कश्मीर में अनुच्छेद 35 A और 370 हमेशा भाजपा और आरएएस का एजेंडा रहा है और आखिरकार उन्होंने अपने वादे को पूरा भी कर दिया है। देश में अधिकांश लोग खुश हैं लेकिन राजनीति के कुछ समझदार इसका विरोध भी कर रहे हैं।
अगर मैं एक राष्ट्रवादी की नज़र से इस निर्णय को देखूं, तो मैं भी इसके पक्ष में हो सकता हूं लेकिन एक राजनीति विज्ञान का स्टूडेंट होने के नाते इस निर्णय पर खुश कैसे हो सकता हूं? इस मुद्दे को मीम बनाकर तो नहीं समझा जा सकता है। जैसा कि लोग सोशल मीडिया पर कर रहे हैं, जिनको राजनीति का मतलब भी नहीं पता है।
क्या है संघ और इकाई?
सबसे पहले संघ और इकाई को समझ लेते हैं। दरअसल, जब किसी देश को छोटे-छोटे हिस्सों, रियासतों या प्रदेशों से मिलकर बनाया जाता है, तो उसे संघ-राज्य कहते हैं और इन छोटे-बड़े भू-भाग क्षेत्रों को इकाई या संघीय इकाई कहते हैं। दरअसल, हम जिसे भारत में राज्य या प्रदेश कहते हैं, वह राज्य नहीं बल्कि भारत की संघीय इकाइयां हैं। राज्य तो पूरी तरह संप्रभु और स्वतंत्र होते हैं।
भारत एक संघीय राज्य है, जो इकाईयों या राज्यों से मिलकर बना है। जिनमें से कुछ इकाइयों या राज्यों की शक्तियां बाकी इकाइयों से अलग हैं। जिसमें पूर्वोत्तर और कश्मीर के कुछ राज्य हैं। संघीय राज्यों में सभी संघीय इकाइयों की अलग-अलग सरकारें तथा केंद्र की अलग सरकार होती है। दोनों मिलकर शासन संचालन करते हैं।
क्या है एकात्मक शासन?
आइए अब एकात्मक शासन की बात करते हैं। जहां एकात्मक शासन होता है, वहां राज्य या देश इकाइयों से मिलकर बना तो होता है लेकिन वहां इकाईयां पूरी तरह केंद्र या संघीय सरकार के अधीन रहती हैं। एकात्मक शासन में इकहरी नागरिकता होती है। (भारत के अन्य राज्य अपवाद हैं। वहां इकहरी नागरिकता होते हुए भी संघात्मक शासन है) जैसा अब कश्मीर में भी हो जाएगा लेकिन पहले वहां दोहरी नागरिकता थी। भारत में शासन का रूप एकात्मक तभी हो सकता है, जब किसी इकाई (राज्य) को केंद्र शासित राज्य बना दिया जाए या फिर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए।
इस निर्णय ने भारतीय संविधान के संघात्मक ढांचे को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया है। इसने संघ और संघीय राज्य की परिभाषाओं और अवधारणाओं का मज़ाक बनाकर रख दिया है। इसके द्वारा जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित राज्य बनाकर उनको सीधे केन्द्र सरकार के अधीन कर दिया गया है। यानि कश्मीर और लद्दाख का शासन संचालन पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा होगा।
आज़ादी का इतिहास
हम अगर आज़ादी के समय का इतिहास देखें तो भारत छोटी-छोटी इकाईयों या रियासतों में बंटा हुआ था। जब इनका भारत में विलय हो रहा था, तब उनसे कुछ संधि या समझौते किए गए थे। जिसके अनुसार कुछ इकाइयों को कुछ शक्तियां दी गई थीं, जिसको स्वीकार करके ही उनका विलय भारत में हुआ था। इन समझौतों में ही इन इकाइयों का अस्तित्व या फिर यूं कहें संघात्मक शासन का अस्तित्व बनाए रखा गया है। इन्हीं समझौते में से एक अनुच्छेद 370 है और अनुच्छेद 371, जिससे पूर्वोत्तर के राज्यों को विशेष अधिकार या शक्तियां मिलती हैं।
जम्मू कश्मीर को केंद्र सरकार के अधीन लाने का प्रयास
अब बात करते हैं, अनुच्छेद 370 की। अगर सरकार को सभी राज्यों के बीच बराबरी करनी थी, तो वह अनुच्छेद 370 के साथ 371 को भी हटा देती लेकिन केंद्र सरकार को जम्मू कश्मीर को अपने अधीन लाना था इसलिए उसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। जबकि संविधान में यह वर्णित है कि जम्मू कश्मीर की सीमाओं तथा नाम में बिना विधानसभा की इच्छा के केंद्र सरकार परिवर्तन नहीं कर सकती थी लेकिन वहां तो विधानसभा है ही नहीं इसलिए यह काम राज्यपाल से करवाया गया, जो राष्ट्रपति का राज्य में प्रतिनिधि होता है।
यहां एक तथ्य स्पष्ट कर दें कि राज्यपाल उस तरह ही राज्य का सवैंधानिक प्रधान है, जिस प्रकार राष्ट्रपति भारत का संवैधानिक प्रधान है लेकिन राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से होता है। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है और इसी व्यक्ति को राज्यपाल बनाया जाएगा, इसका सुझाव केंद्र सरकार उसे देती है।
इस प्रकार एक तरह से राष्ट्रपति भारत की जनता का अप्रत्यक्ष रूप से चुना हुआ हो सकता है लेकिन राज्यपाल कैसे लोकतांत्रिक पद हो गया? वह तो संवैधानिक पद है।
राज्यपाल तो सिर्फ केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच की कड़ी होता है। वह राज्य में केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करता है, ना कि वहां की जनता का। अगर आपातकाल या राष्ट्रपति शासन लागू हो, तब भी वह केंद्र सरकार या राष्ट्रपति का प्रतिनिधि ही होता है। वह वहां की विधानसभा की भूमिका का निर्वहन कैसे कर सकता है? यह एक प्रश्न है, अगर वहां विधानसभा नहीं है तो राज्यपाल केवल कार्यपालिका की भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं लेकिन वह विधायिका या विधानसभा की शक्तियों का प्रयोग कैसे करने लगे?
विभाजन के लिए किसी ने नहीं पूछा
जम्मू कश्मीर को विभाजित करने के लिए ना ही वहां की जनता से पूछा गया और ना नेताओं से। अगर सरकार को जम्मू कश्मीर को विभाजित करके केंद्र शासित राज्य बनाना था, तो वहां पहले विधानसभा चुनाव करवा कर विधानसभा की सहमति से यह निर्णय लेना चाहिए था। अगर ऐसा होता, तो इस निर्णय में वहां की जनता का निर्णय भी शामिल हो जाता और भारत का संघात्मक ढांचा बर्बाद भी नहीं होता, क्योंकि तब संघीय इकाई की शक्तियां उस इकाई की सहमति से कम की जाती।
शिवसेना सांसद संजय राउत कहते हैं कि इस निर्णय के बाद कश्मीर का भारत में पूरी तरह से विलय हो गया है। क्या इसका मतलब कश्मीर इससे पहले स्वतंत्र था? नहीं, कश्मीर पहले भी भारत का उतना ही था जितना कि अब है लेकिन तब उसे सिर्फ उसके अधिकार मिले हुए थे, जिसका समझौता या वादा उससे भारत विलय के समय किया गया था।
यह उनके विशेष अधिकार नहीं बल्कि सामान्य अधिकार हैं, जो उस संघीय इकाई शक्तियों को संघ द्वारा प्रदान करने पड़ते हैं, जिससे वह इकाई संघीय शासन में अपना अस्तित्व बनाए रखे और इन अधिकारों को हर संघीय राज्य को स्वीकार करना चाहिए। वरना संघीय शासन समाप्त हो जाएगा और एकात्मक शासन स्थापित हो जाएगा।
संघीय शासन के लिए खतरा
आज लगभग सभी संघीय राज्यों या देशों में इकाईयों के अस्तित्व खतरे में हैं, क्योंकि वहां केंद्र या संघीय सरकार हावी हो रही है। ऐसे में संघीय शासन खतरे में पड़ सकता है। अमेरिका में संघीय शासन के लिए काफी ज़ोर आज़माइश हुई थी और बाद में संघीय शासन को अपनाया गया था लेकिन अब वहां भी संघ की शक्तियां बढ़ गई हैं और इकाइयों की शक्तियां दब कर रह गई हैं, जबकि वहां के राजनेता इकाइयों की शक्तियों के प्रति ज़्यादा सचेत थे।
ऐसा माना जाता है कि संघात्मक शासन के लिए कठोर संविधान की आवश्यकता होती है, जिससे केंद्रीय या संघीय सरकार अपनी शक्तियों को बढ़ाने के लिए आसानी से संविधान में संशोधन ना कर सके लेकिन भारत का संविधान कठोरता और लचीलेपन का समन्वय है, जिसमें आसानी से संशोधन हो सकता है मगर अमेरिका का संविधान कठोर है।
यानि वहां संविधान का संशोधन जल्दी नहीं हो सकता लेकिन उसके बाद भी वहां केंद्र की शक्तियां बढ़ गई हैं और इकाइयों की शक्तियां कम हो गई हैं। यानि केंद्रीय सरकारें हर कहीं अपनी शक्तियां बढ़ाना चाहती हैं।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य ‘भारतीय नागरिक जीवन” से लिए गए हैं।