने आप प्राप्त होता जाएगा।”
उसी प्रकार यह सदाकत पेश करने वाले पत्रकार होते हैं, जिन्हें फल की चाह बिल्कुल नहीं है लेकिन ज़िंदगी कभी उसे खाली हाथ नहीं छोड़ती और हमारे यहां तो मरता हुआ व्यक्ति भी खाली हाथ विदा नहीं होता, बल्कि आंसू रूपी अम्बर के साथ विदा होता है। ज़ाहिर सी बात है कि जो लोग पत्रकारिता के लिए लड़ रहे हैं, वह खाली हाथ कैसे रह सकते हैं?
बे-आवाज़ों की आवाज़ हैं रवीश
एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार को रेमन मेग्सेसे अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। यह पुरस्कार उन लोगों के लिए होता है, जो अपने क्षेत्र में अच्छा और अलग कार्य करते हैं। रवीश को यह इसलिए दिया गया है क्योंकि वह बे-आवाज़ों की आवाज़ हैं। उन्होंने वह सारे मुद्दे दिखाए जिन्हें अन्य टीवी चैनल वाले दिखाना पसंद नहीं करते या फिर कहें तो उन्हें इन मुद्दों से टीआरपी ही नहीं मिलती।
हालांकि सत्तापक्ष और टीआरपी के लिए होने वाली दलाली को हम पत्रकारिता नहीं कह सकते हैं, क्योंकि वह तो चाटुकारिता कहलाती है।
रवीश कुमार ने सत्य के लिए ना सिर्फ लंबी लड़ाई लड़ी है, बल्कि एक लंबा संघर्ष करते हुए बड़ा सफर तय किया है। प्रारंभ में रवीश कुमार एनडीटीवी में आने वाली चिठ्ठियां छांटते थे और उसके बाद यह सफर शिखर की चोटी तक पहुंचा। वह जल्द ही लोगों के दिलों तक पहुंच गए। यह पहुंच अब पहचान बन चुकी है, जो सदैव मन में कैद रहेगी। अंत में आम लोगों की आवाज़ बनने के लिए रवीश का शुक्रिया करना चाहूंगा।