नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी को ऐसे ही बच्चों का ‘आस-कैलाश’ नहीं कहा जाता है। दुनियाभर में बाल अधिकारों के प्रवक्ता के रूप में जाने जाने वाले सत्यार्थी की ख्वाहिश है कि उनके जीते-जी विश्व से बाल मज़दूरी का खात्मा हो जाए।
सत्यार्थी की सोच ठीक वैसी ही है, जैसे प्रत्येक मनुष्य की आंखों से आंसू पोंछने का गाँधी जी का सपना था। यह अकारण नहीं है कि यदि कोई सत्यार्थी की आंखों में झांक कर देखे, तो वहां उसे सिर्फ बच्चे ही बच्चे नज़र आएंगे। तभी तो वह कहीं भी दीन-हीन अवस्था में किसी बच्चे को पाते हैं तो उसका दुख दूर करने की कोशिश करने लगते हैं। करुणा और स्नेह उनके हृदय का साथ नहीं छोड़ते हैं। बच्चों को वह सब कुछ दे देना चाहते हैं, जिसके वे स्वाभाविक अधिकारी हैं।
पिछले दिनों ऐसा ही एक वाकया दिल्ली से सटे बुराड़ी के मुक्ति आश्रम में देखने को मिला। मुक्ति आश्रम बाल मज़दूरी से मुक्त कराए गए बच्चों के लिए एक अल्पकालीन पुनर्वास केंद्र है। आजकल वहां निर्माण कार्य चल रहा है। निर्माण कार्य में उर्मिला नाम की एक महिला भी लगी हुई है। उर्मिला के साथ उसकी एक साल की बच्ची भी साथ रहती है।
जब उर्मिला सीमेंट-बजरी से बने मसाले को तसले में भरकर और उसे सिर पर उठाकर राज मिस्त्री तक पहुंचाना शुरू करती है, तब वह अपनी बच्ची को ज़मीन पर एक मैला-कुचैला कपड़ा बिछाकर सुला देती है। ऐसे में सत्यार्थी की नज़र जब उस बच्ची पर पड़ती है, तो उनसे वह दृश्य देखा नहीं जाता और उसके लिए वह पालनामय पलंग का प्रबंध करवाते हैं।
पूरी कहानी बता रहे हैं सत्यार्थी के साथ मुक्ति आश्रम का दौरा करने वाले शिव कुमार शर्मा।
मुक्ति आश्रम की पूरी कहानी।
कैलाश सत्यार्थी ने अपना पूरा जीवन बच्चों को सुखी करने में लगा दिया। सत्यार्थी का जब भी ज़िक्र होता है तो हज़ारों माता-पिताओं का सर अदब से झुक जाता है। इसका कारण यह है कि
सत्यार्थी ने ना केवल उनके बच्चों को बंधुआ मज़दूरी के दलदल से निकाला है, बल्कि उनको शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी प्रेरित किया है।
कैलाश सत्यार्थी मुक्ति आश्रम का भी संचालन करते हैं। आश्रम में बाल मज़दूरी से मुक्त कराए गए बच्चों को तब तक पुनर्वासित किया जाता है, जब तक कि उन बच्चों को उनके माता-पिता को सौंपने की कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।
एक दिन की बात है जब कैलाश सत्यार्थी किसी काम के सिलसिले से मुक्ति आश्रम पधारे। आते ही वह पूरे आश्रम का भ्रमण करने लगे। बाल मज़दूरी से छुड़ाकर लाए गए बच्चों से मिलने के बाद वह पेड़-पौधों को देखते हुए उस स्थान पर पहुंच गए जहां पर निर्माण कार्य चल रहा था। सत्यार्थी जी धीरे-धीरे नवनिर्मित भवन का निरीक्षण कर रहे थे। तभी उनकी नज़र एकाएक ज़मीन पर लेटी हुई एक नन्ही-मुन्नी बच्ची पर पड़ी।
यह देख कर उनको आश्रम के कर्मचारियों पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उसी समय आश्रम के सारे कर्मचारियों को तलब किया और बच्ची को ज़मीन पर सुलाने का कारण पूछा। सत्यार्थी जी ने आश्रम के कर्मचारियों को निर्देश दिया कि अभी इसी वक्त एक पालनामय बिस्तर यहां मंगाया जाए। सारे कर्मचारी हरकत में आ गए और तभी एक सुंदर, पलंगनुमा पालना लाया गया। उस पालने में उस बच्ची को सुलाया गया। यह सब देखकर बच्ची की माँ उर्मिला बहुत खुश हुई। जिसने भी इस घटना को देखा, वह सत्यार्थी की बच्चों के प्रति उमड़ी करुणा की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगा।