Site icon Youth Ki Awaaz

133 गाँवों में 3 महीने में एक भी बच्ची का जन्म ना होना इत्तेफाक नहीं हो सकता है

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः

अर्थात “जहां स्त्री का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है। उस स्थान, समाज तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं। जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किए गए कार्य सफल नहीं होते हैं।”

यहां हिन्दू धर्म में सदियों से औरतों को देवी की संज्ञा दी गई है, हर तरह के धार्मिक आयोजनों में उनकी उपस्थिति को अनिवार्य माना गया है। कुंवारी कन्यायों को देवी का स्वरूप माना गया है और भी ऐसी कई सारी मान्यताए हैं, जो स्त्रियों को सशक्त रूप में प्रस्तुत करती हैं। लेकिन हमारे समाज की सच्चाई इसकी अलग ही तस्वीर सामने रखती है।

साल 1991 में उत्तरकाशी में एक भूकंप आया था, उसमें हज़ारों लोग मारे गए थे। पिछले दिनों फिर एक अनोखा भूकंप उत्तरकाशी में आया है, जो शायद कुदरत का नहीं बल्कि इंसानी कहर है, जिसमें कितनी लड़कियां गर्भ में ही मार दी गई हैं, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।

जी हां, देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड का ज़िला उत्तरकाशी, आजकल एक ऐसी वजह से सुर्खियों में आ गया है, जिसे चाहे तो केवल कुदरत का संयोग कहकर जान छुड़ा लीजिए या फिर इसकी तह तक जाकर आने वाले उस नाज़ुक वक्त के लिए तैयार हो जाइए, जब आपके द्वारा “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा लगाते रहने पर भी समाज से बेटियां गायब होती रहेंगी।

तीन महीनों में एक भी बच्ची का जन्म नहीं

फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Getty

क्या यह बात चौंकाने वाली नहीं है कि एक ज़िले के 133 गाँवों में तीन महीनों के अंदर जब 216 बच्चे पैदा हों, तो उनमें से एक भी लड़की ना हो? क्या वाकई कुदरत इतना बेरहम हो सकता है कि वह उस धरती पर लड़कियों को उतारना ही बंद कर दे?

आखिर क्या वजह है कि इन तीन महीनों में यहां एक भी लड़की ने जन्म नहीं लिया है? हालांकि उसके लिए कोई ठोस आधार सामने तो नहीं आ रहे हैं लेकिन यह तो तय है कि बड़े पैमाने पर चिकित्सीय सुविधाओं का दुरुपयोग करके कन्या भ्रूण हत्या की गई है या कोई और तरीके से बालिकाओं को दुनिया में आने से पहले या आने के तुरंत बाद खत्म किया गया है।

हैरान करने से भी कहीं ज़्यादा यह बात भविष्य के खतरों की आहट है। चांद पर पहुंचने वाले जिस देश में आज भी हाशिए पर धकेल दी गई स्त्री अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, क्या अब उसका अस्तित्व जड़ से ही मिटाने की कोशिश की जा रही है?

बालिकाओं की भ्रूण हत्या के कारण देश में घटता लिंगानुपात भी आखिर किसी से छिपा भी नहीं है। सरकारों की कन्या जन्म को प्रोत्साहन देने वाली कई योजनाओं और लगातार प्रयासों  के बावजूद देश में बालिकाओं का लिंगानुपात घट रहा है और लड़कियों की जन्म-दर में गिरावट जारी है।

हिमालय की गोद में स्थित उत्तराखंड राज्य के सुदूर पश्चिमी भाग में बसे उत्तरकाशी ज़िले का लिंगानुपात साल 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार 958 था, जो राज्य के 963 अनुपात से कम है। शिक्षा का स्तर भी यहां सामान्य से कम ही है।

प्राकृतिक संपदा के इस धनी ज़िले के अधिकतर लोग बेहद गरीब हैं। लड़के पैदा हुए तो कमाकर घर की आमदनी बढ़ाएंगे, लड़कियों की शिक्षा और विवाह पर खर्च किया गया पैसा तो पानी में बहा देना है, यह सोच इसके पीछे कहीं ज़रूर है। बड़ी बात नहीं कि इतनी तंगहाली से जूझ रहे परिवार बेटी को एक बोझ से ज़्यादा नहीं समझते और उसके जन्म में बाधा खड़ी करते हैं।

सरकार हुई है एक्टिव

फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Flickr

उत्तरकाशी ज़िले की इस तस्वीर से ज़ाहिर हुए खुलासे से सरकारी अमले के साथ-साथ सामाजिक संगठनों में भी हड़कंप मचा हुई है और जांच की जा रही है कि आखिर यह माज़रा है क्या?

बहरहाल, राहत की बात यही है कि इस मामले को गंभीरता से लिया जा रहा है। ज़िलाधिकारी आशीष चौहान ने संबंधित गॉंवों को ‘रेड ज़ोन’ के दायरे में लाकर जांच का भरोसा देते हुए ज़िले की ‘आशा’ कार्यकर्ताओं के साथ बैठक की है और अगले छह महीने स्थिति पर कड़ी नज़र रखकर इसके पीछे की वजहों तक पहुंचा जाएगा।

यह हमारे देश की बड़ी अजीब विडम्बना है कि एक ओर धार्मिक और पारिवारिक दायित्व निभाने के लिए, वंश को आगे ले जाने के लिए, पुण्य कमाने के लिए (ऐसा माना जाता है कि कन्यादान करने से पुण्य मिलता है) स्त्री चाहिए, वहीं दूसरी ओर संतान के रूप कन्या मंज़ूर नहीं है। हम उसको जन्म ना देने के लिए हर गलत रास्ता अपनाने को तैयार हैं। सरकारों की कन्याओं के लिए कल्याणकारी योजनाओं, अनेक प्रयासों के बावजूद लिंगानुपात बढ़ रहा है और लड़कियों की संख्या में गिरावट जारी है।

यूनिसेफ के अनुसार 10 प्रतिशत महिलाएं विश्व की जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं। आज शिक्षा का स्तर बढ़ने के बावजूद लोगों की दकियानूसी सोच में कोई अंतर तक नहीं आया है। महिलाओं के खिलाफ लगातार सामाजिक अपराध बढ़ते जा रहे हैं। यह कन्या भ्रूण हत्या से शुरू होकर, सही तरीके से पोषण, खान-पान, शिक्षा में ध्यान ना देकर, (क्योंकि लड़की है तो ज़्यादा अच्छा पोषण की ज़रूरत ही क्या हैं?) दहेज़ हत्या, यौन हिंसा तक सिर्फ एक स्त्री ही सबसे सुलभ विकल्प मानी जाती है पर सवाल वही है कि आखिर स्त्री ही क्यों?

जब पुरुषों ने स्त्री के अस्तित्व को सिरे से ही नकार दिया है और स्वयंभू होने का दंभ भरने लगे हैं, तब सरकारों और मेडिकल साइंस को नई चिकित्सीय सुविधाओं के ऐसे विकल्प भी तलाश करनी चाहिए, जिसमें पुरुष भी मातृत्व के दायित्व को निभाने के काबिल बन सके, क्योंकि तेज़ी से खत्म होती स्त्रियां कहां तक वंश वृद्धि कर पाएंगी?

 

Exit mobile version