2019 में मोदी सरकार की वापसी के बाद लोकतांत्रिक तबके में कुछ सवालों पर चर्चा शुरू हो गई थी जैसे, क्या इसके बाद अब देश में चुनाव होंगे? क्या देश में लोकतंत्र बचेगा? अगर हम 2019 के चुनावों पर नज़र डालें, तो मुझे नहीं लगता कि ये सही सवाल हैं। सवाल यह होना चाहिए कि अगर चुनाव होंगे भी, तो क्या निष्पक्ष होंगे?
क्या 2019 के चुनाव निष्पक्ष थे?
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार,
- 2016 से लेकर 2018 तक कॉरपोरेट से मिलने वाले डोनेशन का 92.5% डोनेशन सिर्फ बीजेपी को मिला है।
- कुल 985 करोड़ रुपये के डोनेशन में से अकेले बीजेपी को 915 करोड़ रुपये मिले हैं।
- दूसरे नंबर पर कॉंग्रेस है, जिसे सिर्फ 55 करोड़ रुपये का डोनेशन मिला है।
इन तथ्यों से यह साफ हो जाता है कि राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे में भारी असमानता है। ऐसे में इस चुनाव को निष्पक्ष कहना गलत होगा। चुनाव प्रचार में पैसे का बहुत अधिक महत्व होता है।
इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि इलेक्शन कमीशन के अनुसार पार्टियों को चंदा देने वालों के एड्रेस और पैन डीटेल्स देने होते हैं। बिना पैन और एड्रेस की जानकारी के दिए गए डोनेशन का 98% डोनेशन बीजेपी को मिला है।
काफी खींचतान के बाद भाजपा सरकार, चंदा देने वालों का नाम छुपाने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड ले ही आई है। इलेक्टोरल बॉन्ड का भी 95% डोनेशन सिर्फ बीजेपी को मिला है।
मतलब यह साफ है कि कॉरपोरेट की तरफ से राजनीतिक तंत्र में आने वाला लगभग सारा पैसा आज भाजपा के पास है। इसके साथ ही पूरी मीडिया, सरकार के साथ और विपक्ष के खिलाफ थी। विपक्ष को चैनलों पर बिल्कुल जगह नहीं मिली। चुनावों के समय मोदी सरकार के पक्ष में माहौल बनाने में मीडिया का बहुत अहम योगदान रहा।
शायद जनता को विपक्ष नहीं चाहिए
यह लगातार दूसरी बार हुआ है कि लोकसभा में किसी पार्टी को इतनी सीटें भी नहीं हासिल हो सकी कि उसे विपक्ष की मान्यता मिल सके। अब शायद जनता को विपक्ष नहीं चाहिए। मोदी सरकार भी बचे खुचे विपक्ष को खत्म करने की पूरी कोशिश कर रही है।
कर्नाटक में भाजपा ने कॉंग्रेस-जेडीएस सरकार के लिए संकट पैदा कर दिया। कर्नाटक सरकार को 14 महीने बाद ही सदन में विश्वास प्रस्ताव पेश करना पड़ा। गोवा में कॉंग्रेस के 10 विधायक भाजपा में शामिल हो गए, जिसके बाद 40 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा के 27 विधायक हो गए। भाजपा नेता मुकुल रॉय ने दावा किया है कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी, कांग्रेस और सीपीएम के 107 विधायक भाजपा में शामिल होने के लिए तैयार हैं।
अब इन घटनाओं को भाजपा को मिलने वाले चंदे से जोड़कर देखिए तब आपको पता चलेगा कि इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को खरीदने के लिए भाजपा के पास पैसा कहां से आ रहा है।
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राज्यसभा में एनडीए बहुमत के करीब
हमें यह समझना बहुत ज़रूरी है कि आखिर मोदी सरकार अपनी वापसी के बाद ही गोवा और कर्नाटक के सहारे विपक्ष के विधायकों को अपने पाले में शामिल करने में क्यों जुट गई? दरअसल, राज्यसभा में एनडीए अब बहुमत से सिर्फ 6 सीट दूर है। यह 6 कोई साधारण आंकड़ा नहीं है। यह लोकतंत्र और तानाशाही के बीच का फासला है।
सदन में बहुमत के खतरे को लोकसभा के एक उदाहरण से समझते हैं। मार्च 2018 में भाजपा ने सिर्फ 30 मिनट में बिना किसी बहस के फाइनेंस बिल और ऐप्रोप्रिएशन बिल पास कर दिया। इसके साथ ही 218 संशोधन भी पास कर दिए गए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रहा एफसीआरए संशोधन, जिसके हिसाब से 1976 के बाद राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले विदेशी चंदे जांच के दायरे से बाहर हो गए।
सोचिए, जब राज्यसभा में एनडीए की बहुमत आ जाएगी, तब संसद के दोनों सदनों में विपक्ष खामोश हो जाएगा। धीरे-धीरे भाजपा की सीटें बढ़ती ही जाएंगी। तब भाजपा अपने मन मुताबिक कोई भी बिल पास करवा लेगी। अगर यह तानाशाही नहीं है तो फिर क्या है?
देश की संसद देश के लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करती है। अब उसके दोनों सदनों में विपक्ष का प्रतिनिधित्व कमज़ोर हो जाएगा। चिंता की बात यह है कि ये सब जनमत के द्वारा नहीं, बल्कि धन बल के द्वारा किया जा रहा है। चंद पैसों के लिए बिकने वाले विधायक भी लोकतंत्र का महत्व नहीं समझ रहे हैं। इनके कंधों पर हमने लोकतंत्र बचाने की ज़िम्मेदारी सौंप रखी थी।
ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र को खतरा सिर्फ चुनाव को खत्म कर देने से है। कॉरपोरेट की मदद से विपक्ष को खरीद कर, मीडिया की मदद से बचे खुचे विपक्ष को दबा कर, संस्थानों से विरोधी स्वर को निकाल कर, चुनाव को एकतरफा बना कर भी लोकतंत्र खत्म हो जाता है।