लोकसभा में विपक्ष के हंगामे के बीच बीजेपी ने आरटीआई संशोधन बिल लोकसभा में पास करा लिया है। उन्हें बहुमत प्राप्त था, तो ज़ाहिर सी बात है कि बिल पास होने में ज़्यादा दिक्कत नहीं हुई। पर विपक्ष इस बिल के खिलाफ था। सदन में बीजेपी को हंगामे का सामना करना पड़ा। इस संशोधन के खिलाफ काँग्रेस के अलावा कई पार्टियां विपक्ष में खड़ी हैं।
आरटीआई में संशोधन क्यों?
सत्तारूढ़ पार्टी को इस बिल में संशोधन करने की ज़रूरत क्यों पड़ी और इसमें जल्दबाज़ी क्यों दिखाई गई? वह भी तब, जब सबकुछ अच्छा चल रहा हो। आपके मन में ऐसे कई सवाल उठ जाते हैं। दरअसल, जनता सरकार से नोटबंदी, जीएसटी और बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ जैसे अभियानों पर आरटीआई के माध्यम से सवाल पूछे जा रही थी। सरकार इन सवालों के जवाब देने में असमर्थ थी, इसलिए सरकार ने आरटीआई संशोधन का बिल लोकसभा में रखा।
इनका मकसद सिर्फ इस कानून को कमज़ोर करने का है। इनमें से ऐसे और भी बदलाव किए हैं, जिन्हें आप कभी सोच भी नहीं सकते थे। जैसे कि
- सरकार आरटीआई कानून में संशोधन करके केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों की सैलरी व कार्यकाल खुद तय करना चाह रही है। मतलब, सरकार सूचना आयोग एवं सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता पूरी तरह से छीनना चाहती है और
- उन्हें अपने अंतर्गत काम करवाना चाहती है। सूचना आयुक्त कोई ऐसी जानकारी जनता को मुहैया ना करवाएं, जिससे सरकार की कमियां उजागर हो।
बता दें कि
सीआईसी(CIC) की वेबसाइट पर जानकारी के अनुसार 23 जुलाई 2019 तक केंद्रीय सूचना आयोग में 28,442 अपीलें और 3,209 शिकायतें लंबित हैं। इस तरह से कुल 31,651 मामले लंबित पड़े हैं। यह आंकड़ा पिछले ढाई सालों में सबसे ज़्यादा लंबित मामलों की संख्या है।
खाली पड़े हैं कई पद
केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग, ये दोनों संस्थान लोगों को कानून के अनुसार सूचना देने का कार्य करती हैं। वर्तमान में सीआईसी में केंद्रीय सूचना आयुक्त समेत सूचना आयुक्तों के लिए कुल 11 पद खाली पड़े हैं लेकिन इस वक्त आयोग में 7 आयुक्त ही नियुक्त हुए हैं और 4 पद खाली पड़े हैं। सरकार इसमें जल्दबाज़ी क्यों नहीं दिखाती है? खाली पद को भरने में किस बात की देरी है?
आम जनता की इस संशोधन बिल पर क्या राय?
आरटीआई संशोधन विधेयक पास होने के बाद लोगों की लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। दिल्ली में लोग जंतर-मंतर पर धरना दे रहे हैं और सोशल मीडिया में लोग सरकार को कोसते नज़र आ रहे हैं मगर राष्ट्रीय मीडिया इस मामले में खामोश है। उसे किस बात का डर है?
अब तो हमें लगने लगा है कि इस डेमोक्रेसी में आरटीआई जैसे मुद्दे पर बात करना ही अनुचित है। आप सब एक बात समझ लो कि
ना खाता ना बही, साहेब कहें वो ही सही।