“हिंसा और किसी भी तरह के भय का देश में कोई स्थान नहीं है”, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा था लेकिन उनके इस वक्तव्य को उनकी ही पार्टी के एक विधायक साहब मंगल पर मिले ऑक्सीजन की तरह निराधार साबित करने पर आमादा हैं। यहां कैलाश विजयवर्गीय के पुत्र और भाजपा में महासचिव आकाश विजयवर्गीय की बात चल रही है।
क्या थी घटना?
घटना उस दौरान हुई जब निगम दस्ता एक गैरकानूनी इमारत को तोड़ने पहुंचा। अधिकारियों के पास उसको तोड़ने के आदेश के दस्तावेज़ थे लेकिन आखिर विधायक साहब इतने क्यों तिलमिला गए कि अधिकारियों पर बरस पड़े? यहां गौर करने वाली बात यह है कि वह इमारत तोड़ने का आदेश उनकी ही पार्टी के शासनकाल में जारी किया गया था।
संविधान और गाँधी का अहिंसावाद खतरे में है-
बात बहस तक तो ठीक थी। राजनीति चमकाने के लिए नेता लोग अक्सर ऐसी बहसबाज़ी कर लेते हैं, ताकि जनता को लगे कि वह उनके हमराही हैं और सिर्फ उनसे वोट मांगने नहीं आते हैं, बल्कि उनके लिए आवाज़ भी उठाते हैं। इस बहसबाज़ी ने तब शर्मनाक रूप ले लिया, जब संविधान की शपथ लेने वाले नेता गाँधी के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाने लगे। वही नेता फिर बेशर्मी से यह दावा भी करते हैं कि वे गाँधी की विरासत के सच्चे हकदार हैं। संविधान की शपथ तोड़ने पर क्या इन्हें बर्खास्त करना उचित नहीं था? गाँधी के अहिंसावाद का दर्शन तो मुझे पूरी घटना में कहीं नहीं हुआ।
समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
- क्या यह हरकत किसी विधायक को शोभा देती है?
- क्रिकेट बैट से एक सरकारी कर्मचारी को मारना क्या शोभनीय है?
- आखिर इसमें उस अधिकारी की क्या गलती थी? वह तो बस अपनी ड्यूटी निभा रहा था।
- क्या उसका परिवार नहीं है?
- क्या उसके सर पर ज़िम्मेदारियां नहीं हैं?
- क्या उसके साथ की गई हरकत को हत्या की कोशिश कहा जाना गलत है?
- ऑन ड्यूटी एक कर्मचारी को मारकर आखिर विधायक साहब समाज को किस तरह का संदेश देना चाहते हैं?
क्या राजनीति में नैतिकता का कोई स्थान नहीं है?
बहरहाल, विधायक साहब जेल भी गए इस मामले में और ज़मानत पर रिहा भी हो गए। अब वह किसी गरीब के बेटे तो हैं नहीं कि न्याय के लिए दर-दर भटकना पड़े। बड़े व्यक्ति हैं, इसलिए बड़े वकील हैं उनके साथ, न्याय की लाइन में इनका पंजीकरण शायद जल्दी हो जाता होगा।
नैतिकता का ऐसा पाठ कौन सी पार्टी अपने नेताओं को सिखाना चाहेगी?
मोदी जी ने अपने पहले भाषण में बहुत प्रगतिशील बातें कहीं और “सबका विश्वास” का नारा दिया। कैसे जीतेंगे वह सबका विश्वास? बैट से सिर फोड़कर या धमकियां देकर? एक व्यक्ति की हरकतों के लिए मैं किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा रहा मगर प्रधानमंत्री जी को उन सभी नेताओं को राजनीतिक संस्कार सिखाना चाहिए, जिनकी ज़ुबान और चरित्र दोनों गंदी है।
आकाश विजयवर्गीय का यह दुर्व्यवहार किसी भी राजनीतिक पाठशाला में उत्तीर्ण होने लायक नहीं है। ना जाने हमारे नेताओं में किस बात का दंभ है, जबकि इस देश की जनता ने स्थापित पार्टियों तक को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा है। आशा करता हूं कि पार्टी इस मामले में कठोर कार्रवाई करेगी, बशर्ते उन्हें अपनी पार्टी के चारित्रिक संदेश को जनता तक पहुंचाने की मंशा हो। अन्यथा फिर फर्क ही क्या रह जाएगा सब में और उनमें?