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अरुणा आसफ़ अली, जिन्होंने जेल में कैदियों के हकों के लिए भी आवाज़ उठाई

अरुणा आसफ़ अली को अपनी स्मृति में कैद करने के कई तरीके हो सकते हैं, मसलन उन्हें उस भद्र महिला के रूप में याद किया जाए, जो अंग्रेज़ियत से ओत-प्रोत थीं और एक रूढ़िवादी वकील का दिल जीत लिया था।

इसके अलावा उस महिला के रूप में, जो नमक सत्याग्रह में पति की गिरफ्तारी के बाद राजनीति में कूद पड़ीं या उस महिला के रूप में, जिसने प्रतिरोध की जो ज्वाला लोगों में सुलगाई, उनको भूमिगत होकर नगर-नगर भटककर भी जलाए रखा। अरुणा उन महिलाओं में से हैं, जो अपनी ईमानदारी, दमित लोगों के प्रति सहानभूति और कर्तव्यनिष्ठा के कारण आदरणीय बन गईं।

प्रारंभिक जीवन

अरुणा आसफ़ अली

अतिसंवेदनशील और स्वतंत्र विचारों की अरुणा का जन्म 16 जुलाई 1906 को बंगाली ब्रह्मसमाजी परिवार में हुआ। बहन पूर्णिमा के साथ लाहौर के स्कूल में पढ़ाई करने गईं। स्कूली पढ़ाई के दौरान उनका आकर्षण कैथोलिक धर्म के प्रति हुआ, जिसके कारण उनको नैनीताल के स्कूल में भेज दिया गया, जो प्रोटेस्टेंट ईसाई स्कूल था।

आसफ़ अली से मुलाकात

स्कूल की पढ़ाई के बाद, वह इंग्लैड उच्च शिक्षा के लिए भी गईं, जहां उनकी रुचि अंगेज़ियत भरे ख्याल और खाने-पहनावे के प्रति बढ़ी। अरुणा छुट्टियों में अपनी बहन के यहां इलाहाबाद जाती थीं। यहीं उनकी मुलाकात आसफ़ अली से हुई, जो सफल बैरिस्टर के साथ-साथ कॉंग्रेस से भी जुड़े हुए थे।

उम्र में अरुणा से 22 वर्ष बड़े आसफ़ अली ने अरुणा के पिता की मृत्यु के बाद, इस्लामी विधि के अनुसार अरुणा से निकाह किया और अरुणा कुलसुम ज़मानी बनी। इस विवाह से परिवार में बवाल खड़ा हुआ, कुछ लोगों ने अरुणा से संबंध-विच्छेद कर लिए।

अरुणा और आसफ़ अली दोनों दिल्ली पहुंचे। अपनी युवा और आकर्षण छवि के कारण अरुणा समाज में चर्चा का विषय बनीं और व्यस्त बैरिस्टर आसफ़ अली अपनी आकर्षक पत्नी के प्रशंसा में शायरी लिखने लगे।

अरुणा का राजनीति में शामिल होना

अब तक अरुणा सक्रिय राजनीति से कोसों दूर थीं। नमक सत्याग्रह में आसफ़ अली गिरफ्तार कर लिए गए। अरुणा सत्याग्रहियों के दस्ते में शामिल हो गईं और उनको बेहद कमज़ोर मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में उन्होंने महिला राजनीतिक कैदियों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये का विरोध किया, सज़ा में उनको पुरुष कैदियों की जेल में भेज दिया गया। उनको कैदियों के फांसी देने वाले कोठरी में रखा गया।

जेल से निकलने के बाद अरुणा सभाओं, सम्मेलनों और समितियों में शिरकत करने लगीं, हालांकि उनका झुकाव कॉंग्रेस के विचारों से अधिक समाजवाद की तरफ था। वह दमितों के लिए काम करने के प्रति अधिक झुकाव महसूस करती थीं, जो जाति, गरीबी और स्त्री-पुरुष भेदभाव के शिकार हो।

कॉंग्रेस के विचारों में उनको धार्मिक प्रतीकवाद अधिक दिखता था। उन्होंने गॉंधीजी, नेहरु, मौलाना आज़ाद के साथ अपने मतभेदों को खुलकर अभिव्यक्ति किया, तथापि पारस्परिक आदर और स्नेह ने उनके बीच कोई खाई नहीं पड़ने दी।

उन्होंने “करो या मरो” और “भारत छोड़ो” आंदोलन में शिरकत भी की, जब कॉंग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा, तब उन्होंने आंदोलन को मरने नहीं दिया। उन्होंने उन कॉंग्रेसजनों को संगठित किया जो जेल के बाहर थे।

अरुणा किसी भी तरह से जेल में सड़ने को तैयार नहीं थीं, गिरफ्तारी से बचने के लिए वह भूमिगत हो गईं। उनको पकड़ने के लिए पांच हज़ार का इनाम भी घोषित हुआ, किंतु अरुणा सी.आई.डी की अपेक्षा अधिक चुस्त थीं। जब उनकी गिरफ्तारी का आदेश रद्द हुआ तब वह प्रकट हुईं।

भूमिगत जीवन से बाहर आने पर अरुणा ने कलकत्ता के देशबंधु पार्क में अपना संबोधन दिया। अरुणा अंतरिम सरकार की अवधारणा के विरुद्ध थीं। जब आसफ अली को संचार मंत्री का पद दिया गया तब अरुणा अप्रसन्न थीं। कुछ समय बाद आसफ अली को वाशिंगटन में भारत का राजदूत नियुक्त किया गया, तब अरुणा ने उनके साथ वहां नहीं जाने का निश्चय किया।

समाज के वंचित वर्गाों और महिलाओं के लिए उनके काम

आसफ अली के देहांत के समय तक अरुणा राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेता बन चुकी थीं। उन्होंने समाज के वंचित वर्गों, विशेषकर महिलाओं के लिए काम करना शुरू किया।

अरुणा ने युवाओं के बारे में कहा,

युवा हमारे राष्ट्र के भविष्य हैं, मुझे उनसे प्रेरणा मिलती है।

महिलाओं के बारे में अरुणा कहती हैं,

भारत में मेरी बहनों को अपने पतियों की जुराबों की मरम्मत क्यों करते रहना चाहिए, वह अपना समय व्यर्थ के गपशप में क्यों नष्ट करते रहती हैं।

अस्सी के दशक में उनकी तबीयत बिगड़ने लगी, धीरे-धीरे उनकी गतिविधियां सीमित हो गईं। जो सामाजिक गतिविधियां उनकी संजीवनी थी, उससे अरुणा विलग होकर अकेली पड़ गईं और जुलाई 1996 में उनका निधन हो गया।

कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित अरुणा का अंत एक युग के अंत के समान है, जिसमें नेता राष्ट्रीयता, देशभक्ति तथा जनहित सरीखे बृहत्तर लक्ष्यों के लिए जीते और कार्य करते थे ना कि अपनी उन्नति और स्वार्थ-सिद्ध के लिए।

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(नोट: लेख के लिए अरुणा आसफ़ अली की किताब, “आइडिया आफ द नेशन” से मदद ली गई है, जिसकी लेखिका खुद अरुणा आसफ़ अली हैं।)

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