साल 2018 में असर की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसमें देश के अन्दर ग्रामीण क्षेत्रों की शासकीय शालाओं में बच्चों में शिक्षा के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त की गई है। यह रिपोर्ट कई गंभीर बिन्दुओं को उठाती रही है, जैसे कि 8वीं कक्षा में अध्ययनरत अधिकांश बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ भी पढ़ नहीं पाते हैं या शासकीय शालाओं में बच्चों का नामांकन निरंतर घट रहा है।
यकीनन देश में सार्वजनिक क्षेत्र की शालाओं की स्थिति कई चिंताएं पैदा करती हैं। यह चिंताएं खासतौर पर इसलिए भी हैं क्योंकि सरकारी स्कूलों में ही देश के अधिकांश वंचित समुदाय के बच्चे अध्ययनरत हैं। यदि हम देश के सभी बच्चों को शिक्षा के अधिकार की गारंटी की बात करते हैं, तो सबसे अधिक ध्यान हमें सरकारी शालाओं पर ही देना होगा।
आखिर क्यों कम हुआ है सरकारी स्कूलों के प्रति हमारा विश्वास?
यह भी एक सच्चाई है कि हाल के दशकों में सरकारी शालाओं की लोकप्रियता में बहुत गिरावट आई है। अधिकांश व्यक्ति अपने आवश्यक खर्चों में कटौती कर पैसा बचाने के बाद सरकारी स्कूलों से हटाकर अपने बच्चों को निजी शालाओं में ही पढ़ाने की कोशिश करते हैं। हालांकि हर गली-मोहल्ले में दुकानों की तरह खुले निजी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की क्या स्थिति है, इस पर आमतौर पर चर्चा नहीं होती है।
यह बात सही है कि 1986 में आई नई शिक्षा नीति के बाद हमारे सत्ता तंत्र की ओर से शिक्षा के निजीकरण का एक बहुत ही नियोजित अभियान चलाया गया और मंहगे कॉरपोरेट तरीके के प्राइवेट स्कूलों के अलावा हर शहर की गलियों में भी निजी विद्यालय खुल गए हैं। शिक्षा, बाज़ार में खरीदी जाने वाली एक जींस की तरह बन गई। जिसके पास जिस भाव की शिक्षा खरीदने की आर्थिक क्षमता है, वह अपने नौनिहालों को उस स्तर की शालाओं में दाखिला कराकर अपने सुरक्षित भविष्य के सपने देखने लगा।
शिक्षा व्यवस्था पर आर्थिक भेदभाव का असर
इसका असर यह हुआ कि समाज के आर्थिक भेदभाव का सीधा असर हमारी शिक्षा व्यवस्था में दिखाई देने लगा। सरकारी स्कूलों में या तो देश के ग्रामीण इलाकों के बच्चे या फिर गरीब-मज़दूर बस्तियों में रहने वाले असंगठित क्षेत्रों के मज़दूरों के घरों के चिराग शेष रहे। गाँवों में भी जो लोग शिक्षा पर खर्च करने की क्षमता में हैं, वे अपने बच्चों को शहरों के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने लगे।
हमारी शासकीय शालाओं में अब अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यक समुदाय के ही बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। यह हमारे समाज का वह तकलीफदेह तथ्य है, जो सरकारी शालाओं पर निरंतर घटते बजटीय अनुदान और खर्चों का खुलासा भी कर देता है।
हम यह देखते हैं कि देश में रक्षा और आधारभूत संरचनाओं के लिए तो बजट प्रावधान लगातार बढ़ते जा रहे हैं परन्तु शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर यह खर्च निरंतर घटता नज़र आता है। चूंकि समाज और सत्ता की प्राथमिकता में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत बाद में आती हैं और इन सेवाओं के निजीकरण पर ही बाज़ार का वर्तमान और भविष्य निर्भर है, इसलिए आये दिन हमें अखबारों में भी सरकारी स्कूलों और अस्पतालों के बारे में नकारात्मक खबरें देखने के लिए मिलती रहती हैं।
करौंदी ग्राम की सरकारी कन्या शाला
जब मैं जबलपुर में था, तब अक्सर लोग मुझसे करौंदी ग्राम की सरकारी कन्या शाला का ज़िक्र करते थे। हमलोग जब उस शाला को देखने गए, तब दंग रह गए। क्या ऐसा भी कोई सरकारी स्कूल हो सकता है? इस शाला की प्रत्येक कक्षा में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और बालिकाएं प्रत्येक कालखंड के बाद अपनी राय दर्ज कराती हैं।
शाला में विगत 10 वर्षों का परीक्षा का रिकॉर्ड, प्रत्येक बालिका को प्राप्त उत्तर पुस्तिका क्रमांक और प्रश्न पत्र सेट आदि मौजूद हैं। इसके अलावा इन वषों में कौन शिक्षक कितने मिनट की देरी से आए, इसका भी अभिलेख है। शाला का अपना एक मिनी थिएटर है, जहां प्रतिदिन बालिकाएं एक फिल्म देखती हैं। इन सबका परिणाम यह है कि विगत पांच वर्षों में शाला का परीक्षा परिणाम शत प्रतिशत रहा है और अधिकांश बालिकाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थीं, जबकि अधिकांश बच्चियां स्कूल के आसपास के ग्रामीण इलाकों और बस्तियों में रहने वाले मेहनतकश समुदाय से ही ताल्लुक रखती हैं।
भोपाल की बावडिया कलां
इसी प्रकार भोपाल की बावडिया कलां और हिनोतिया आलम शालाओं के भी उदहारण हैं, जहां शिक्षकों ने व्यक्तिगत प्रयास कर शाला में बच्चों के लिए बैठने हेतु फर्नीचर इत्यादि का इंतज़ाम किया है। इसका प्रत्यक्ष परिणाम परीक्षाओं में सफलता से देखने को मिलता है। हालत यह है कि गाँव में स्थित होने के वावजूद भोपाल शहर की बस्तियों से बच्चे यहां पढ़ने जाते हैं।
इसी प्रकार भोपाल के पास ही सूखी सेवानियां गाँव में स्थित माध्यमिक शाला में भी प्रभारी प्राचार्य के व्यक्तिगत प्रयासों से शाला में बच्चों के लिए मित्रतापूर्ण वातावरण तैयार हुआ है। शाला में आकर्षक रंगाई-पुताई इत्यादि हुई है। भोपाल शहर की अनेक शालाओं में शिक्षकों ने प्रयास कर शाला प्रबंधन समितियों और बाल कैबिनेट इत्यादि को सशक्त करते हुए शाला विकास में इनके सहयोग को सुनिश्चित किया है।
अध्यापन पर कम ध्यान दे रहे हैं शिक्षक
यह महज़ कुछ ही उदाहरण हैं, देखने जाएंगे तो सरकारी तंत्र में ही ऐसे अनेक अनुकरणीय उदहारण मिल जाएंगे। यह बात अवश्य है कि इनकी संख्या बहुत कम है लेकिन हमें इस बात के कारणों पर विचार करना चाहिए। क्या वजह है कि शिक्षक अपने मुख्य काम यानि अध्यापन पर सबसे कम ध्यान दे पा रहे हैं?
क्या इसका कारण यह तो नहीं कि तंत्र ने जान-बुझकर अध्यापन से इतर कामों में उन्हें अनावश्यक रूप से व्यस्त करके रखा है? क्यों पूरे साल शिक्षकों से चुनाव, जनगणना से लेकर विभिन्न कामों को करवाया जाता है? यहां तक कि कई शिक्षक तो वर्षों से दफ्तरों और मंत्रियों के यहां बने रहते हैं। यदि हम देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार की बात पर संजीदा हैं, तो हमें सबसे पहले अपनी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को राज्य और समाज की प्राथमिकता में लाना होगा, क्योंकि एक तो देश के अधिकांश ज़रूरतमंद और वंचित समुदाय के बच्चे यहां अध्ययनरत हैं और दूसरे इतने प्रशिक्षित और समर्पित शिक्षक प्राइवेट सेक्टर में नहीं हैं।
ज़ाहिर है, सार्वजनिक शिक्षा को एक समान शिक्षा की दिशा में आगे बढ़कर ही बचाया जा सकता है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का लक्ष्य तब तक हमसे दूर रहेगा, जब तक हम सबके लिए एक समान, नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के लिए अभियान नहीं चलाएंगे।
नोट: लेखक एक सामाजिक संस्था ‘निवसीड बचपन’ के साथ जुड़कर विगत 12 वर्षों से शिक्षा के अधिकार पर कार्यरत हैं।