देश के आज़ाद होने के 53 साल बाद तक किसी भी सरकार ने सूचना का अधिकार लाने की पहल नहीं की थी। 1975 के बाद अलग-अलग मुकदमों में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सूचना का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है, इसको लेकर कानून बनाया जाए। 2002 में वाजपयी सरकार ने कानून तो पास किया लेकिन इसे लागू नहीं किया। फिर 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में इस कानून को पास भी किया गया और लागू भी।
जल्दबाज़ी में कानून में बदलाव किए गए
सूचना के अधिकार के लिए अरूणा रॉय से लेकर अन्ना हजारे जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आंदोलन किए। इस कानून का जनता ने भरपूर उपयोग भी किया। जिसके चलते सरकार का उत्तरदायित्व बढ़ गया। कानून लागू होने के 3 साल बाद कॉंग्रेस ने उसमें बदलाव लाने की कोशिश की थी लेकिन बाद में उसे वापस ले लिया गया।
अब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में चोरी-छिपे और जल्दबाज़ी में इस कानून में बदलाव किए गए हैं और फिर लोकसभा में बहुमत के चलते यह कानून पास भी हो गया। सिर्फ 2 दिन पहले सांसदों को कानून में बदलाव के बारे में बताया गया। क्या यह कवायद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ नहीं है?
पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने बीते शनिवार को एक खुला पत्र लिखा जिसमें उन्होंने सांसदों से सूचना के अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को पारित करने से रोकने की अपील की। उन्होंने कहा,
कार्यपालिका विधायिका की शक्ति को छीनने की कोशिश कर रही है।
इस पत्र में, आचार्युलु ने पारदर्शिता की वकालत करते हुए कहा,
इस संशोधन के ज़रिये मोदी सरकार आरटीआई के पूरे तंत्र को कार्यपालिका की कठपुतली बनाना चाह रही है।
आचार्युलु ने पत्र में लिखा,
राज्यसभा के सदस्यों पर ज़िम्मेदारी अधिक है क्योंकि वो उन राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी स्वतंत्र आयुक्तों को नियुक्त करने की शक्ति केंद्र को दी जा रही है।
क्या बदलाव होंगे
लोकसभा ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 पारित किया, जिसमें आरटीआई अधिनियम 2005 की धारा 13, 16 में संशोधन किए गए। जैसे कि
- मूल आरटीआई कानून की धारा 13 केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच साल (65 साल की उम्र तक, इसमें से जो पहले हो) निर्धारित करती है। साथ ही मुख्य सूचना आयुक्त के वेतन, भत्ते और सेवा की अन्य शर्तों को मुख्य चुनाव आयुक्त और सूचना आयुक्त के समान रखने की बात करती है। लेकिन इस धारा में संशोधन के बाद यह विधेयक मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों के वेतन,भत्ते एवं अन्य सेवा शर्तों के निर्धारण का अधिकार केंद्र सरकार को देता है।
- आरटीआई कानून की धारा 16 राज्य स्तर पर केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) एवं सूचना आयोग (IC) की सेवा शर्तों, वेतन भत्ते एवं अन्य सुविधाओं का निर्धारण करती है। इस धारा के अनुसार मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं निर्वाचन आयुक्तों के समान है। लेकिन नए संशोधन विधेयक में यह कहा गया है कि इनकी नियुक्ति भी केंद्र सरकार की सिफारिशों के अनुसार होनी चाहिए।
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नए बदलाव के बाद शायद यह लगभग असंभव हो जाएगा कि
- सूचना आयुक्त बिना किसी दबाव के काम कर सके।
- शायद मुख्य चुनाव आयुक्तों या सूचना आयुक्तों की सैलेरी कम हो जाएगी।
- 5 साल के लिए स्थाई रूप से नियुक्ति नहीं होगी। सरकार जब चाहे तब सूचना आयुक्तों को पद से निकाल देगी।
- परिणामस्वरूप सूचना आयुक्त ऐसी किसी भी आदेश को देने से बचेंगे जिससे सरकार को कठिनाई हो।
इस बदलाव के बाद पूरी संंभावनाएं है कि कानून यहां पर बेअसर हो जाएगा। सरकार गवर्नमेंट सीक्रेट एक्ट के नाम पर शायद लोगों को अहम जानकारियों से दूर रखा जाएगा। वित्त मंत्रालय में पत्रकारों के आने-जाने पर नज़र रखी जा रही है। अन्य मंत्रालय भी इसे लागू कर दें तो बड़ी बात नहीं होगी। पाठक इस बारे में विचार करें की सूचना के बिना लोकतंत्र कैसा होगा?