कलम के जादूगर मुंशी प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य के महान साहित्यकार माने जाते हैं। इतने महान कि अगर आपने हिंदी पट्टी में दसवीं जमात तक प्रेमचंद की कोई पांच कहानियां नहीं पढ़ी, तो स्कूल में हिंदी के टीचर की छड़ी से ही आपका हिंदी का संस्कार पूरा होगा।
पूरे हिंदी साहित्य में प्रेमचंद इतने बड़े सूरमा हैं कि हिंदी साहित्य के अधिकांश छात्र उनको पूरा नहीं पढ़ पाते। अगर पढ़ भी लें तो उनके कथेतर की प्रासंगिकता को समझते-बूझते इतने खप जाते हैं कि शेष बचे समकालीन हिंदी लेखकों को पढ़ने के लिए नई ऊर्जा पैदा करनी पड़ती है।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि मुंशी जी अपने लेखन में भारतीय समाज का जो संजीव चित्रण करते रहे, उसका कोई जोड़ नहीं। उन्होंने महिलाओं की वास्तविक स्थिति को उसी रूप में उतारा जिस रूप में वे थी, उसमें उन्होंने ज़रा भी बनावटी उतार-चढ़ाव नहीं रचा।
अपनी लेखनी के कैनवस पर उन्होंने एक साथ कई विषयों को समेटा जो समकालीन होने के साथ-साथ आज भी प्रासंगिक हैं। यही वजह है कि उत्तर भारतीय समाज को जानने-समझने के लिए प्रेमचंद को पढ़ना ज़रूरी हो जाता है।
क्या है प्रेमचंद के नाम की कहानी
यूं तो हिंदी साहित्य में हम इन्हें प्रेमचंद के नाम से जानते हैं लेकिन गुरू सहाय राय के पौत्र और अजायब राय के पुत्र प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। इनके नाम को लेकर एक दिलचस्प कहानी यह भी है कि जब इन्होंने उर्दू लेखन की शुरुआत की थी तब इन्होंने अपना नाम नवाब राय रख लिया। नवाब राय नाम से इन्हें कामयाबी नसीब नहीं हुई। इसलिए वह नाम पीछे छूट गया।
प्रेमचंद के पूरे व्यक्तित्व के बारे में हिंदी साहित्य में किसी ने तसल्ली से काम किया है तो वह हैं हरिशंकर परसाई। उनके लिखे निबंध “प्रेमचंद के फटे जूते” में प्रेमचंद का जो परिचय मिलता है, उसके आगे बाकी निबंध या जीवन परिचय पानी भरते हैं।
उनके नाम के आगे मुंशी लगाने के पीछे भी एक कहानी है। लोगों का कहना है कि मशहूर विद्वान और राजनेता कन्हैयालाल मुंशी, महात्मा गांधी से बहुत प्रेरित थे। उनसे प्रेरणा पाकर उन्होंने प्रेमचंद के साथ “हंस” पत्रिका निकालने की शुरुआत की। जब हंस पत्रिका छपी तब उसके कवरपेज पर मुंशी-प्रेमचंद लिखा जाने लगा। बाद मे मुंशी प्रेमचंद के नाम के आगे जुड़ गया और दोनों नाम एक दूसरे के पयार्य बन गए।
हंस पत्रिका अंग्रेज़ों के खिलाफ बुद्धिजीवियों का हथियार बनी। पत्रिका में सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर चिंतन-मनन से अंग्रेज़ी हुकूमत दो साल में तिलमिला गई और प्रेस को ज़ब्त कर लिया गया। मुंशी प्रेमचंद कर्ज़ में डूब गए लेकिन लोगों के ज़हन में हंस के नाम से बस गए।
स्वतंत्र लेखन से प्रेमचंद अपने समय के सबसे बड़े नाम बन गए। अपनी कहानियों, उपन्यासों से पहले प्रेमचंद अपने समसामयिक लेखन से लोगों के करीब पहुंच चुके थे।
प्रेमचंद के लिए साहित्य जीवन की आलोचना था
प्रेमचंद अपने साहित्य संबंधी विचारों से अपने समकालीन साहित्यकारों की तुलना में अधिक तर्कपूर्ण लगते हैं। मसलन वह कहते हैं कि
साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो, जिसमें दिलो-दिमाग में असर डालने का गुण हो।
साहित्य की परिभाषा देते हुए वह कहते हैं कि
साहित्य जीवन की आलोचना है। चाहे वह निबंध में हो, चाहे कहानियों के रूप में या काव्य के रूप में, उसे जीवन की आलोचना करनी चाहिए।
अपने साहित्य की इसी व्याख्या से प्रेमचंद हिंदी के अपने समकालीन लेखकों से अलग हो जाते थे। जो ज़्यादातर मनोरंजन, प्रेम रस, विलासिता पर लिख रहे थे। प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण में “साहित्य का उद्देश्य” बताते हुए, वह जो कहते हैं, उनके लेखन में स्पष्ट रूप से दिखता है।
इसी तरह मौजूदा भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में “कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए सांप्रदायिकता ज़ोर बांध रही है” ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। यह रचना भारतीय समाज के ताने-बाने को समझाने की कोशिश करती है।
प्रेमचंद और बाल-कहानियां
प्रेमचंद जानते थे कि बच्चे देश का भावी भविष्य हैं। इसलिए अपनी तमाम कहानियों में उन्होंने बच्चों के अंदर नैतिक-सदगुण को विकास करने की अथाह कोशिश की। इस बात का बेजोड़ उदाहरण उनकी कहानी ‘ईदगाह’, ‘परीक्षा-गुरु’, ‘नमक का दारोगा’, ‘पूस की रात’, ‘दो बैलों की कथा’, ‘पंच-परमेश्वर’ तो है ही साथ ही 145 कहानियां और हैं जो स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं।
प्रेमचंद के विशाल कथा संसार में राष्ट्रीयता के भाव के साथ-साथ वह सबकुछ है जो बच्चों के अंदर समुचित मानवीय गुणों के विकास के लिए ज़रूरी हैं। प्रेमचंद द्वारा रचित बाल-कहानियों के बिना बच्चों के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। ‘ईदगाह’ जैसी कहानियां यह विश्वास पुख्ता करती हैं कि उनका बच्चों के जीवन में होना कितना ज़रूरी है।
प्रेमचंद की कई कहानियों को धारावाहिक का रूप देकर, दूरदर्शन में प्रसारित किया गया। अब ज़रूरत इस बात की है कि प्रेमचंद की कहानियों को एनीमेशन के ज़रिए बच्चों तक पहुंचाया जाए।
प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं
प्रेम, त्याग और बलिदान के उच्च आदर्श उनके लेखन में मौजूद हैं मगर उसका दायरा व्यापक होते हुए सीमित हो जाता है। उनके लेखन में आज़ादी की लड़ाई को केवल राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण से नहीं दर्शाया गया बल्कि उनके लेखन में आज़ादी का मतलब साधारण समाज को सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त कराना है।
इसलिए उनकी कहानियों और उपन्यासों में इन वर्गों की वास्तविकता और उसकी मुक्ति के सवाल बार-बार आते हैं। उनके लेखन में हिंदू-मुस्लिम सह-अस्तित्व की चिताएं परस्पर मिलती रहती हैं।
लेखन के विविध आयामों के बीच उनका लेखन मूलत: युग प्रर्वतक कथाकार के तरह है। जिसने अपने आभावों और संघर्षों से भरे जीवन की कठिनाईयों के चलते, जनजीवन से साहित्य की पूंजी कमाई। यह उनकी निष्ठा, प्रतिबद्धता और साधना की मिसाल हैं।
देश के लिए उनके देखे सपनों की आकांक्षा अभी खत्म नहीं हुई है इसलिए प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं। प्रेमचंद अपनी सर्जना और विचारों के साथ, आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं।