हमारे देश में भगवान के बाद अगर किसी की पूजा होती है, तो वे हैं डॉक्टर। अगर हमारे देश की बात करें तो लगभग दो तिहाई आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में बसर करती है, जहां की चिकित्सा सेवाएं उतनी विकसित नहीं है, जितनी वहां की आबादी है। जब भी ग्रामीणों को किसी भारी समस्या का सामना करना पड़ता है, तो वे लोग शहरों की तरफ रुख करते हैं, ऐसी स्थिति में सही सलाह नहीं मिलने पर कई बार उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ती है ।
आजकल प्राइवेट हॉस्पिटल के हालात ऐसे हैं कि उनकी एक दूसरे के साथ अंधाधुंध होड़ सी लगी हुई है। उनके आलीशान इमारतों के निर्माण का मेहनताना, आम आदमी मंहगी दवाइयों और जांच के माध्यम से चुकाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यहां इंसान अपनी पूरी कमाई भी लुटा दे तो कम होगा।
पैसा कमाने की अंधाधुंध दौड़
डॉक्टर और मरीज़ का रिश्ता बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। एक मरीज़ अपने डॉक्टर पर अंधा विश्वास करता है। उसके लिए उस बुरे वक्त में एक डॉक्टर ही भगवान का रूप होते हैं। ऐसे में डॉक्टर का भी यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने मरीज़ के साथ अच्छे से पेश आएं और उन्हें समझे।आज पैसे कमाने की अंधाधुंध दौड़ ने इंसानियत की बलि चढ़ा दी है।
कई मरीज़ों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है
हाल ही में मेरे एक रिश्तेदार ने अपने बेटे को अस्पताल की लापरवाही की वजह से खो दिया। अपनी आपबीती सुनाते हुए उन्होंने कहा,
हम अपने बेटे की जान का सौदा कर आए उस अस्पताल में, काश उस मनहूस अस्पताल में हम गए ही ना होते तो आज मेरा बेटा ज़िंदा होता। हम गए थे किसी और इलाज के लिए और वे लोग जाने कौन-कौन सी बीमारियों का इलाज कर रहे थे।
अपना दुख और अस्पताल की लापरवाही की घटना सुनाते हुए उन्होंने बताया,
जब हालात बिगड़ते गए तो इस अस्पताल ने हमें दूसरे अस्पताल भेज दिया। वहां पता चला कि इतने दिनों से जो इलाज चल रहा था, वह बीमारी तो हमारे बेटे को थी ही नहीं। हम जो कंगाल हुए वह अलग और अंत यह निकला कि आज हमारा बेटा हमारे पास नहीं है।
ऐसा मैं पहली बार नहीं सुन रही, आपके आस-पास भी ना जाने कितने ही लोग ऐसी समस्या से जूझ रहे होंगे पर जैसे हम भगवान के आगे लाचार हैं वैसे ही डॉक्टर के आगे भी लाचार हो जाते हैं, क्योंकि ना तो हमें कुछ पता होता है और ना ही हम कुछ कर पाते हैं। बस अपने आप को डॉक्टर के भरोसे छोड़ देते है। फिर आगे वे जो चाहे, करे हमारे साथ।
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परचून की दुकान की तरह खुले हैं अस्पताल
कहीं भी घर से बाहर निकलो तो इतने अस्पताल, इतने क्लीनिक नज़र आ जाते हैं, जैसे परचून की दुकान खोल के बैठे हैं। यहां तक कि दवाइयों को कहां से खरीदना है, वह भी इन्हीं के अंडर होता है। वहां से अच्छा खासा कमीशन जो मिलता है। इंसान को थोड़ा कुछ हुआ नहीं कि पहले ही इतनी जांच लिख देते हैं, चाहे वह उससे संबंधित हो या ना हो।
पहले के डॉक्टर नब्ज़ जांचते और तकलीफ बता देते थे। आज के डॉक्टर आपकी तरफ आंख उठाकर देखने की तकलीफ भी नहीं करते। हाथ में पेन होता है और पर्ची में दवाइयों की लिस्ट, बस आप बताते जाइए कि क्या-क्या तकलीफ है, दवाइयों के नम्बर अपने आप बढ़ते जाएंगे।
बच्चों की खातिर मजबूर
चलिए बात करते हैं बच्चों के टीकाकरण की। मेरी एक सहेली ने बताया कि उसकी बेटी को एक टीका 7000 रुपये का लगा। यह सुनकर मुझे थोड़ा झटका लगा क्योंकि मैं खुद डॉक्टर को टीका लगाने के 3000 रुपये दे चुकी हूं। मैंने पूछा,
ऐसा कौन सा टीका लगवाया है कि इतना रुपया लग गया?
तो कहने लगी,
पता नहीं कौन-कौन से टीके बताते हैं ये डॉक्टर्स, मना करो तो डराते और हैं। अब बच्चों की खातिर मजबूर हो जाते हैं हम।
यही है आज की हकीकत। सब पैसा कमाने की रेस में लगे हैं। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। बस समेट लो जहां से मिले, जैसे मिले। अब इस भीड़ में जो रुपया लगा सकता है, वह आगे है और जो नहीं दे सकता वह सरकारी अस्पतालों में धक्के खाता है। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर बनने के लिए इतना डोनेशन मांगते हैं, फिर भी सरकारी अस्पतालों के हालात हमारे देश में कितने अच्छे हैं, वह तो हम सब जानते ही हैं।